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भारत के अनेक साधु-संत देश में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हैं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक। भारत के अनेक साधु-संत देश में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। वे अपनी मर्यादा व शिष्टाचार के लिए जाने जाते हैं। लेकिन कुछ लोग साधु-संतों के वस्त्र तो धारण कर लेते हैं, पर उनके वचन और व्यवहार साधुत्व की मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं। ऐसे कई दुखद प्रसंग अभी-अभी सामने आए हैं और ये बढ़ते ही जा रहे हैं। हरिद्वार के धार्मिक समारोह में एक साध्वी ने कहा कि हिंदुओं को किताबें एक तरफ रखकर शस्त्र धारण करने चाहिए ताकि वे संहार कर सकें।
दूसरे संत ने कह दिया कि हिंदू भारत में अपने तीज-त्योहार नहीं मना पाते, क्योंकि यहां सैकड़ों पाकिस्तानी मुसलमान घुसे बैठे हैं। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी निंदा की, क्योंकि उन्होंने अल्पसंख्यकों के साथ बेहतर बर्ताव की वकालत की थी। उस सभा में यह भी कहा गया कि देश में भिंडरावाले और तमिल आतंकवादी प्रभाकरण-जैसे लोगों की जरुरत है। हरिद्वार से भी ज्यादा गंभीर और शर्मनाक बात रायपुर में हुई। वहां आयोजित धर्म संसद में 20 संप्रदायों के साधु-संतों ने भाग लिया।
उसमें कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के भाषण भी हुए। ज्यादातर भाषणों में वक्ताओं ने अपनी बातें पर्याप्त मर्यादा और शिष्टतापूर्ण ढंग से व्यक्त की लेकिन एक-दो साधुओं ने साधुत्व की सारी मर्यादाएं लांघ दी। उन्होंने गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमा-मंडन किया और गांधीजी के लिए आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया। इन घृणित विचारों का उस समारोह में कुछ साहसी साधुओं ने विरोध भी किया लेकिन अपने आप को संत कहलवाने वाले इन वक्ताओं ने अपनी संतई की सारी छवि को चूर-चूर कर दिया।
ये अतिवादी संत जो कुछ अनाप-शनाप बोलते हैं, क्या देश के आम हिंदू उसका समर्थन करते हैं? कतई नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी भी धर्म, संप्रदाय या विचारधारा को तर्क की तुला पर न तोला जाए। जरूर तोला जाए, जैसा महापंडित महर्षि दयानंद सरस्वती किया करते थे लेकिन घृणा-हिंसा फैलाने से बढ़कर अधर्म क्या है? 'जो लोग अपने आप को धर्म-निरपेक्ष बताते हैं, वे मूलतः हिंदू-विरोधी हैं। भारत की एकता के लिए यह जरुरी है कि हिंदुओं का शस्त्रीकरण हो।'
हिंसा और आतंक को बढ़ावा देनेवाले ये बयान क्या संतों के मुंह से शोभा देते हैं? जो लोग अपने आप को संत कहते हैं, क्या उनका यह बर्ताव संतों के लायक है? वे धर्म-निरपेक्षता की भर्त्सना करते हैं लेकिन क्या उन्हें पता है कि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री और सभी सांसद जिस संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं, वह संविधान धर्म निरपेक्ष ही है? संत लोग यह क्यों नहीं समझते कि उनके इन उग्र भाषणों की वजह से अल्पसंख्यकों में भय और सांप्रदायिकता का संचार होता है और यह प्रवृत्ति देश के लिए घातक है।
कुछ दिग्भ्रमित और अबौद्धिक साधु-संतों की वजह से न केवल साधुत्व बदनाम होता है बल्कि जिस हिंदुत्व की वह दुहाई देते रहते हैं, वह भी बदनाम हो जाता है। इसी का फायदा उठाकर भाजपा और संघ के विरोधी लोग सरकार और इन संगठनों को भी आड़े हाथों लेते हैं। वे आरोप लगाते हैं कि ये उग्रवादी लोग संघ की हिंदुत्ववादी विचारधारा से ही प्रेरित हैं। ऐसे अप्रिय और कटु अवसरों पर संघ-प्रमुख और शासन-प्रमुख से अपेक्षा की जाती है कि वे खुलकर इन गुमराह तत्वों की भर्त्सना करें।
जरा याद करें, अटलबिहारी वाजपेयी के उस एतिहासिक भाषण को, जो उन्होंने भाजपा की स्थापना के अवसर पर मुंबई में दिसंबर 1980 में दिया था। उन्होंने 'गांधीवादी समाज' का नारा दिया था और यह भी कहा था कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के शरीरों में बहनेवाला खून और हड्डियां एक ही हैं। संघ-प्रमुख मोहन भागवत भी कई बार कह चुके हैं कि दोनों का डीएनए एक ही है।
Rani Sahu
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