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By: divyahimachal
यह उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी शिवसेना के लिए निर्णायक दौर है। सर्वोच्च अदालत ने चुनाव आयोग को हरी झंडी दे दी है कि वह 'असली शिवसेना', चुनाव चिह्न 'तीर-कमान' और पार्टी ध्वज पर अपना फैसला दे सकता है। जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 और चुनाव चिह्न (आरक्षण एवं आवंटन) ऑर्डर, 1968 के मुताबिक, यह चुनाव आयोग का विशेषाधिकार है कि वह तय करे कि पार्टी किसकी है, उसका अध्यक्ष कौन है और चिह्न, ध्वज को आवंटित करने का अधिकार किसका है। कानूनन आयोग दायित्व से बंधा है कि कार्यवाही कर निर्णय लेे। सर्वोच्च अदालत ने यह भी स्पष्ट किया है कि वह आयोग की कार्यवाही पर रोक नहीं लगाएगी, क्योंकि संविधान ने यह जनादेश आयोग को दिया है। उद्धव गुट ने याचिका दी थी कि जब तक विधायकों की 'अयोग्यता' का मामला शीर्ष अदालत में निपट नहीं जाता, तब तक चुनाव आयोग कोई कार्यवाही न करे। सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव सेना की यह याचिका खारिज कर दी। उसके मुताबिक, दोनों कार्यवाहियां अलग-अलग हैं, आपस में जुड़ी हुई नहीं हैं, लिहाजा गडमड की कोई व्यवस्था पैदा नहीं करेंगी। अदालत में यह उद्धव सेना को बहुत करारा झटका है।
दरअसल बुनियादी मुद्दा बाल ठाकरे द्वारा स्थापित शिवसेना पार्टी का है, जिसकी अपनी पहचान रही है। यदि शिवसेना और उससे जुड़े पक्षों पर कोई अप्रत्याशित, अभूतपूर्व फैसला सामने आता है, तो कमोबेश दिवंगत बाल ठाकरे की पारिवारिक विरासत की राजनीति का 'अवसान' शुरू हो जाएगा। यह भी तय हो जाएगा कि राजनीतिक पार्टी की विरासत और संपदा 'पारिवारिक' नहीं हो सकती, वह तो मूल्यों और विचारधारा पर टिकी होती है। चुनाव आयोग बहुमत के निर्धारित मानकों पर ही तय करेगा कि 'असली शिवसेना' का स्वामित्व किसका है। यह निर्णय पार्टी सांसदों, विधायकों, पार्षदों, राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों और अन्य संगठनों में बहुमत के आधार पर ही, पारदर्शी तरीके से, लिया जाएगा।
अब उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं हैं। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में जिन शिवसेना विधायकों ने उद्धव ठाकरे के प्रति असंतोष जताया था और एक गुट ने खुद को अलग कर, भाजपा के गठबंधन में, साझा सरकार बनाई थी, उनके खिलाफ दलबदल निरोधक कानून के तहत 'अयोग्यता का मामला' सर्वोच्च अदालत में लंबित है। उद्धव सेना के पैरोकार इसे 10वीं अनुसूची का उल्लंघन साबित करने में जुटे हैं, लेकिन शिंदे आज न केवल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं, बल्कि कथित राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने उन्हें 'शिवसेना प्रमुख' भी चुन लिया है। अब शिवसेना के दो अध्यक्ष हैं और अपने-अपने दावे किए जा रहे हैं कि वे मूल पार्टी हैं। बाल ठाकरे ने जिन संघर्षों के साथ शिवसेना का गठन किया था और एकनाथ शिंदे को भी पार्टी में जोड़ा था, उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि उनकी शिवसेना में विभाजन के ऐसे हालात बनेंगे और उनके 'युवराज' को बेदखल किया जा सकेगा। बाल ठाकरे ने ही अपने जीवन-काल में उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था। बाद में वह पार्टी प्रमुख बन गए। उद्धव ठाकरे और उनके गुट के लिए अग्नि-परीक्षा और अस्तित्व की रक्षा का यह आखिरी दौर है। शिंदे सेना के पक्ष में सांसदों, विधायकों, पार्षदों और कार्यकारिणी सदस्यों का बहुमत है। इनके अलावा, 1.5 लाख से ज्यादा सदस्यों के हलफनामे भी हैं, जिन्होंने शिंदे गुट को समर्थन देकर 'असली शिवसेना' करार दिया है। इन तमाम दावों पर चुनाव आयोग अपना अंतिम फैसला लेगा।
अब अदालत के बजाय आयोग के सामने अपने-अपने पक्ष की पैरोकारी की जाएगी। सर्वोच्च अदालत में भी ऐसे ही तीन मामलों के साथ एक नया दौर शुरू हुआ है-अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण। यह खुली अदालत का ही पर्याय है। अब आम आदमी 'न्याय' की व्याख्या करते हुए अदालत को देख पाएगा। हालांकि शिवसेना का यह मामला पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ सुन रही है। बहरहाल शिवसेना का 'अयोग्यता वाला मामला' अब भी न्यायिक पीठ के विचाराधीन है। मान लीजिए कि मुख्यमंत्री शिंदे और उनके करीब 40 विधायकों को 'अयोग्य' घोषित कर दिया जाता है, तो उनकी सदस्यता चली जाएगी, लेकिन वे पार्टी के सदस्य फिर भी रहेंगे। इस संदर्भ में स्पीकर का फैसला भी महत्त्वपूर्ण होगा। अदालत सीधे ही हस्तक्षेप करने से बचेगी, लेकिन शिवसेना का भविष्य नए सिरे से लिखा जाना है।
Rani Sahu
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