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चीन (China) हमेशा से ही स्वभाव से अविश्वसनीय और आक्रामक देश रहा है. ‘सार्वभौम भाईचारा’ (Universal Brotherhood) और वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास रखने वाले भारत का दुर्भाग्य है
ज्योतिर्मय रॉय चीन (China) हमेशा से ही स्वभाव से अविश्वसनीय और आक्रामक देश रहा है. 'सार्वभौम भाईचारा' (Universal Brotherhood) और वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास रखने वाले भारत का दुर्भाग्य है कि चीन भारत का पड़ोसी देश है. नया साल शुरू हो गया है, लेकिन भारत-चीन संबंधों (India China Relation) में तनाव कम नहीं हो रहा है. दोनों देश 3,488 किलोमीटर (2,174 मील) लंबी सीमा साझा करते हैं. चीन हमेशा से आक्रामक राष्ट्र रहा है. चीन की 'विस्तारवाद नीति' के कारण 17 देशों के साथ चीन का समुद्री और भूमि सीमा विवाद है. माओ से-तुंग ने नवंबर 1938 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति की बैठक में कहा था कि 'सत्ता बंदूक की बैरल से आती है.' यही मानसिकता आज चीन का राजकीय धर्म बन गया है.
हाल ही में, चीन के नागरिक मामलों के मंत्रालय ने नए नामों के साथ भारत के 15 स्थानों का नया नक्शा जारी किया है. यह 15 स्थान वास्तव में भारत के अभिन्न सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश के हैं. जिसमें आठ बस्तियां, चार पहाड़, दो नदियां और एक दर्रा शामिल है. इनका नाम चीनी, तिब्बती और रोमन लिपि में रखा गया है. चीन का दावा है कि अरुणाचल प्रदेश 'दक्षिण तिब्बत' का हिस्सा है. भारत ने इस घटना का कड़ा विरोध करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि, 'नाम ईजाद करके रख देने से' ज़मीन पर तथ्य नहीं बदलेंगे और 'अरुणाचल प्रदेश हमेशा से भारत का अभिन्न अंग रहा है और आगे भी हमेशा रहेगा.' संयोग से, चीन इससे पहले भी कई बार भारत के भौगोलिक हिस्से को हथियाने की कोशिश कर चुका है. 2017 में, अरुणाचल प्रदेश को चीनी मानचित्र पर 'जंगनान' या 'दक्षिणी तिब्बत' के रूप में दिखाया गया था.
अप्रैल, 2017 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने अरुणाचल प्रदेश की यात्रा की थी और जिन छह स्थानों का दौरा किया था, बीजिंग ने उन सभी जगह का नाम बदल दिया है. दलाई लामा के इस दौरे का चीन ने कड़ा विरोध करते हुए कहा था कि भारत को इसकी इजाज़त नहीं देनी चाहिए थी और इससे भारत को कोई फ़ायदा नहीं होगा. चीन अरुणाचल प्रदेश में 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर अपना दावा करता है, जबकि भारत का आरोप है कि चीन ने भारत की 'अक्साई चिन' के 38 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अवैध रूप से कब्जा कर रखा है और पाकिस्तान ने पीओके का 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन को उपहार में दिया है, इसके अनुसार 43,180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अवैध रूप से चीन के कब्जे में है.
इतिहास के पन्नों में भारत चीन संपर्क
भारत-चीन संपर्क को जानने के लिए इतिहास के पन्नों में झांकना जरूरी है. लद्दाख के अक्साई चिन सहित भारत की उत्तरी सीमा, 1842 में पंजाब, जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन शासक गुलाब सिंह और तिब्बतियों के बीच हस्ताक्षरित 'चुशूल की संधि' द्वारा शासित थी. इस संधि के अनुसार, 1865 में अंग्रेजों ने अर्दाग-जॉनसन सीमा रेखा के साथ एक नक्शा तैयार किया, जिसमें भारत के 'अक्साई चिन' सहित 'कुनलान पर्वत' के प्राकृतिक अवरोध को स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है. प्राचीन देश पूर्वी तुर्किस्तान और तिब्बत की सीमा पर अक्साई चिन स्थित है.
हालांकि, 1893 में भी भारत की सीमाएं अछूती रहीं, जब सेंट पीटर्सबर्ग में वरिष्ठ चीनी अधिकारी हंग ता-चेन ने एक आधिकारिक नक्शा प्रस्तुत किया, जो अर्दग-जॉनसन लाइन को समर्थन करता था और 'अक्साई चिन' को ब्रिटिश-भारतीय क्षेत्र का हिस्सा मानता था.
बाद में, चीनी कब्जे वाले 'झिंजियांग' में ब्रिटिश महावाणिज्यदूत जॉर्ज मेकार्टनी ने ब्रिटिश भारत और आगे बढ़ने वाले रूसियों के बीच एक बफर बनाने के लिए 'काराकोरम पर्वत' के साथ सीमा को फिर से मैप किया. 1899 मे बनी 'मेकार्टनी-मैकडॉनल्ड लाइन' को चीन मे स्थित एक ब्रिटिश मंत्री सर क्लाउड मैकडोनाल्ड ने चीन के अंतिम राजवंश किंग राजवंश के समक्ष प्रस्तावित किया था. 1899 में निर्मित 'मेकार्टनी-मैकडॉनल्ड लाइन', चीन के अंतिम राजवंश, चिंग राजवंश (Qing Dynasty) के लिए चीन में स्थित एक ब्रिटिश मंत्री सर क्लाउड मैकडोनाल्ड द्वारा प्रस्तावित किया गया था.
चीन ने न तो इस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए और न ही इसे स्वीकार किया, और न ही कोई प्रतिक्रिया दी, शायद इसलिए कि पूर्वी तुर्किस्तान (शिनजियांग) पर उनका अपना दावा बिना किसी आधार के था. 1917 से 1933 तक, आधिकारिक 'पोस्टल एटलस ऑफ चाइना' (Postal Atlas of China) ने अक्साई चिन को भारत के सीमा के अंदर और 'अर्दग-जॉनसन लाइन' के साथ चिह्नित किया. 1925 में 'पेकिंग यूनिवर्सिटी एटलस' (Peking University Atlas) ने भी अक्साई चिन को भारत के क्षेत्र के रूप में दिखाया.
भारत की ऐतिहासिक भूल
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, अंग्रेजों ने 1914 में तिब्बत के साथ 'मैकमोहन सीमा रेखा' पर बातचीत की. तत्कालीन भारत (ब्रिटिश) सरकार और तिब्बत की सरकारों के बीच शिमला में समझौता हुआ. इस समझौते पर 'मैकमोहन रेखा' की सहमति पर ब्रिटिश सरकार के और तिब्बत की तत्कालीन सरकार के प्रतिनिधि सर हेनरी मैकमोहन द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे. 1914 में, शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को एक अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता दी गई थी. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस संधि में चीन का कोई जिक्र नहीं था.
नेहरू की चीन नीति को लेकर समय-समय पर नेहरू की आलोचना होती रही है. 1949 में माओत्से तुंग द्वारा 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना' के गठन के बाद, भारत ने एक गैर-कम्युनिस्ट देश के रूप में पहली बार 1 अप्रैल 1950 को चीन को मान्यता दी और राजनयिक संबंध स्थापित किए. 1950 के दशक के मध्य से ही चीन ने भारतीय क्षेत्रों में अतिक्रमण करना शुरू कर दिया था. 1950 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया. तिब्बत पर चीनी प्रभुत्व ने इस क्षेत्र की भू-राजनीति को अनिश्चितकालीन अस्थिरता में धकेल दिया.
1957 में चीन ने अक्साई चिन के रास्ते पश्चिम में 179 किमी लंबी सड़क बनाई. जानकारों का कहना है कि भारत को जिस प्रकार से इसका विरोध करना चाहिए था, वह तत्कालीन नेहरू सरकार ने नहीं किया. 1962 में चीन द्वारा भारत के आक्रमण से इस संधि की मूल भावना बुरी तरह आहत हुई और नाहरू द्वारा दिया गया 'हिंदी-चीनी, भाई-भाई' का नारा भारत के लिए एक ऐतिहासिक शर्मिंदगी में बदल गया.
आखिर, चीन क्यों बदल रहा है जगह का नाम?
1878 में, पूर्वी तुर्किस्तान पर चीन ने जबरन कब्जा कर लिया, जिसमें 2 करोड़ से अधिक स्थानीय लोग मारे गए. चीन ने 'पूर्वी तुर्किस्तान' का नाम बदलकर 'झिंजियांग' कर दिया. इस क्षेत्र में स्थानीय उइगर मुसलमानों पर चीनियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से दुनिया परिचित है. किसी क्षेत्र का नाम राजनीतिक या कूटनीतिक कारणों से बदला जाता है. जिसका उद्देश्य उस क्षेत्र के इतिहास, संस्कार और संस्कृति को नियंत्रित करने के लिए वहां के लोगों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना है. यह एक तरह का 'मनोवैज्ञानिक युद्ध' या 'शांत सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक युद्ध' (Soft Cultural Psychological Warfare) है.
चीन भारत के साथ वही खेल खेल रहा है. चीनी कूटनीतिक-रणनीति का पहला कदम भारतीय सीमा पर दूर-दराज के गांवों के लोगों के बीच चीन के प्रति सहानुभूति पैदा करना और साझी संस्कृति के नाम पर उनको चीन के करीब लाना है. नाम बदलने से स्थानीय समाज की मानसिकता पर 'मीठा जहर' जैसा असर करता है, जिसका प्रभाव बहुत धीमा लेकिन निश्चित होता है. यह एक 'सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रयोग' है.
चीन को पता हे, भारतीय सीमा से सटे इन सुदूर गांवों की लंबे समय से उपेक्षा की जाती रही है और यहां के लोग कई मूलभूत सुविधाओं से आज भी वंचित हैं. चीन इस मौके का फायदा उठाना चाहता है. चीनी कूटनीतिक रणनीति का दूसरा चरण, इन गांवों के लोगों को विकास का सपना और पैसे का प्रलोभन देकर अपनी तरफ करना. जरूरत पड़ने पर भारत के खिलाफ मुखबिरी कर सके और युद्धकालीन स्थिति मे विद्रोह कर सके
चीन भारत को महाशक्ति नहीं बनने देना चाहता
भारत-चीन तनाव के बीच कोरोना काल में भी भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर को पार कर गया है. चीन के जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ कस्टम्स (GAC) के पिछले महीनों के आंकड़ों के अनुसार, भारत-चीन का द्विपक्षीय व्यापार 114.263 अरब डॉलर का हो गया है जो कि जनवरी से नवंबर 2021 के बीच 46.4 फ़ीसदी तक बढ़ा है. जबकी, भारत का चीन को निर्यात 26.358 अरब डॉलर का हो गया है जो हर साल 38.5 फ़ीसदी बढ़ा है और वहीं भारत का चीन से आयात 87.905 अरब डॉलर हो गया है जो 49 फ़ीसदी तक बढ़ा है. सवाल यह है कि व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में होने के बाद भी चीन भारत के साथ बार-बार क्यों उलझ रहा है? इसका सीधा और एक ही जवाब है कि चीन अपने पड़ोसी देश को महाशक्ति के रूप में नहीं देखना चाहता.
भारत को 'अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक हब' बनाने के मोदी के आह्वान के जवाब में विभिन्न अंतरराष्ट्रीय उद्योगपतियों और संगठनों द्वारा दिखाए गए उत्साह ने चीन की रातों की नींद उड़ा दी है. हालांकि, कोरोना महामारी के कारण इस क्षेत्र में कोई अपेक्षित प्रगति नहीं हुई है. भारत को महाशक्ति बनने से रोकने के लिए भारत के विकास की गति को रोकना जरूरी है, इसीलिए चीन नरेंद्र मोदी को भारत की आंतरिक राजनीति में उलझाए रखना चाहता है. मोदी को सत्ता से दूर रखने के लिए भारत के पड़ोसी देश में साजिश रची जा रही है.
भू-राजनीतिकरण में 2022-2024 की भूमिका महत्वपूर्ण है
भू-राजनीतिकरण में 2022-2024 की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में 2022 से 2024 तक आम चुनाव होंगे. इनमें भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के चुनाव उल्लेखनीय हैं. इस दौरान भारत के साथ बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव, पाकिस्तान, म्यांमार में आम चुनाव होंगे. चीन इन चुनावों में अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखने की कोशिश करेगा.
इन चुनावों में चीन एक बड़ा और विवादास्पद चुनावी मुद्दा बन जाएगा. लोकतंत्र का संरक्षक अमेरिका जहां इन चुनावों में लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिश करेगा, वहीं चीन इन चुनावों में अपनी पसंदीदा पार्टी को सत्ता हासिल करने में मदद करेगा. चीन और अमेरिका के तकरार की झलक इन राष्ट्रों के चुनाव में स्पष्ट रूप से देखने को मिलेगा. इसलिए इन चुनावों में व्यापक रूप से जन आंदोलन और हिंसा देखने को मिलेगी.
Rani Sahu
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