सम्पादकीय

कब आएंगे वे दिन

Rani Sahu
2 March 2022 6:58 PM GMT
कब आएंगे वे दिन
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क्या कभी वे दिन भी आ जाएंगे जब कि भरपूर मेहनत करने वाला अपमानित, लांछित और निर्वासित होकर किसी विरोधी धरना प्रदर्शन करने के काबिल भी नहीं रह जाएगा

क्या कभी वे दिन भी आ जाएंगे जब कि भरपूर मेहनत करने वाला अपमानित, लांछित और निर्वासित होकर किसी विरोधी धरना प्रदर्शन करने के काबिल भी नहीं रह जाएगा। पहले की तरह ही छुटभैये सभी अदब कायदे तोड़ कर पहचान के शिखर पर बैठ कर अब भी मुस्कराते रहेंगे। ऐसा सवाल पूछने वाले आजकल उज़बक कहलाते हैं। वे दिन बीत गए जब आत्म-विश्वास से भरे हुए दृढ़-प्रतिज्ञ लोग रुक कर अजनबी धरती के किसी भी कोने पर पांव टिका कर कह देते थे कि 'हम जहां खड़े हो गए, कतार वहां से ही शुरू हो जाती है।' आज अंतरराष्ट्रीय मानक संस्थानों से लेकर भ्रष्टाचार को मापने वाली ट्रांस्पेरेंसी अंतरराष्ट्रीय संस्थान जैसी संस्थाएं भी आह भर कर उद्दाम जोश से भरे इन लोगों को कह देती हैं कि 'होगी जनाब, आप में कोई भी नई कतार शुरू करने की ताकत, परंतु पहले यह बताइए कि आपके सिर पर यह कतार शुरू करने के लिए किसी गॉड फादर का हाथ है?' हमने 'मारिया पिजो' के उपन्यास का नाम 'गॉडफादर' सुना था कि जिसके एक इशारे पर एक नई कतार ही शुरू नहीं होती थी, पूरी चलती बिसात ही उलट कर नई बिसात बिछा दी जाती थी। हम जानते थे कि गॉडफादर एक अंग्रेज़ी शब्द है।

'आप हिंदी में लिखने का दम भरते हैं, इसका हिंदी में सटीक और समानार्थक शब्द तलाश कर के लाइए', हमें कहा गया। हम ठहरे मेहनती आदमी, समानार्थक शब्द की तलाश में जुट गए, लेकिन इसी अंग्रेज़ी शीर्षक के पितृसंरक्षकों ने इस बीच हमें खेल के वृत्त से बाहर कर दिया। उधर कतार शुरू हो गई, जुम्मा-जुम्मा आठ दिन के प्रवेश वाले भद्र चहेतों से, जिन्हें हथेली पर सरसों जमाने की आदत हो गई है। भ्रष्टाचार मापक संस्थानों के मापकों या मसीहाओं ने हमारी नादानी का मातम मनाते हुए समझाया, 'अरे भई, इतना भी नहीं जान पाए कि यहां पर एक ही स्थान पर खड़े-खड़े तरक्की की घोषणा हो जाती है।' लोग जहां से चलते हैं, उसी वृत्त में घूमते हुए फिर उसी बिंदू पर ठिठक जाते हैं और घोषणा हो जाती है कि देखो, इस बीच ज़माना कयामत की चाल चल गया।
कोरोना जैसी माहामारियों के विकट प्रकोप में तुम आम आदमी की दुर्दशा का रोना रोते रहे और उससे हुई एक प्रतिशत लोगों की तरक्की का तनिक जि़क्र भी नहीं किया कि जिनकी आय इस बीच सौ प्रतिशत बढ़ गई है। अब भला आम आदमी का जि़क्र करके अपना मुंह कसैला क्यों करते हो, क्यों न चुनिंदा लोगों की बातें करें? आम लोग तो पहले जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। पहले भी भूखे, बेघर और बेकार थे, आज भी वैसे ही हैं। उनके अपमानित और लांछित हो जाने की चिंता क्यों करते हो? इस भाग्यवादी देश में नियति भी तो एक अकाट्य सत्य है। यह दीगर बात है कि उसके भाग्य के फूटा होने का विवरण ही इन आम आदमियों को मिलता है और अभिनंदन का तरन्नुम किन्हीं शार्टकट गलियों में से निकलता हुआ दूसरों के गले में वरमाला पहना जाता है। उन लोगों के गले में जो कभी तीन में नहीं थे और अब तेरह में भी नहीं हैं। फिर भी कुर्सी पा गए। लेकिन इस सच्चई से चौंकना कैसा? जब दौड़ हुई ही नहीं, तब उस दौड़ में पीछे रह जाने से अपमानित और लांछित महसूस करने का क्या तुक? यह तुक भी बड़ी चीज़ है बंधु! अगर वही भिड़ानी आपको आज तक आ गई होती तो आज हमें तुक से बेतुका हो जाने का अर्थ समझाने की ज़रूरत आपको न पड़ती। 'होता है तमाशा दिन-रात मेरे आगे' की तरह हमने हर दिन बेतुके लोगों को संगीत, कला, जीवन और समाज की सुर्खियां जीत लेने की घटनाओं में सिरमौर बनते देखा है।
सुरेश सेठ


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