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कल फिर जुमा है। शासन सतर्क है और हमारे समाज की सफलता इसमें है कि जो पिछले जुमे हुआ, उसे दोहराया न जाए। बेशक, देश के मुसलमान उद्वेलित हैं
कमर वहीद नकवी,
कल फिर जुमा है। शासन सतर्क है और हमारे समाज की सफलता इसमें है कि जो पिछले जुमे हुआ, उसे दोहराया न जाए। बेशक, देश के मुसलमान उद्वेलित हैं। बुलडोजर चलने से लेकर पिछले आठ वर्षों में बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जो मुसलमानों को टीसता रहा है। हिंदुत्ववादी ताकतों और मीडिया के एक बहुत बड़े वर्ग के गठजोड़ से भारतीय मुसलमानों के विरुद्ध जो नफरती अभियान चल रहा है, वह भला किससे छिपा है? यह बात भी किससे छिपी है कि इस अभियान को बहुत-सी सरकारों की शह मिली हुई है? इस सबके बावजूद मुसलमान अब तक चुपचाप थे। लेकिन दो भाजपा प्रवक्ताओं की विवादास्पद टिप्पणियों पर इस्लामी दुनिया में हुई तीखी प्रतिक्रिया के बाद देश में कई जगह जुमे की नमाज के बाद मुसलमानों के प्रदर्शन ने अचानक हिंसक रूप ले लिया।
आखिर टिप्पणी विवाद के दो हफ्ते बाद मुसलमान अचानक क्यों भड़क गए? न केवल मुसलमान, बल्कि हिंदुओं का एक बहुत बड़ा वर्ग भी प्रवक्ताओं की टिप्पणियों की कड़ी निंदा कर रहा था। दोनों प्रवक्ताओं के खिलाफ भाजपा कार्रवाई भी कर चुकी थी। 9 जून को दिल्ली पुलिस ने नफरती बयानों के आरोप में दो एफआईआर दर्ज की। अगले दिन जुमा था और नमाज के बाद कई जगह पर प्रदर्शन हुए व हिंसा भड़की। क्या अरब जगत में हुई व्यापक प्रतिक्रिया के बाद यहां के मुसलमानों को लगा कि वे उतनी तीखी प्रतिक्रिया नहीं जता सके, जितनी उन्हें जतानी चाहिए थी?
कारण जो भी रहे हों, ये प्रदर्शन कई जगहों पर एक साथ अचानक क्यों हुए? किसके कहने पर हुए? नमाज के बाद ही क्यों हुए? इन प्रदर्शनों से क्या हासिल हुआ? क्या उनकी इस प्रतिक्रिया से गैर-मुस्लिम समाज में उनके मुद्दे पर समर्थन बढ़ गया? क्या यह सिर्फ उनकी हताशा का विस्फोट था? ये सवाल गहरे हैं और इन सवालों पर सोचने की जरूरत है। मेरी स्पष्ट राय है कि भारतीय मुसलमानों ने जिस तरह से अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराने की कोशिश की, वह उनकी राजनीतिक नासमझी का सुबूत है, क्योंकि इस हिंसा से उनका पक्ष कमजोर ही पड़ा है और टिप्पणी विवाद से उपजी बहस अब कहीं और मुड़ चुकी है। दूसरी बात यह कि क्षोभ और आक्रोश व्यक्त करने की कोई सीमा-रेखा है या नहीं? क्या 'सर तन से जुदा' जैसे फिकरे उछाले जाने चाहिए? ऐसे नारों से हासिल तो कुछ भी नहीं होता, बल्कि सहानुभूति रखने वाले उदारवादी हिंदू तबके के लिए विचित्र स्थिति पैदा हो जाती है।
मुसलमान आज जिन हालात से घिरे हैं, उन्हें पैदा करने में उनका खुद का दोष कम नहीं है और इसकी एक ही बड़ी वजह है, वह यह कि मुसलमानों के पास राजनीतिक और व्यावहारिक सूझबूझ व दूरदर्शिता रखने वाला नेतृत्व नहीं है। उनका नेतृत्व उलेमा और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे धार्मिक संगठन करते हैं, जिनके पास जज्बाती जुमले उछालकर भावनाओं को भड़काने के अलावा और कोई कौशल है ही नहीं। न कभी उन्होंने विचार किया कि उनकी रणनीति के दूरगामी नतीजे क्या होंगे? क्योंकि न उन्हें राजनीति की समझ है, न समाज विज्ञान की और न इसकी कि भारत जैसे जटिल सामाजिक संरचना वाले सेकुलर देश में किसी समुदाय को अपने आपको किस तरह संचालित करना चाहिए। मुसलमानों में जो राजनीतिक नेतृत्व यदा-कदा सैयद शहाबुद्दीन या असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों के रूप में उभरा भी, उनकी राजनीति के मुहावरे भी धार्मिक शब्दावलियों से ही गढे़ जाते रहे। इसीलिए भारतीय मुस्लिम मानस अपने राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों को धार्मिक स्पेक्ट्रम से बाहर कभी देख ही नहीं सका। इसलिए नेतृत्व धर्मगुरुओं के हाथों में हो या धार्मिक एजेंडे की राजनीति करने वालों के हाथों में, उनसे नए विचारों के साथ आगे बढ़ने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जरा सोचिए, उलेमा की चेतावनियों और धमकियों से अगर सर सैयद अहमद डर गए होते, तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना ही न हुई होती। उलेमा सर सैयद का विरोध इसलिए कर रहे थे कि वे नहीं चाहते थे कि मुस्लिम नौजवान अंग्रेजी शिक्षा हासिल करें, पश्चिमी ज्ञान और दर्शन पढ़ें, क्योंकि ऐसी शिक्षा से वे धर्मच्युत हो जाएंगे। आज आप गौर करें कि क्या उलेमा की वह सोच सही थी? क्या मुस्लिम नौजवानों को आधुनिक शिक्षा नहीं हासिल करनी चाहिए?
आजादी के बाद तमाम मुद्दे ऐसे आए, जहां मुसलमानों के धार्मिक नेतृत्व की नासमझी और अव्यावहारिकता के चलते हिंदुत्ववादी ताकतों को हिंदुओं के बीच पैठ बनाने के लिए मजबूत तर्क मिलते रहे। शाह बानो मामले में मुसलमानों के भारी जज्बाती उबाल का नतीजा यह हुआ कि राजीव गांधी सरकार ने कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी कर दिया। इसका दीर्घकालिक फायदा हुआ राम जन्मभूमि आंदोलन को! इस मुद्दे पर हिंदू समाज में फैले जबरदस्त रोष से डरकर राजीव सरकार ने कुछ ही दिनों बाद राम जन्मभूमि का शिलान्यास करने दिया और हिंदुत्ववादी ताकतों को वह व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता मिल गई, जिसके लिए वे साठ-पैंसठ साल से प्रयासरत थे। बेशक हिंदुत्ववादी उभार के पीछे और राजनीतिक स्थितियां भी जिम्मेदार थीं, लेकिन शाह बानो प्रकरण ने उसे संजीवनी दी। पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश तक में तीन तलाक को बरसों पहले गैर-कानूनी करार दिया जा चुका है। फिर यहां उलेमा क्यों उसका बचाव करते रहे? वे चाहते, तो खुद पहल कर एक बड़े सामाजिक सुधार का श्रेय ले सकते थे।
निष्कर्ष यह है कि मुसलमानों का भला जज्बाती जोशीले भाषणों और 'खून बहा देने' वाले नारों से नहीं होगा। ये सिर्फ वक्ती बुलबुले हैं, जो उठते हैं और हवा में फूट जाते हैं। मुसलमानों में नया सामाजिक-राजनीतिक विमर्श उभरना चाहिए। मुसलमानों का समूचा विमर्श आखिर मस्जिदों, इमामों, उलेमा की धुरी के ईद-गिर्द ही क्यों घूमता है? इस विमर्श की शुरुआत मुस्लिम वकीलों, पूर्व जजों, पूर्व अफसरों, प्रोफेसरों, डॉक्टरों, पत्रकारों, समाज विज्ञानियों, राजनीतिविदों के बीच से क्यों नहीं होती? वे हाशिये पर क्यों हैं? मस्जिदें इबादत की जगह हैं, वहां से प्रदर्शनों का एलान क्यों हो? मुसलमान अपने आपको जब तक इस धार्मिक जकड़ से आजाद नहीं कराएंगे, तब तक उनका भला नहीं हो सकता।
सोर्स- Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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