सम्पादकीय

समस्या क्या संसद में है?

Subhi
30 July 2022 3:24 AM GMT
समस्या क्या संसद में है?
x
संसद का ‘सावन’ सत्र जिस तरह चल रहा है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि भारत में कोई ‘समस्या’ ही नहीं है और अगर समस्या है तो केवल ‘संसद’ में है । हमें याद रखना चाहिए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र है और इसकी संसद को देख कर दुनिया के लोकतान्त्रिक देश सबक सीखते हैं।

आदित्य चोपड़ा; संसद का 'सावन' सत्र जिस तरह चल रहा है उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि भारत में कोई 'समस्या' ही नहीं है और अगर समस्या है तो केवल 'संसद' में है । हमें याद रखना चाहिए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र है और इसकी संसद को देख कर दुनिया के लोकतान्त्रिक देश सबक सीखते हैं। संसद का हर प्रतिष्ठान हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस तरह स्थापित किया उसका उद्देश्य लोगों द्वारा चुनी गई इस सबसे बड़ी पंचायत की स्वतन्त्र सत्ता इस प्रकार स्थापित करना था कि इसके भीतर विभिन्न राजनैतिक दलों का जमावड़ा होने के बावजूद इसकी कार्यशैली पूरी तरह निरपेक्ष व बिना भेदभाव के दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर हो सके। इसी वजह से सदन के भीतर इसके अध्यक्ष को 'न्यायाधीश-सम' अधिकार दिये गये और इसकी कार्यवाही को किसी भी अदालत की समीक्षा के घेरे से बाहर रखा गया। परन्तु क्या कयामत है कि कांग्रेस के लोकसभा में नेता 'अधीर रंजन चौधरी' ने ऐसा सितम ढहाया कि इस पार्टी की सर्वोच्च नेता से ही जवाब तलबी सत्ता पक्ष के कुछ सांसद करने लगे। अधीर रंजन चौधरी के बारे में मैंने कल ही लिखा था कि उनका राजनैतिक ज्ञान कितना सतही और किसी स्कूली छात्र के समकक्ष है। परन्तु जिद देखिये कि छोटा बच्चा भी शरमा जाये। हुजूर खुद तो डूबेंगे साथ ही पूरी पार्टी को लेकर भी पानी में जायेंगे। जनाब का प. बंगाल से जी नहीं भरा है जहां कांग्रेस को कोई पानी पिलाने वाला भी नहीं बचा है उस पर ये जिद है कि 'दिल्ली' को भी 'कोलकाता' बना कर छोड़ूंगा। क्या कांग्रेस को श्री चौधरी ने अपनी जायदाद समझ रखा है कि मालिकाना हक हर सूरत में काबिज रहेगा। देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि चौधरी को लोकसभा संसदीय दल का नेता बना कर कांग्रेस पार्टी ने ऐसी गलती कर डाली है कि उसे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी सारी विरासत को ही दांव पर लगाना पड़ सकता है। जिस व्यक्ति को यह तक पता न हो कि जम्मू-कश्मीर भारत का घरेलू मामला है और पूरा राज्य भारत का अटूट व अभिन्न अंग है, उसे किस आधार पर कांग्रेस नेतृत्व ढोने की जुगत में लगा हुआ है। भरी संसद में जो जम्मू-कश्मीर को 1947 से चली आ रही अन्तर्राष्ट्रीय समस्या बता सकता है उसे क्या कांग्रेस संसदीय दल का नेता होने का रुतबा बख्शा जा सकता है? मगर आलम जब यह हो कि अंधों के शहर में 'आइने' बेचने वाला 'फेरी' लगा कर आवाज लगा रहा हो तो किसके दरवाजे पर जाकर माथा फोड़ा जा सकता है। यह सनद रहनी चाहिए कि पिछली सदी का भारत का इतिहास वही है जो कांग्रेस का इतिहास है। कांग्रेस और राष्ट्र कभी जुदा नहीं रहे। इसके हर छोटे से लेकर बड़े नेता ने देश के लिए कुर्बानियां देने में कभी कोई हिचक नहीं दिखाई बल्कि अपना घर फूंक कर भी राष्ट्र सेवा का व्रत लिया। उस कांग्रेस पार्टी का लोकसभा में यदि नेता अधीर रंजन चौधरी के रूप में तमाम सांसदों पर लाद दिया जाता है तो पार्टी के हश्र का अन्दाजा दसवीं कक्षा का राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी भी लगा सकता है! राजनीतिज्ञ वह कहलाता है जो 'दूर' का परिणाम 'पास' से ही भांप लेता है। गुरुवार को जैसे ही लोकसभा के भीतर श्री चौधरी द्वारा राष्ट्रपति को राष्ट्रपत्नी कहे जाने का मामला सत्ता पक्ष द्वारा उठाया गया था और जितने गुस्से से बाल कल्याण मन्त्री स्मृति ईरानी भाजपा सांसदों का नेतृत्व कर रही थीं उसे देखते हुए श्री चौधरी को तुरन्त समझ लेना चाहिए था कि मामला बहुत 'गर्म' हो चुका है और उन्हें उस पर 'ठंडा पानी' डालने का पुख्ता इन्तजाम करना चाहिए। मगर इतनी दूर की सोच कोई कुशल राजनेता ही रख सकता है। क्या घट जाता अधीर रंजन का अगर वह सदन में तुरन्त माफी मांगते हुए अपने शब्दों को वापस ले लेते और सदन को आश्वासन देते कि भविष्य में वह सब पदों को केवल अंग्रेजी में ही सम्बोधित करेंगे। उनके करे का किसी दूसरे से क्या मतलब, यह बात स्वयं ही उन्हें सदन में पुरजोर तरीके से कहनी चाहिए थी। मगर जिस व्यक्ति ने प. बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष रहते हुए वहां की विधानसभा में ही कांग्रेस को दाने-दाने का मोहताज बना दिया हो, न जाने उसने संसद के बारे में क्या ठानी है? लोकतन्त्र तभी मजबूत होता है जब विपक्ष मजबूत हो मगर जहां देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी ने अपनी बागडोर लोकसभा में ऐसे आदमी के हाथ में दे रखी हो जिसके लिए भारत की घरेलू समस्या ही अन्तर्राष्ट्रीय समस्या हो तो ऐसी नेता की जगह पूरी पार्टी पर ही तरस खाने को दिल करेगा। भारत के गांवों में यह कहावत आज भी प्रचिलित है कि 'नादां की दोस्ती जी का जंजाल'। मगर क्या लाजिम है कि कांग्रेस नादां के साथ ही दोस्ती निभाती जाये और रोजाना अपना मुंह शर्म से लाल होते देखे और अपनी बेइज्जती के फातिहे पढे़। इस पार्टी में आज भी विद्वान व दूरदर्शी नेताओं की कमी नहीं है। मगर दिक्कत कहां है इसे तो खुद पार्टी को ही देखना होगा। श्री चौधरी संसद सदस्य हैं तो उन्हें इसका एहसास होना चाहिए और उनकी योग्यता देख कर ही पार्टी नेतृत्व को उन्हें जिम्मेदारी सौपनी चाहिए। कांग्रेस का रुतबा उनसे नहीं बल्कि उनका रुतबा कांग्रेस से है। सांसद के रूप में वजीफा पाने का उन्हें पूरा अधिकार है ।संपादकीय :गर्मी से उबलता यूरोपकांग्रेस का 'बोझ' अधीर रंजनविदेशी मीडिया और भारतअमृत महोत्सव : जारी रहेगा यज्ञ-10'रेवड़ी' और सर्वोच्च न्यायालयमेरा असली जन्मदिन है बुज़ुगों के चेहरों पर मुस्कान''हुआ है

Next Story