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मेरे सहयोगी और असम के नागांव से कांग्रेस सांसद प्रद्युत बोर्डोलोई ने हाल ही में लोकसभा में पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए भिन्न टाइम-जोन की मांग की
शशि थरूर
मेरे सहयोगी और असम के नागांव से कांग्रेस सांसद प्रद्युत बोर्डोलोई ने हाल ही में लोकसभा में पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए भिन्न टाइम-जोन की मांग की। उनका तर्क अकाट्य था। उन्होंने कहा, पूर्वोत्तर में सूर्य शेष भारत से पहले उगता है, इसके परिणामस्वरूप वहां के लोग राजस्थान या गुजरात के लोगों की तुलना में पहले जाग जाते हैं।
जब तक भारतीय मानक समय के अनुसार काम के घंटे शुरू होते हैं, तब तक असम में पहले ही दिन के कई घंटे बीत चुके होते हैं। अध्ययन बताते हैं कि व्यक्ति सुबह जागने के बाद पहले छह घंटों में सर्वाधिक प्रोडक्टिव होता है। लेकिन इंडियन स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार काम के घंटे शुरू नहीं होने के कारण पूर्वोत्तर का बहुत उत्पादक-समय जाया हो जाता है।
वर्ष 1974 में एक टीनएजर-छात्र के रूप में मैंने एक बार की गर्मियां जोरहट के निकट अपने एक सहपाठी के चाय-बागान पर बिताई थीं। वहां मुझे अपनी घड़ी को टी-टाइम पर रीसेट करना पड़ा था। यह समय बागान में काम करने वालों ने मेरी घड़ी में दो घंटा जोड़कर तय किया था।
मेरे दोस्त के पिता का कहना था कि जहां सुबह 4 बजे सूर्य उग जाता हो और अपराह्न 3.30 बजे ढल जाता हो, वहां दिल्ली वाला समय कैसे काम कर सकता है? मेरे राष्ट्रवादी विचार तब तक इतने परिपक्व हो चुके थे कि मैं इससे आहत नहीं हुआ। मैंने नहीं सोचा कि आईएसटी से भिन्न टाइम-जोन की मांग करना भारतीयता का उल्लंघन होगा।
इसके कुछ समय बाद जब मैं ग्रैजुएशन की पढ़ाई के लिए अमेरिका गया तो मैंने पाया कि वहां के लोग चार भिन्न टाइम-जोन को लेकर सहज हैं, जबकि अलास्का और हवाई के टाइम-जोन तो अमेरिकन मेनलैंड से भी भिन्न थे। अमेरिका में वो लोग गर्मियों के दौरान डे-लाइट-सेविंग्स-टाइम का उपयोग करते हैं, जिसमें सभी अपनी घड़ियों को एक घंटा आगे सेट कर लेते हैं, ताकि स्प्रिंगटाइम के दौरान लम्बे दिनों का लाभ ले सकें। पतझड़ (अमेरिका में इस ऋतु को फॉल कहा जाता है) के दिनों में वे इन्हें फिर से पूर्ववत कर लेते हैं। इसे वहां पर 'स्प्रिंग फॉरवर्ड, फॉल बैक' कहा जाता है।
शुरू में मुझे लगा कि एक पूरा देश इसका अभ्यस्त कैसे हो सकता है, क्योंकि मैं तो यही सोचते हुए बड़ा हुआ था कि नेशनल क्लॉक में बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन धीरे-धीरे मुझे हर बार गर्मियों और पतझड़ में और घरेलू उड़ानों के बाद घड़ी का समय बदलने की आदत हो गई। मैंने पाया कि ऐसा केवल अमेरिका में नहीं था।
पूरी दुनिया में ही समय का निर्धारण लोगों की सुविधा को ध्यान में रखकर किया जाता है। कोई भी पहले से निर्धारित समय का पालन करने के लिए बाध्य नहीं होता। जिन जगहों पर सूर्य पहले उगता है और गर्मियों के दौरान देरी से अस्त होता है, वहां समय बदलने से आप दिन की रोशनी का ज्यादा उपयोग कर सकते हैं।
इससे ऊर्जा की खपत भी कम होती है, क्योंकि तब कामकाजी समय के दौरान बत्तियां जलाने की नौबत नहीं आती है। जब मैं जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र के लिए काम कर रहा था, तब स्विट्जरलैंड में एक बहस छिड़ गई थी। दूध और पनीर का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले इस देश के प्रभावशाली किसान समुदाय ने यह कहते हुए अपनी घड़ियों का समय बदलने से इनकार कर दिया था कि अगर साल के पांच महीने उनकी गायों को सामान्य से एक घंटा पहले दुहा जाएगा तो वे इससे भ्रम में पड़ेंगी।
अंतत: सरकार को डेयरी फार्मर्स की इस जिद को दरकिनार करना पड़ा और स्विस लोगों ने भी हर साल गर्मियों में डे-टाइम-सेविंग्स-टाइम की प्रणाली को अपनाया। ऐसा भारत में क्यों नहीं किया जा सकता? हमारा टाइम-जोन ताे जैसलमेर से जोरहट तक फैला हुआ है, जबकि नियम यह है कि देशांतर में हर 15 डिग्री के बदलाव पर नया टाइम-जोन होता है।
भारत तो 30 डिग्री देशांतर में व्याप्त है। आखिर इसमें क्या तुक है कि लक्षद्वीप के लोग लखनऊ के टाइम पर जागें या असम और अंडमान के लोग आगरा के हिसाब से घड़ी मिलाएं? इसका जीवनशैली से जुड़ी आदतों और ऊर्जा संरक्षण पर नकारात्मक असर पड़ता है।
जब पूरे देश के लिए एक टाइम-जोन तय किया गया था तब हमें नई-नई आजादी मिली थी और हम राष्ट्रीय एकता के लिए सतर्क थे। लेकिन आज ऐसी कोई बात नहीं है और हमें अपनी एकता दिखाने के लिए क्रोनोमेट्रिकल एकरूपता की जरूरत नहीं है। वास्तव में इंडियन फिजिकल लेबोरेटरी के द्वारा पहले ही यह सुझाव दिया जा चुका है कि भारत में अनेक टाइम जोन होने चाहिए।
जब देश के लिए एक टाइम-जोन तय हुआ था तब हमें नई-नई आजादी मिली थी और हम राष्ट्रीय एकता के लिए सतर्क थे। आज एकता दिखाने के लिए क्रोनोमेट्रिकल एकरूपता की जरूरत नहीं है।
Rani Sahu
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