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ईद यूं तो खुशियां लेकर आती ही है लेकिन ये तब और बढ़ जाती हैं जब बड़ों से ईदी में कोई खास उपहार मिलता है
अजय झा |
ईद यूं तो खुशियां लेकर आती ही है लेकिन ये तब और बढ़ जाती हैं जब बड़ों से ईदी में कोई खास उपहार मिलता है. 3 मई को ईद मनाने के दो दिन बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भाजपा की ओर से खास ईदी मिली है. दरअसल तब केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान आनन फानन में नीतीश कुमार के साथ एक बैठक के लिए पटना पहुंचे थे और वहां उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री को आश्वस्त कर दिया है कि फिलहाल उनकी कुर्सी का कोई खतरा नहीं है और वह बिहार पर अपना शासन बरकरार रख सकते हैं जो उन्होंने करीब डेढ़ साल पहले शुरू किया था.
भाजपा और मोदी सरकार में धर्मेंद्र प्रधान का कद लगातार बढ़ता जा रहा है और पार्टी उनको उनके गृह राज्य ओडिशा में अपने पहले मुख्यमंत्री के रूप में एक बड़ी भूमिका के लिए तैयार कर रही है – अगर इस पूर्वी राज्य में पार्टी सत्ता में आती है तो. अब साथ में उनको भूपेंद्र यादव की जगह बिहार में भाजपा के पॉइंटमैन के रूप में उन्हें अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई है. पहले बिहार में भाजपा को मजबूत करने का काम भूपेंद्र को दिया गया था, लेकिन नीतीश को उनके काम करने के तरीके से नाराजगी थी. उनको लग रहा था कि भूपेंद्र राज्य और पार्टी में उनके खिलाफ असंतोष और अपमान को हवा दे रहे थे.
गुरुवार शाम करीब दो घंटे तक बंद दरवाजों के पीछे प्रधान और नीतीश के बीच बातचीत चली, जिसका नतीजा संतोषजनक रहा. बैठक की बातचीत अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है लेकिन हावभाव से लग रहा है कि प्रधान से बात करने के बाद नीतीश कुमार खासी राहत में हैं. इसका एक सबूत ये भी है कि बैठक के बाद जब प्रधान निकले तो नीतीश उनको बाहर तक छोड़ने भी आए. बैठक के परिणाम को लेकर भाजपा में अटकलें लगाई जा रही हैं कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने कुमार को दो आकर्षक विकल्प दिए हैं – या तो वह बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में 2025 के अंत तक अपना कार्यकाल पूरा करें या फिर भारत के अगले उपराष्ट्रपति बन जाएं.
नुकसान होने से पहले स्थिति को नियंत्रित करना चाहती है भाजपा
वैसे भूपेंद्र यादव जो कर रहे थे, वह भी राज्य के भाजपा नेताओं को आवाज देने और अपनी ही सरकार की आलोचना करके विपक्ष के स्थान पर कब्जा करने की पार्टी की रणनीति का एक हिस्सा था. सुशील कुमार मोदी की नीतीश कुमार से करीब पचास साल पुरानी दोस्ती की वजह से ये आवाजें लगभग खामोश हो गई थीं. और अब प्रधान ने जो किया है, वह नुकसान होने से पहले स्थिति को नियंत्रित करने की रणनीति का एक हिस्सा है. भाजपा को इतना भोला न समझा जाए कि वह न्यूटन के तीसरे नियम का अनुमान न लगा सके कि बिहार में हर क्रिया के लिए एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होगी. नीतीश पर भाजपा लगातार दबाव बना रही थी और इस पर प्रतिक्रिया के रूप में वह राजद के करीब होने लगे थे. इससे कयास लगने लगे थे कि नीतीश फिर भाजपा का साथ छोड़कर राजद का दामन थाम सकते हैं.
नीतीश को भाजपा की दोहरी पेशकश सोची-समझी रणनीति का हिस्सा
नीतीश को भाजपा की दोहरी पेशकश भी एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है जो एक वादे और एक शर्त के साथ आई है. वादा यह है कि अगर कोई उनकी सरकार की आलोचना करता है तो वह अपने उस नेता पर नकेल जरूर कसेंगे. इसका मतलब है कि वे दोबारा चुप्पी साधने वाले मोड में वापस आ जाएंगे, जैसा कि सुशील मोदी के दौर में था जब तक कि उन्हें एक सांसद के रूप में केंद्रीय राजनीति में स्थानांतरित नहीं किया गया था. और शर्त यह है कि अगर नीतीश कुमार अगले उपराष्ट्रपति बनने के लिए राजी हो जाते हैं, तो वह मुख्यमंत्री का पद किसी भाजपा नेता को सौंप देंगे. भाजपा को क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का इस्तेमाल कर अपनी ताकत बढ़ाने के लिए जाना जाता है और जद-यू इसका अपवाद नहीं हो सकती. जद-यू के साथ उसके गठबंधन के अब तक अच्छे परिणाम आए हैं लेकिन यह सब भाजपा को ये विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है कि 2025 में वह बिहार में अपने दम पर सत्ता में वापस आ सकती है.
अगर नीतीश मौजूदा उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू के पद छोड़ने के बाद देश के अगले उपराष्ट्रपति बनने का भाजपा का ऑफर स्वीकार करते हैं तो भाजपा बेशक बिहार में संघर्षरत जद-यू पर हावी हो जाएगी और राज्य में उसे अपनी ताकत बढ़ाने का पूरा मौका मिल जाएगा. और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं और बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में बने रहने का विकल्प चुनते हैं तो भाजपा राष्ट्रपति चुनाव के बाद अपनी रणनीति पर पुनर्विचार कर सकती है.
भाजपा के लिए आसान नहीं राष्ट्रपति पद की राह
राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद का पांच साल का कार्यकाल इसी साल जुलाई में पूरा होने जा रहा है और इससे पहले इस पद के लिए अपने उम्मीदवार के देश के नए राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचन के तौर पर उसके सामने एक कठिन चुनौती है. हालांकि ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि 17 राज्यों में अपने गठबंधन की सरकारों और लोकसभा में प्रचंड बहुमत के साथ, भाजपा को अपने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए सुगम मार्ग सुनिश्चित करने में कोई समस्या नहीं होगी. लेकिन जमीनी तथ्य देखे जाएं तो भाजपा के लिए यह उतना भी सुगम नहीं है. तीन छोटे राज्यों – गोवा, मणिपुर और त्रिपुरा सहित देश के 12 राज्यों में भाजपा अपने दम पर सत्ता में है. असम को छोड़कर बाकी पूर्वोत्तर राज्यों में उसके सहयोगी दल सत्ता में हैं. इन राज्यों की आबादी कम है और राष्ट्रपति चुनाव में एक विधायक के वोट का मूल्य सीधे राज्य की आबादी से जुड़ा होता है. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश या बिहार के एक विधायक के वोट का मूल्य गोवा या मणिपुर के विधायक के वोट के मूल्य से बहुत अधिक होगा.
ओडिशा और आंध्र प्रदेश पर बीजेपी की नजर
ऐसे में बीजेपी को यह सुनिश्चित करना होगा कि ओडिशा के सत्तारूढ़ बीजू जनता दल या फिर आंध्र प्रदेश की सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस पार्टी – दोनों में से कोई तो राष्ट्रपति पद के लिए उसके उम्मीदवार का समर्थन जरूर करे. जेडीयू अगर इसी बीच राजद के खेमे में चला जाता और नीतीश कुमार ने उसके समर्थन से सरकार बना ली होती तो इससे भाजपा की गणना निश्चित तौर पर गड़बड़ा जाती. अगर भाजपा अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति पद पर नहीं बैठा पाती है तो इससे न केवल इसकी छवि प्रभावित होगी, बल्कि 2024 के आम चुनावों से पहले मतदाताओं में भी खराब संदेश जाएगा. इसलिए नीतीश कुमार के साथ अपने संबंधों को सही ट्रैक पर रखना भाजपा के लिए जरूरी था और इसे उसकी उदारता नहीं बल्कि मजबूरी ही कहा जाना चाहिए. हालांकि अभी ये बात भी नोट करना जरूरी है कि नीतीश दोनों में से कौन सा विकल्प चुनेंगे या दोनों ही नकार देंगे – इसकी जानकारी किसी को नहीं है.
Rani Sahu
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