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स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात जिस राज्य की सत्ता स्थापित की गई है
टी टी कृष्णमाचारी,
स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात जिस राज्य की सत्ता स्थापित की गई है, वह शैशव में है और उसे अभी अनेक प्रकार के कष्ट सहने हैं और इस बात को सुनिश्चित करने के लिए, कि राज्य निर्विघ्न होकर कार्य करे, जो कुछ हम कर सकते हैं, उसका आश्वासन हमें देना चाहिए।
...भविष्य कैसा होगा, इस बारे में हम में से किसी को भी पूरा ज्ञान नहीं है, किंतु इतना हम सब जानते हैं, कम से कम हम में से बहुतों को तो यह विश्वास है कि भविष्य सुंदर होगा और भविष्य में राज्य प्रगतिशील होगा और यह भविष्य ऐसा होगा, जिसमें राज्य लोगों के आर्थिक जीवन में अधिकाधिक मात्रा में हस्तक्षेप करेगा और ऐसी बात इसलिए न करेगा कि वह व्यक्तियों के अधिकारों को संकुचित करना चाहता है, वरन इसलिए करेगा कि व्यक्तियों का जीवन सुंदर हो। ऐसे राज्य की मैं कल्पना करता हूं, एक ऐसा राज्य जो निश्चेष्ट न रहे, बल्कि सचेष्ट हो और लोगों की दशा सुधारने निमित्त काम करे।
...यह विशेष अनुच्छेद मौलिक अधिकारों की आत्मा है, अंग्रेजों के विधान के भाष्यग्रंथों से अथवा अमेरिका के विधान-ग्रंथों से अथवा अन्य किसी विधान से तुलना करने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि उनके आधार पूर्णतया भिन्न हैं। ...मैं एक खास संशोधन पर जोर देना चाहूंगा, जो मेरे मित्र के एम मुंशी ने पेश किया है। उस संशोधन का प्रयोजन केवल भावनात्मक है, उसमें राजद्रोह शब्द नहीं है। ...इस देश में राजद्रोह शब्द के उल्लेख मात्र से हम कुपित हो जाते हैं, क्योंकि हमारे राजनैतिक आंदोलन के दीर्घकाल में राजद्रोह शब्द का प्रयोग हमारे नेताओं के विरुद्ध किया गया। इस शब्द के प्रति घृणा प्रदर्शन करने में हम ही अनोखे नहीं हैं। वैधानिक कानून के विद्यार्थियों को यह स्मरण होगा कि 18वीं शताब्दी के अंत में अमेरिका की कानून की पुस्तकों में एक प्रावधान था, जो राजद्रोह के संबंध में एक विशेष कानून की व्यवस्था करता था, जो केवल कुछ वर्षों के लिए था और न्यूनाधिक रूप में 1802 में अप्रचलित हुआ। इस शब्द से घृणा लगभग विश्वव्यापी सी प्रतीत होती है। यहां तक कि वे लोग भी घृणा प्रदर्शन करते हैं, जिनको इस शब्द के अर्थ और विषय से उतना कष्ट नहीं हुआ है, जितना हमें। इसके साथ-साथ मेरे माननीय मित्र के एम मुंशी का संशोधन जहां तक इस राज्य का संबंध है, एक बड़ी आवश्यकता की पूर्ति करता है। यह संभव हो सकता है कि दस वर्ष पश्चात मौलिक अधिकारों में भाषण-स्वतंत्रता, सम्मेलन-स्वतंत्रता के निरपेक्ष अधिकार के वर्जन की व्यवस्था करना आवश्यक न हो। पर देश की वर्तमान दशा में मेरे विचार से यह आवश्यक है कि इन अधिकारों के प्रयोग पर कुछ विशिष्ट निर्बंध होने चाहिए। मेरे माननीय मित्र मुंशी द्वारा पेश किए गए संशोधन में राज्य का अर्थ विधान है और मेरे विचार से जब हम एक ऐसा विधान बना रहे हैं, जो हमारी सम्मति में दो संभाव्य बाह्य विचारों का समझौता है और हमारे लोगों की बुद्धि के अनुरूप है, तो यह आवश्यक है कि उस विधान के संधारण के लिए हमें समस्त संभाव्य सावधानियों को बरतना चाहिए और इसलिए मैं विचार करता हूं कि मेरे माननीय मित्र मुंशी द्वारा पेश किया गया संशोधन एक सुखद मध्यम मार्ग है और ऐसा है कि आवश्यकता पड़ने पर जिसकी व्याख्या ऐसी की जा सकती है, यदि दुर्भाग्यवश ऐसी आवश्यकता हो जाए, कि राज्य को विशृृंखलात्मक शक्तियों के विरुद्ध पर्याप्त रक्षा प्राप्त हो जाए।
...विशेष अधिकारों को क्रियान्वित करना हमारे लोगों के चातुर्य पर तथा इस बात पर निर्भर होगा कि हम स्वतंत्रता के विचारों को किस प्रकार उन्नत करते हैं, जो कि अभी बहुत ही अवनत अवस्था में हैं। निस्संदेह, यह सत्य है कि हमारे नेतागण कभी-कभी जल्दबाजी करते हैं, वे और अधिक शक्तियां चाहते हैं, जब उनके सामने कठिन परिस्थितियां आ जाती हैं, तब वे यह सोचते हैं कि उनसे मुक्त होने का एकमात्र साधन यह है कि और शक्तियां प्राप्त हों। वे इस बात को नहीं मानते कि वे लोगों के नेता हैं, इस देश के छटे-छटाए नेता हैं।
...जिन अधिकारों को यहां क्रमबद्ध किया गया है, उनको इतना कम करना कि वे निष्प्राण हो जाएं, उन नेताओं पर निर्भर है, जो हमें आगे प्राप्त होंगे और वे नेता लोग अभी देवताओं की गोद में खेल रहे हैं। उस समय तक के लिए हमने यथाशक्ति वह सर्वोत्तम कार्य किया है, जिसकी कल्पना मात्र ही मानव कर सकता है। हमारे समक्ष जो अनुच्छेद है, मैं उसका समर्थन करता हूं।
Rani Sahu
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