सम्पादकीय

डिकॉक के दुस्साहस और वकार की 'चालाकी' के पीछे की कहानी क्या है

Rani Sahu
27 Oct 2021 8:05 AM GMT
डिकॉक के दुस्साहस और वकार की चालाकी के पीछे की कहानी क्या है
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एक होता है साहस, दूसरा दुस्साहस और तीसरा साहस की चाशनी में लिपटी धर्मांधता. इस धर्मांधता को समय, काल, परिस्थिति के लिहाज से कोई मूर्खता कह सकता है

शैलेश चतुर्वेदी एक होता है साहस, दूसरा दुस्साहस और तीसरा साहस की चाशनी में लिपटी धर्मांधता. इस धर्मांधता को समय, काल, परिस्थिति के लिहाज से कोई मूर्खता कह सकता है, कोई चालाकी और कुछ इसे साहस का चरम भी मान सकते हैं. पिछले एक-दो दिनों में दुस्साहस और धर्मांधता के दो मामले आए हैं. पहला, दक्षिण अफ्रीकी विकेट कीपर क्विंटन डिकॉक (Quinton de Kock) का और दूसरा पाकिस्तान के महानतम तेज गेंदबाजों में एक वकार यूनुस (Waqar Younis) का.

वकार अब क्रिकेट (Cricket) नहीं खेलते. वह पाकिस्तान (Pakistan) के टीवी चैनल पर ज्ञान बांट रहे थे. इसमें उन्होंने बताया कि 'हिंदुओं के बीच मैदान पर नमाज पढ़कर' मोहम्मद रिजवान (Mohammad Rizwan) ने कितना जबरदस्त काम किया है. वकार यूनुस पाकिस्तान क्रिकेट के पढ़े-लिखे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसीलिए उनका बयान बेहद चौंकाने वाला था.
वकार वही कर रहे जो पहले इमरान कर चुके हैं
लेकिन वकार को अच्छी तरह पता है कि उन्हें कौन सुन रहा है. वह ठीक वैसा ही काम कर रहे हैं, जो पाकिस्तान के वजीर-ए आजम इमरान खान राजनीति में आने के बाद से करते रहे हैं. अपने पूरे जीवन में 'लिबरल' रहे इमरान अचानक ने अचानक इस्लामी चोला ओढ़ा. अब वकार ने यही किया है. इसे साहस की चाशनी में लिपटी धर्मांधता कह सकते हैं. जैसे हमारे देश में तमाम टीवी पैनलिस्ट जानते हैं, उसी तरह वकार को भी शायद समझ आ गया है कि क्या बोलना उन्हें चर्चा में रखेगा. वही उन्होंने किया है.
इस तरह की बातों को नजरअंदाज किया जाना आसान नहीं होता. लेकिन ऐसा किया जाना खेल के लिए बहुत अच्छा है. वकार जब खेला करते थे, तो उन्होंने कभी मैदान पर नमाज पढ़ने की बात नहीं की थी. अब वो खेल चुके, तो अलग तरह के 'खेल' में करियर बनाने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उसके बाद उन्होंने ट्वीट करके माफी मांगी. यह वही जानें कि माफी कितनी सच्ची है, लेकिन आमतौर पर ऐसी बातें भावनाओं में बहकर नहीं निकलतीं.
क्विंटन डिकॉक का फैसला दुस्साहस ही है
वकार से ज्यादा अहम दूसरा मामला यानी दुस्साहस का है. अश्वेतों को पक्ष में घुटने पर बैठने के बदले टीम से बाहर रहने का फैसला. क्विंटन डिकॉक का यह फैसला उनके करियर को खत्म करने वाला साबित हो सकता है. यकीनन रंगभेद की दुनिया में कहीं जगह नहीं होनी चाहिए. लगातार इस ओर कोशिशें भी हुई हैं. खासतौर पर दक्षिण अफ्रीका में इसे लेकर तमाम सख्त कदम उठाए गए हैं.
इन सबके बावजूद, अगर कोई घटना हुई है, तो उसकी जड़ में जाकर देखने की जरूरत है. डिकॉक हमेशा से ऐसी बातों को विरोध करते रहे हैं. कहते रहे हैं कि भले ही आप मेरी बातों को राजनीति से प्रेरित मानें. लेकिन हर किसी को अभिव्यक्ति की आजादी है. मैं भी इसी का इस्तेमाल कर रहा हूं. डिकॉक की इस बात को दुस्साहस की श्रेणी में रख सकते हैं.
रंगभेद से कितना दूर हो सका दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट
सबसे पहले हमें दक्षिण अफ्रीका को समझने की जरूरत है. वहां अरसे से रंगभेद रहा है. पूरी दुनिया के खेल जगत ने दक्षिण अफ्रीका को बिरादरी से बाहर किया हुआ था. 1991-92 में उनका क्रिकेट में आगमन हुआ. यह मानते हुए कि अब वो रंगभेद के खिलाफ हैं. लेकिन कुछ तथ्यों पर नजर डालना जरूरी है. 1994 के बाद लगभग 65 फीसदी श्वेत क्रिकेटर खेले हैं. देश में इनकी आबादी करीब आठ फीसदी है. ब्लैक का प्रतिनिधित्व महज दस फीसदी रहा, जो आबादी के 80 फीसदी हैं.
कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि सिर्फ आठ फीसदी अश्वेत बच्चे स्कूल में किसी खेल से जुड़ पाते हैं. इससे रंगभेद की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. इसी को दूर करने के लिए अश्वेत खिलाड़ियों के लिए कोटा तय किया गया. सीजन के लिए कोटा छह पीओसी यानी प्लेयर्स ऑफ कलर्स यानी अश्वेत का है. इसमें तीन ब्लैक होने चाहिए. संकेत यह भी हैं कि 2022-23 से यह कोटा छह से बढ़ाकर सात खिलाड़ियों का हो जाएगा. कोटा बढ़ने से माना जा रहा है कि हर मैच में 33 फीसदी हिस्सेदारी अश्वेतों की होगी.
कोटा बनाम मेरिट की बहस
सारी बहस इन नियमों पर है. अपने देश में भी दलित अधिकारों को लेकर ऐसी बहस होती रही हैं. हमारे यहां खेलों में कोई कोटा सिस्टम नहीं है. लेकिन सरकारी नौकरी को लेकर बार-बार इस तरह की बहस सामने आती रही है. यह सही है कि हमारे और उनके मुल्क के हालात बहुत अलग हैं. लेकिन किसी मामले को समझने के लिए छोटा ही सही, एक उदाहरण मिल जाए तो आसानी होती है.
कोटा बनाम मेरिट की बहस लगातार चलती रही है और आगे भी चलती रहेगी. दक्षिण अफ्रीका में भी यही हो रहा है. ज्यादातर श्वेत खिलाड़ी इस बात की बहस करते हैं कि चयन मेरिट पर होना चाहिए. तब वे 50 साल के दमन को भूल जाते हैं. कुछ अश्वेत खिलाड़ी भी इसी बहस के पक्ष में हैं. भले ही तर्क अलग हों. जैसे तेज गेंदबाज मखाया एंटिनी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि अश्वेत खिलाड़ियों को लेकर एक टैबू जैसा होता है. मान लिया जाता है कि यह तो कोटे वाला है. अब आप अपने मुल्क के उदाहरण से इसे समझ सकते होंगे.
हमने अपने आसपास खूब सुना होगा कि अरे फलां को नौकरी या प्रमोशन इस वजह से मिला क्योंकि वो कोटा सिस्टम वाला है. ऐसे में मेरिट पर टीम में आने वाले खिलाड़ी को लेकर समस्या आती है. आप इसे यूं समझें कि भारतीय क्रिकेट टीम में कोटा सिस्टम लागू हो, तो कैसा होगा. खुशकिस्मत हैं कि यहां पर ऐसा कुछ नहीं हुआ है और होने की उम्मीद भी नहीं है. लेकिन सवाल यही है कि डिकॉक जैसे खिलाड़ी अब उलटे भेदभाव की बात करते हैं. एंटिनी जैसे खिलाड़ी बताते हैं कि जगह मिलने पर भी सम्मान नहीं मिलता. ऐसे में करना क्या है?
एंटीनी और पॉल एडम्स का दर्द
एंटिनी बता चुके हैं कि उन्हें टीम में अलग-थलग महसूस होता था. पॉल एडम्स अपने इंटरव्यू में साफ कर चुके हैं कि उन्हें 'होहा' कहा जाता था, जिसका हिंदी में मतलब होता है नाली का कीड़ा. जाहिर है, किसी श्वेत खिलाड़ी को नाली का कीड़ा नहीं कहा जाएगा. इस तरह की कहानी दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे जैसे देशों के लगभग हर अश्वेत क्रिकेटर के पास है. इस भेदभाव के बीच क्या वाकई कोटा सिस्टम ही सही तरीका है, जिससे हालात बदलेंगे?
अपने मुल्क में भी तमाम लोगों का मानना है कि वंचित तबके को वो प्लेटफॉर्म दिया जाए, जहां वो बाकियों के साथ खड़ा दिखे. इसके लिए शिक्षा सबसे अहम है. बचपन में वो सारे मौके मिलने चाहिए, जो बाकियों को मिलते हैं. उसके बाद मेरिट पर सब कुछ तय हो. लेकिन इस तरह की लाइनें लिखना आसान है. आम जीवन में ऐसा हो नहीं पाता. दूसरी तरफ, जब भी कोटा सिस्टम होगा, कोई न कोई पक्ष उसका विरोध करेगा, वही हो रहा है. डिकॉक ने जो किया है, उसका समर्थन किसी हालत में नहीं किया जा सकता. लेकिन उसका विरोध करते हुए उन सारी बातों को ध्यान में रखना होगा, जो दक्षिण अफ्रीका में हो रही हैं. यह मामला इतना सरल नहीं है, जैसा पहली नजर में दिखता है.
Rani Sahu

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