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रावलपिंडी में स्थित पाकिस्तान सेना (Pakistan Army) के हेड क्वार्टर में आजकल जो कुछ हो रहा है
विवेक शुक्ला |
रावलपिंडी में स्थित पाकिस्तान सेना (Pakistan Army) के हेड क्वार्टर में आजकल जो कुछ हो रहा है, वह पहले शायद ही कभी हुआ हो. वहां इन दिनों बड़े-छोटे अफसर हाल ही में प्रधानमंत्री के ओहदे से अपदस्थ हुए इमरान खान (Imran Khan) की सभाओं को फॉलो कर रहे हैं. इमरान खान की कराची में पिछले शनिवार को मोहम्मद अली जिन्ना के मकबरे के पास के मैदान, जिसे बागे- ए-जिना कहते हैं, में हुई पब्लिक मीटिंग पर भी सेना की पैनी नजर थी. मीटिंग में उमड़ी भीड़ से सेना के अफसरों की पेशानी से पसीना छूटने लगा है. कहते हैं कि इस मैदान में इससे पहले जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना की सभाओं में इतनी भीड़ आती थी. ये 1960 के दशक की बातें हैं.दरअसल पाकिस्तानी आर्मी कहीं ना कहीं डरी-सहमी इसलिए है क्योंकि इमरान खान ने सत्ता पर काबिज रहने के दौरान आर्मी के कामकाज में हस्तक्षेप करने की हिमाकत की और अब जब वे प्रधानमंत्री नहीं रहे हैं तो भी वे आर्मी पर सीधे या संकेतों के माध्यम से हमले बोल रहे हैं.
आर्मी के साथ दो-दो हाथ
आपको याद होगा कि इमरान खान पिछले साल अक्तूबर में पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई के चीफ फैज हामिद को आर्मी चीफ बनाना चाहते थे. यानि वे आर्मी चीफ कमर जावेद बाजवा को उनके पद से हटाना चाह रहे थे. यह सबको पता है, पर ये हो ना सका. पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार एच.एफ. हबीब बताते हैं कि इमरान खान अपने मिशन में कामयाब इसलिए नहीं हुए क्योंकि पाकिस्तान आर्मी का चीफ वही बन सकता है जो किसी जगह कोर कमांडर हो. आईएसआई चीफ सीधे आर्मी चीफ नहीं बन सकता. अपनी पसंद के इंसान को आर्मी चीफ बनाने का इरादा दिखाकर इमरान खान ने साफ संकेत दे दिया था कि वे देश की सबसे शक्तिशाली संस्था में अपना नियंत्रण चाहते हैं. इससे पहले शायद ही कभी किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री ने आर्मी के साथ सीधे तौर पर दो-दो हाथ करने की हिम्मत दिखाई हो.
इमरान खान ने एक बार फिर देश की संसद में अपने खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग होने से पहले भी कमर जावेद बाजवा को आर्मी हाउस से बाहर निकालने की असफल कोशिश की थी. लेकिन इमरान ने आर्मी को कायदे से बता दिया कि वे अपने पूर्ववर्तियों की तरह नहीं हैं, वे स्टैंड लेना जानते हैं. बाजवा भी रावलपिंडी के उसी गॉर्डन कॉलेज के छात्र रहे हैं जहां सशक्त अभिनेता बलराज साहनी भी पढ़ाई पूरी की थी.
पाकिस्तान में आर्मी के बढ़ते प्रभाव को जानने समझने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को खोल लेना होगा. पाकिस्तान 14 अगस्त, 1947 को दुनिया के मानचित्र पर आता है. वहां पर पहले ग्यारह साल तो आर्मी अपनी छावनियों में रही. इस बीच पाकिस्तान के दो शिखर नेता मोहम्मद अली जिन्ना 1948 में और फिर लियाकत अली खान 1951 में संसार से विदा हो गए. यूपी, हरियाणा और दिल्ली से समान रूप से संबंध रखने वाले लियाकत अली खान की 1951 में रावलपिंडी के आर्मी हाउस के करीब एक पब्लिक मीटिंग के दौरान हत्या कर दी जाती है. इतने भयावह हत्या कांड के दोषियों के नाम या हत्या के पीछे की गुत्थी कभी सामने नहीं आई.
मीर जाफर, अयूब खान और 1958
पाकिस्तान आर्मी के लिए साल 1958 खास रहा. वहां पर तब मीर जाफर के वंशज (सच में) प्रधानमंत्री इस्कंदर मिर्जा 27 अक्तूबर, 1958 को देश के संविधान के भंग करने के बाद देश में मार्शल लॉ लागू कर देते हैं. मिर्जा ने इसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में पढ़े पर बिना कोई डिग्री लिए वहां से निकले अयूब खान को आर्मी चीफ बना दिया. पर मिर्जा जिसे अपना समझते थे उसी अयूब खान ने उन्हें तेरह दिनों के बाद सत्ता से बेदखल कर दिया. अयूब खान सत्ता पर काबिज हो गए. जानकारों का कहना है कि मिर्जा के प्रधानमंत्री बनने तक तो पाकिस्तान में जम्हूरियत की बयार बही और उसके बाद वह हमेशा- हमेशा के लिए बंद हो गई. फिर वहां पर आर्मी का सिक्का कायम हो गया. आर्मी ने मुल्क की सरहदों की निगाहबानी करने के साथ-साथ विदेशी और घरेलू मामलों में भी दखल देना चालू कर दिया.
एच.एफ. हबीब कहते हैं कि पाकिस्तान आर्मी को विदेशी मामलों में भी दखल देनी की बीमारी है. पाकिस्तान में जब भी किसी अन्य देश का राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री या अन्य कोई अन्य महत्वपूर्ण शख्सियत आता है तो आर्मी चीफ उससे मिलते हैं. कमर जावेद बाजवा भी उसी रिवायत को आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि उन्हें या उनसे पहले के जनरलों को डिप्लोमेसी की कोई समझ नहीं रही है. बाजवा 23 जुलाई, 2019 को वाशिंगटन में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात करते हैं. इमरान खान को यह समझ नहीं आ रहा था कि आर्मी चीफ डिप्लोमेसी में क्यों दखल दे रहा है. इसलिए दोनों के बीच दूरियां बढ़ती गईं. गौर करें कि इमरान खान की हालिया रूस यात्रा के बाद उनके खिलाफ विपक्ष लामबंद हुआ. वे दावा कर रहे थे कि अमेरिका उनकी सरकार को हटाना चाहता है. दूसरी तरफ, बाजवा अमेरिका को पाक साफ बताते रहे.
पाकिस्तान के स्वीट्जरलैंड में रहने वाले प्रख्यात चिंतक प्रो. इश्तिआक अहमद ने अपनी किताब The Pakistan Garrison State: Origins, Evolution, Consequences में उन कारणों की विस्तार से चर्चा की है कि आखिर क्यों पाकिस्तानी अवाम मन से सेना को पसंद करने लगा था. प्रो. इश्तिआक अहमद का कहना है कि आर्मी ने देश के अवाम के सामने इस तरह का वास्तविक तथा काल्पनिक नेरेटिव रखा कि मानो सेना के बगैर पाकिस्तान की कल्पना भी नहीं की जा सकती. इसी पिलपिली सोच के चलते आर्मी देश को जंग में झोंक कर तबाह करती रही.
दरअसल यह सच है कि अयूब खान ने अकारण 1965 में भारत से जंग मोल ले ली. उसमें पाकिस्तान को करारी शिकस्त मिली और उसकी अर्थव्यवस्था घुटनों पर आ गई. 1965 के 24 सालों के बाद दिल्ली में पैदा हुए परवेज मुशर्रफ ने भी भारत से पंगा लिया. उनके पागलपन के कारण ही करगिल युद्ध हुआ. फ्राइडे टाइम्स के एडिटर नजम सेठी ने एक बार कहा भी था कि मुशर्रफ ने पाकिस्तानी फौजों को करगिल में भेज तो दिया पर उनकी वहां तबीयत से ठुकाई हुई.
भारत का सिरदर्द पाक आर्मी
अगर बात इमरान खान और उनके आर्मी के संबंधों से हटकर करें तो पाकिस्तानी आर्मी पर पंजाबियों का असर निविर्वाद है. जब तक यह स्थिति रहेगी तब तक लाख सिर पटकने के बाद भी दोनों मुल्कों में अमन की बहाली मुमकिन दूर की संभावना ही रहेगी. पाकिस्तान आर्मी की भारत से खुंदक जगजाहिर है. इसका एकमात्र मकसद भारत को हर लिहाज से नुकसान पहुंचाना है. इसलिए वहां पर शाहबाज शरीफ प्रधानमंत्री हों या इमरान खान, हालात सुधरने वाले नहीं हैं. क्योंकि सेना पर किसी का जोर नहीं रहा है. पहली बार उसे इमरान खान से चुनौती मिल रही है. इसके चलते आर्मी विचलित है. यही नहीं, पाकिस्तानी अवाम भी इमरान खान के साथ खड़ा है. उसे भी लोकतंत्र को देखने की प्यास है. आप पाकिस्तान आर्मी के गुजिश्ता दौर के पन्नों को देख लें. समझ आ जाएगा कि वह किस हद तक भारत विरोधी रही है. नामवर चिंतक राजमोहन गांधी ने अपनी किताब Punjab: A History from Aurangzeb to Mountbatten में लिखा है पाकिस्तान की आर्मी घनघोर रूप से भारत विरोधी है. वे इसके मूल में विभाजन के समय हुई मारकाट को दोषी मानते हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब में इस्लामिक कट्टरपन सबसे ज्यादा है. वहां पर हर इंसान अपने को दूसरे से बड़ा कट्टर मुसलमान साबित करने की होड़ में लगा रहता है. इस परिप्रेक्ष्य में इस बात की उम्मीद करना नासमझी होगा कि भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों में सुधार हो सकता है.
अयूब खान से बाजवा तक
जनरल अयूब खान से लेकर कमर जावेद बाजवा सभी के सभी घोर भारत विरोधी रहे हैं. ये सब पंजाबी रहे हैं. आजमगढ़ के शिबली कॉलेज में पढ़े मिर्जा असलम बेग तथा मुशर्रफ गैर-पंजाबी रहे हैं. पाकिस्तान आर्मी में 80 फीसद से ज्यादा पंजाबी हैं. पंजाब के अलावा पाकिस्तान के बाकी भागों में भारत विरोधी माहौल इतना अधिक नहीं है. पाकिस्तान आर्मी ने खून-खराबा करने में अपनों को भी नहीं बख्शा है. पाकिस्तानी आर्मी ने ईस्ट पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में 1971 में बांग्ला भाषियों पर जुल्म ढाहना शुरू किया था. इस कार्रवाई को पाकिस्तानी सेना ने आपरेशन सर्च लाइट का नाम दिया. यह जुल्म ऐसा-वैसा नहीं था. लाखों लोगों की बेरहमी से हत्या, हजारों युवतियों से सरेआम बलात्कार, तरह-तरह की अमानवीय यातनाएं दी गईं थीं. पाकिस्तानी सेना के दमन में मारे जाने वालों की तादाद 30 लाख थी. भारत से 1971 के युद्ध में धूल चाटने के बाद पाकिस्तानी आर्मी बाज आ जाएगी. लेकिन, ये नहीं हुआ.
कितनी बार पलटा तख्ता
पाकिस्तान आर्मी ने देश में चार बार निर्वाचित सरकारों का तख्ता पलटा. अयूब खान, याह्या खान, जिया उल हक और परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तानी सेना को एक माफिया के रूप में विकसित किया. देश में निर्वाचित सरकारों को कभी कायदे से काम करने का मौका ही नहीं दिया. जम्हूरियत की जड़ें जमने नहीं दीं. भारत से खतरे की आड़ में ही पाकिस्तान में लगातार सैनिक शासन पनपता रहा है. नफरत फैलाकर भय का माहौल पैदा करना ही पाक-आर्मी का मूल मकसद रहा शुरू से ही. 1947 के बाद से पाकिस्तान में लगभग तीस साल तक सैन्य शासन रहा और सेना ने केंद्रीयकरण को बढ़ावा दिया. जब सेना का शासन नहीं रहा तब भी इस केंद्रीयकरण का प्रभाव बना रहा. उधर, पाकिस्तान में अयूब खान और जिया-उल-हक के सैन्य शासन के दौरान भी लोकतंत्र बहाली के लिए प्रदर्शन और आंदोलन हुए. लेकिन आर्मी का कब्जा बना रहा. पर इस बार पाकिस्तान आर्मी को चुनौती इमरान खान से मिल रही है. उन्हें देश के नौजवानों का भी साथ और समर्थन मिल रहा है. इसलिए पाकिस्तान आर्मी डरी-सहमी है.
Rani Sahu
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