सम्पादकीय

जो सर्वत्र है : प्रकाश है तो हम आलोकित क्यों नहीं होते

Neha Dani
14 Nov 2021 1:54 AM GMT
जो सर्वत्र है : प्रकाश है तो हम आलोकित क्यों नहीं होते
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जैसे कि काशी की अपनी गुफा में तुलसीदास ने विनयपत्रिका लिखी, या गोविंद दास ने लिखी स्मृति कण।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सेठ गोविंद दास एक प्रशस्त पुरुष थे। वह जबलपुर के थे। करीब सौ से ज्यादा उन्होंने नाटक लिखे। अपने पूरे जीवन काल में वह उस समय के लगभग सभी प्रशस्त प्रतिभाओं के संपर्क में आए, संवाद किया, दूर से या फिर करीब से देखा, जिनमें महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, लोकमान्य तिलक, मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपत राय, मदनमोहन मालवीय, प्रेमचंद, एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडु, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद, जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद और महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रमुख हैं।

एक बार एक निजी बातचीत के दौरान मालवीय जी ने उनसे कहा था कि लाइमलाइट में सभी आना चाहते हैं। लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि लाइट यानी प्रकाश किसी फूहड़ को सुंदर नहीं दिखा सकता। वह उस को वैसे ही अपने प्रकाश में दिखाता है, जैसा कि वह है। इसलिए प्रकाश में आने से पहले क्या चरित्र निर्माण आवश्यक नहीं? अन्यथा लाइमलाइट में आने से वह सब भी तो दिख जाएगा, जो आप वास्तव में हैं, जिसे आप छिपाना या गोपनीय रखना चाहते हैं ?
मालवीय जी का दौर और परिस्थिति अभी नहीं है, लेकिन इस मूल्य संपन्न दृष्टि की प्रासंगिकता अभी अधिक प्रशस्त हो उठी है। गोविंद दास की पुस्तक स्मृति कण में ऐसी दृष्टियां ही हैं, जो उस दौर के प्रशस्त पुरुषों से प्रेरित हैं। आज यदि कोई अपने पूरे जीवन काल के ऐसे अनुभवों और वैसी मुलाकातों को लिखना चाहे, तो अध्यायों की संख्या न्यूनतम ही रहेगी। प्रकाश ढूंढ़ने की चर्चा हर युग में की जाती है, जो सर्वत्र है। प्रकृति ने प्रकाश की ही रचना की है, अंधकार की नहीं।
सवाल यह है कि यदि प्रकाश है, तो फिर हम प्रशस्त क्यों नहीं होते। भय किससे है, वर्तमान दौर से या स्वयं अपने मन से, जिसे होना ही नहीं था, यदि हम सृष्टि के विकासक्रम को ठीक से समझ पाते? ठीक से यानी भारतीय अर्थ में। गहरे अर्थ में देखें, तो जो हमें चाहिए, वह हमें पहले से मिला हुआ है। जो हमें नहीं चाहिए, उसे हमने रचा है यानी अंधकार। जैविकी का यह पश्चिमी दृष्टिकोण पूरा है कि सृष्टि में विकासक्रम पूरा हो चुका है। प्रकृति में मानव से आगे कोई और भौतिक रूप देखा नहीं जा सका है, न संभव है।
यानी प्रकृति ने अपने नियमों की गरिमा और आंच में पदार्थ या भौतिकी के विकास की प्रक्रिया पूरी कर दी है। समुद्र, आकाश, जंगल और जीव इस प्रक्रिया की अनिवार्य भूमिका सहज आनंद से निभाते चले आ रहे हैं। समस्या सिर्फ मनुष्य को है। या समस्या सिर्फ मनुष्य की है। पांच हजार साल की कथित सभ्यताओं के बाद भी वह क्रूर, अभद्र, भयभीत, शक्तिहीन और दुखी है। न वह करुणा संपन्न हो सका न उसे प्रकृति को वश में करना आया।
हर अनुभव हमें अपने प्रकाश में यह दिखाता है कि हम सभ्य नहीं हो सके हैं। यानी अपने मन को शिष्ट और शिक्षित नहीं कर पाए हैं। जीने की लालसा में जीने के अवसर को खोते चले जा रहे हैं। प्रकृति और मृत्यु के आगे विवश रहकर प्रेम, ईश्वर और मुक्ति की अवधारणाओं से संघर्ष कर रहे होते हैं। कबीर, टॉलस्टॉय, रवींद्रनाथ और सेनेका को पढ़ते हैं तथा असुरक्षा के धुंध में धुंधले होते चले जाते हैं। हमने समझा कि प्रकृति ने पदार्थ के विकास को क्रम से सजाया, तो वह हमें सभ्य भी बना देगा।
हम यह समझ ही न सके कि मन का विकास हमें खुद करना है, प्रकृति उसमें सहायक नहीं। बल्कि प्रकृति ही उसमें बाधक है, क्योंकि मन उसी के अधीन एक अनस्तित्व है, ऐंद्रिक दृश्य का सूक्ष्म स्वप्न। जिन्होंने इस भ्रम को देखा, वे ऋषि हुए, शेष क्रूर, निरंकुश और बर्बर ही रह गए। शताब्दियां बीतती चली गईं। हमारी ही ऋषि परंपरा ने हमें सिखाने की कोशिश की कि हम प्रकृति के नियमों से नहीं बंधे हैं। इस तरह हम कारण और प्रभाव के नियम से ऊपर उठ सकते हैं।
एक ऐसे जीवन को भी जी सकते हैं, जो प्रशस्त है और जहां मृत्यु नहीं है। हम अमृत के भागीदार हैं। यह हमारा अधिकार है। हो सकता है, यह नीरस लगे या दार्शनिक अभिप्रायों का मनोविनोद लगे, इसलिए कला की ओर से भी हमें बताया गया कि फल पहले है, कर्म बाद में है। एक कलाकार का परिचय कला में उसका प्रतिभा संपन्न होना है। प्रतिभा का अर्थ है नया और मौलिक रचने की नैसर्गिक आभा। इसे हम कलाकार का विचार कहते हैं।
वह कहता है कि यह विचार उसके मानस में किसी परा स्तर से आता है। इस विचार में ही फल या प्रभाव पहले से संचयित रहता है, जिसे उसे दर्शकों तक पहुंचाना होता है। इस प्रभाव को नाट्यवेद में भरत मुनि ने रस कहा। उन्होंने तत्कालीन प्राचीन संस्कृत भाषा में पांच अर्थप्रकृतियां बताईं,, बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य। उन्होंने कहा कि किसी रचना जैसे काव्य के बीज में ही उसका पूरा वृक्ष यानी फल है। कलाकार को उसकी पहचान कर उसे लोगों तक पहुंचाना होता है।
इस प्रकार फल पहले हुआ और कर्म बाद में। यहां कर्म करना उसका दायित्व बन जाता है, जिसे उसे उसकी ही शुद्ध चेतना ने ही दिया है, जिससे कर्ता भाव और कर्म बंधन नष्ट हो जाए और इस प्रकार वह प्रकृति के नियमों के पार चला जाए। कलाकार इस प्रकार कर्म करता हुआ कुछ भी नहीं करता और रचनाशील हो जाता है। रचनाशील व्यक्ति सभ्य है, सुसंस्कृत है, प्रशस्त है। मौलिकता या नित्य नवीनता उसका प्रकाश है।
यदि वह रचना नहीं कर रहा, तो अंधकार को सघन कर रहा। उसे हम अराजक और असभ्य कहते हैं। असभ्य व्यक्ति गुफाओं में नहीं होते, जैसा कि हमें बताया गया है। गुफाओं में सभ्य व्यक्ति रचना करते हैं, जैसे कि काशी की अपनी गुफा में तुलसीदास ने विनयपत्रिका लिखी, या गोविंद दास ने लिखी स्मृति कण।
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