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हाल ही में वैज्ञानिकों को कनाडा में पाए गए चट्टानों के माइक्रोफॉसिल अध्ययन से यह पता चला है
प्रदीप
हाल ही में वैज्ञानिकों को कनाडा में पाए गए चट्टानों के माइक्रोफॉसिल अध्ययन से यह पता चला है कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्तिइस ग्रह के बनने के महज 30 करोड़ साल बाद ही हो गई थी. हमें 30 करोड़ साल भले हीबहुत ज्यादा लगें लेकिन भूगर्भिक कालक्रम के पैमाने (geologic time scale) पर यह पलक झपकने के बराबर है.
अगर 'साइंस एडवांस' जर्नल में प्रकाशित यह शोध सही साबित होता है, तो हम यह कह सकेंगे किहमारे जीवाणुनुमा सूक्ष्मजीवी पूर्वज (microbial ancestor) 3.75 से लेकर 4.28 अरब साल पहले पृथ्वी पर जीवन की बहार लेकर आए थे. इसकी पुष्टि न सिर्फ एक नए पैराडाइम शिफ्ट का आधार बन सकती है बल्कि जीवन की उत्पत्ति को लेकर वैज्ञानिकों का समूचा नजरिया भी बदल सकती है
मनुष्य सभ्यता के आदिकाल से ही यह सोचता आया हैकि धरती पर जीवन कहाँ से आया? आखिर ये तरह-तरह के जीव-जंतु कैसे बने? यहसवाल कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कब और कैसे हुई विज्ञान की अनसुलझी पहेलियों में एक है. इस सवाल का जवाब जीवन को लेकर हमारा समूचा दृष्टिकोण बदलने में सक्षम है.
जितने मुंह उतनी बातें
जीवन की उत्पत्ति के सवाल को लेकर लंबे समय से धर्माचर्यों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों की दिलचस्पी रही है. इस संदर्भ में प्राचीन विश्व की अनेक सभ्यताओं में अनेक प्रकार के विचार मिलते हैं. अमूमन सभी धर्मों में थोड़े बहुत फेर-बदल के साथ सृष्टि और जीवन का कर्ता-धर्ता ईश्वर को ही माना गया है. हिंदू पुराणों के मुताबिक घनघोर अंधेरे में ब्रह्मा का जन्म हुआ. जन्म के तुरंत बाद वे तपस्या करने बैठ गए. तपस्या की शक्ति से उनके एक-एक अंग से एक-एक जीव का जन्म हुआ.
ईसाइयों के धर्मग्रंथ बाइबिल में लिखा है कि लगभग छह हजार साल पहले किसी एक शुभ दिन ईश्वर ने विश्व की सभी प्रजातियों की रचना एक झटके में कर दी. वहीं मुसलमानों का पाक किताब कुरान (आयत 21:30) कहता है कि अल्लाह ने हर जीवित चीज को पानी से बनाया है. खास बात यह है कि इन सभी धर्मों की ओर से जीवन की उत्पत्ति के प्रश्न के जितने भी उत्तर मिलते हैं सभी लगभग एक-जैसे ही हैं – किसी अनोखे जादू या दिव्य शक्ति से सभी जीव-जंतु बन गए.
निर्जीव पदार्थों से सजीवों की स्वत: उत्पत्ति
जीवन की उत्पत्ति को लेकर धर्मविश्वास के चंगुलसे मुक्त होकर पहली परिकल्पना देने का श्रेय प्राचीन ग्रीक के दार्शनिकों को दिया जाता है. जीव विज्ञान के जन्मदाता माने जाने वाले अरस्तु के मुताबिक निर्जीव पदार्थों से जटिल जीवों की स्वत: उत्पत्ति (spontaneous generation) हो जाती है. अरस्तु का मत था कि मिट्टी, कीचड़, धूल और हर तरह के कचरे या सड़ती हुई चीजों से बिलबिलाते हुए जीवों के समूह पैदा हो जाते हैं, इसलिए हो सकता है इन्सानों की भी उत्पत्ति ऐसे ही हुई हो.
स्वत: उत्पत्ति का यह सिद्धांत तब तक वैज्ञानिकों के बीच जीव उत्पत्ति की व्याख्या के रूप में छाया रहा, जबतक कि फ्रांसीसी सूक्ष्म जीवविज्ञानी लुई पास्चर ने 1862 में अपने प्रयोगों द्वारा निर्विवाद रूप से इसको निर्मूल सिद्ध नहीं कर दिया. पास्चर का कहना था कि जीवन सेही जीवन की उत्पत्ति हुई है. लेकिन यह सवाल अभी भी बरकरार था कि कि पृथ्वी पर सबसे पहला जीव कब, कैसे और कहाँ से आया?
चार्ल्स डार्विन और जीवन की उत्पत्ति
चार्ल्स डार्विन के जैव-विकास सिद्धांत ने यह स्थापित किया कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति में किसी बाहरी या अंदरूनी दिव्य शक्ति या रचयिता का कोई भी हाथ नहीं है बल्कि जीवन की उत्पत्ति रासायनिक अभिक्रियाओं और भौतिक प्रक्रियाओं के मेलजोल चलते हुई.
डार्विन ने जीवन की उत्पत्ति में ईश्वर की भूमिका को नकारते हुए कहा था कि प्रथम जीव की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थों से हुई होगी. 1871 में डार्विन ने लिखा कि मुमकिन है कि जीवन की शुरुआत गर्म पानी से भरे एक ऐसे तालाब में हुई हो जिसमें सभी तरह के अमोनिया और फॉस्फोरिक साल्ट घुले होंगे जिस पर ऊष्मा, प्रकाश,और विद्युत की क्रिया होती रही होगी. इससे एक प्रोटीनयुक्त यौगिक (protein-rich compound) बना होगा जिसमें और परिवर्तन होकर निर्जीव पदार्थों से पहले जीव बने होंगे.
हालांकि, डार्विन खुद अपनी किताब 'ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज' का शीर्षक देते हुए बेहद सतर्क थे और उन्होंने जीवन की उत्पत्ति को लेकर ज्यादा अटकलें लगाने से बचने की भरसक कोशिश भी की. वैसे भी डार्विन का जैव-विकास सिद्धांत (theory of evolution) वास्तव में जीवों के विकास की प्रक्रिया को समझाता है ना कि जीवन की उत्पत्ति को.
कैसे हुआ निर्जीव पदार्थों से पहले जीव का जन्म?
आज विज्ञान जगत में जीवन की उत्पत्ति को लेकर ओपारिन-हाल्डेन के रासायनिक विकास या अबायोजेनेसिस (Abiogenesis) सिद्धांत को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है. इस सिद्धांत के मुताबिक पृथ्वी की उत्पत्ति काअंतिम चरण जीवन के विकास से संबंधित है और जीवन निर्जीव पदार्थों के कार्बनिकअणुओं (organic molecules) से उपजा है.
सोवियत बायोकेमिस्ट अलेक्जेंडर ओपारिन ने 1924 में यह तर्क दिया कि आबोहवा में मौजूद ऑक्सीजन कार्बनिक अणुओं के संश्लेषण (synthesis) को रोकता है और जीवन की उत्पत्ति के लिए कार्बनिक अणुओं का बनना बेहद जरूरी है. आज से लगभग 3.8 अरब साल पहले किसी ऑक्सीजन की अनुपस्थिति वाले वातावरण में सूर्य की ऊष्मा और प्रकाश की क्रिया से कार्बनिक अणुओं का एक जटिल प्राइमर्डियल सूप या आदिम शोरबा बना होगा. सूप के भीतर जटिल अणु, खासकर प्रोटीन और न्यूक्लिक एसिड मौजूद थे, जो कुछ साधारण संघटकों (ingredients) कीलंबी श्रृंखला से मिलकर बने थे. इन जटिल संघटकों के फ्यूजन से छोटी-छोटी बूंदेंबनी जिनके और ज्यादा फ्यूजन से ये विकसित होकर, विभाजनकर कालांतर में अपने समान अन्य सरल कोशिकाओं का निर्माण कर सकीं. यही सरल कोशिकाएं सभी जीवों की आदि पूर्वज (primordial ancestor) थीं.
अंग्रेज़ जीव विज्ञानी जे.बी.एस. हाल्डेन नेओपारिन के विचार को और आगे बढ़ाया. उन्होंने 1929 में अपने 'द ऑरिजिन ऑफ लाइफ' शीर्षक लेख में लिखा कि आज से तकरीबन चार अरब साल पहले पृथ्वी पर मौजूद समुद्र आज के समुद्रों से पूरी तरह से अलग रहे होंगे और इनमें 'गर्म हल्का शोरबा' बना होगा जिसमें जीवन के लिए जरूरी कार्बनिक यौगिकों (organic compounds) का निर्माण हुआ होगा. शुरुआत में पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन नहीं थी, इसलिए सबसे पहले बनने वाले जीव बगैर ऑक्सीजन सांस लेते थे. धीरे-धीरे पृथ्वी पर ऑक्सीजन बनती गई और आज के उस स्तर तक पहुंची, जिसमें ज़्यादातर जीव ऑक्सीजन से सांस लेते हैं.
1953 में स्टेनले मिलर ने अपने गुरु हारोल्डयूरे के साथ मिलकर ओपारिन-हाल्डेन के सिद्धांत की प्रायोगिक पुष्टि की. मिलर द्वारा प्रायोगिक पुष्टि से इस सिद्धांत की महत्ता बहुत बढ़ गई. वर्तमान में इस सिद्धांत की मूल अवधारणाओं को वैज्ञानिक समुदाय का सबसे ज्यादा समर्थन हासिल है.लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इससे सभी वैज्ञानिक सहमत हैं. कई वैज्ञानिकों के मुताबिक रासायनिक पदार्थों के अचानक मेल-जोल (संयोजन) या फ्यूजन से धरती पर जीवन की उत्पत्ति की बात करना ठीक वैसा ही है जैसे मंगल ग्रह पर कंप्यूटर मिलने पर कोई यह दावा करे कि इस कंप्यूटर का रैंडम संयोजन मीथेन से भरे तालाब में हुआ है!
अपनी किताब 'द एंड ऑफ साइंस' में अमेरिकी विज्ञान पत्रकार जॉन हॉर्गन लिखते हैं– "जैव रासायनिक प्रणाली (biochemical system) लंबे समय में अस्तित्व में आया है. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि जीवन का कोई बना-बनाया नुस्खा हो सकता है कि पानी मिलाकर मिश्रण बनाओ और जीवन तैयार. यह एक चरण की प्रक्रिया नहीं है. यह कई चरणों से गुजरी है जिसमें कई बदलाव भी शामिल हैं. सामान्य रसायनों से एक बैक्टीरिया का निर्माण, एक बैक्टीरिया से इंसान के विकास से कहीं ज्यादा कठिन बात है. एक छोटे से छोटा बैक्टीरिया भी ओपारिन, हाल्डेन और मिलर की रासायनिक खिचड़ी से कहीं बढ़कर है."
कहीं बाहर से आया था पृथ्वी पर जीवन?
जीवन निर्माण के कई मूलभूत तत्व अंतरिक्ष में मौजूद उल्का-पिंडों और धूमकेतुओं में भी पाए गए हैं जो इस संभावना को बल देते हैं कि हो सकता है कि पृथ्वी पर जीवन बाहरी अंतरिक्ष से आया हो. कई प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का भी यह मानना था कि जीवन की 'स्पोर' नामक इकाई विभिन्न या अनेक ग्रहों में स्थानांतरित हुई, हमारी पृथ्वी भी जिनमें से एक थी.
पृथ्वी पर जीवन बाहरी अंतरिक्ष से आया है, इस मान्यता को 'पैनस्पर्मिया' (panspermia) सिद्धांत का नाम दिया गया है. लॉर्ड केल्विन और वॉन होल्महोल्ट्ज जैसे दिग्गज वैज्ञानिक इसके शुरुआती समर्थकों में से थे. बीसवीं सदी में फ्रेड हॉयल और चंद्राविक्रमसिंघे ने इस सिद्धांत को जोरदार स्वीकृति दी. बगैर ठोस आंकड़ों के इन वैज्ञानिकों ने सौर हवाओं से पैदा होने वाले वायरसों के अंतरिक्ष से गुजरकर पृथ्वी तक आने की संभावना पर भी ज़ोर दिया था.
'पैनस्पर्मिया' सिद्धांत में आस्था रखने वाले ज्यादातर लोग (वैज्ञानिक) तथ्यों और कल्पनाओं के दुधारी तलवार पर ही चलते हैं.ओपारिन-हाल्डेन सिद्धांत के समर्थकों के मुताबिक सही मायनों में पैनस्पर्मिया यह नहीं बताता कि जीवन की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, बल्कि यह केवल उत्पत्ति के फोकस को पृथ्वी से दूर अंतरिक्ष में कर देता है.
विज्ञान की सबसे कमजोर कड़
फिलहाल पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कब,कैसे और कहां हुई, इस विषय पर ढेरों सिद्धांत और विवाद हैं. इन सिद्धांतों में से कौन-सा सही है और कौन-सा गलत इस पर फौरी तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता. जीवन की उत्पत्ति को लेकर मोहक सिद्धातों को प्रस्तुत करने का यह सिलसिला भविष्य में भी जारी रहने वाला है. हो सकता है कि जिन घटनाओं की परिणति पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के रूप में हुई, उसे शायद हम कभी समझ ही न पाएँ. किसी ने ठीक ही कहा है कि जीवन की उत्पत्ति विज्ञान की सबसे कमजोर कड़ी है. अस्तु!
Rani Sahu
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