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अक्सर ये सवाल उठता है कि अच्छा सिनेमा किसे माना जाए
विशाल ठाकुर अक्सर ये सवाल उठता है कि अच्छा सिनेमा किसे माना जाए. वो जो सिनेमा शिल्प और कला के पैमाने पर खरा उतरता हो या 100-200 करोड़ रु. कमाने वाली किसी नामचीन सितारे की कोई मसाला ब्लॉकबस्टर फिल्म. हालांकि सिनेमा बिरादरी मानती आई है कि फिल्म उद्योग के लिए दोनों ही तरह की फिल्मों की अपनी-अपनी अहमियत है. केवल समीक्षकों की वाह वाही और फिल्म समारोहों में पुरस्कार पाने वाली फिल्मों के बल पर ही इंडस्ट्री को जिंदा नहीं रखा जा सकता. मनोरंजक-मसाला फिल्मों की आर्थिक सफलता भी इंडस्ट्री के लिए ऑक्सीजन और ऊर्जा का काम करती है.
ये भी कि किसी फिल्म की अत्प्रत्याशित आर्थिक सफलता के कई मायने होते हैं, लेकिन अच्छा कंटेंट वो एकलौती कुंजी है जिसे व्यावसायिक सिनेमा के नाम पर लंबे समय तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
बॉलीवुड के संदर्भ में देखें तो बीते कुछ समय से प्रभावी और मजेदार कंटेंट बेहद कम देखने को मिल रहा है. विशेषकर इस साल सिनेमाघरों में रिलीज हुई फिल्में, जो कोरोना प्रोटोकॉल के चलते सीमित दर्शक संख्या के कारण प्रभावित हुई हैं. पर यह कहना भी गलत न होगा कि दो-तीन को छोड़कर इनमें से ज्यादातर फिल्मों का जायका ही ऐसा नहीं था कि दर्शक खुशी-खुशी किसी और से अपने अनुभव शेयर कर पाता और लोगों का रुझान उक्त फिल्म की तरफ बढ़ता. कलेक्शन के मामले में भी ऐसी फिल्में फिसड्डी साबित हुईं. क्या बॉलीवुड को कोरोना से ज्यादा नुकसान फिल्मों के कमजोर कंटेंट से हो रहा है?
वहीं दूसरी ओर तुलना न भी करें तो साफ तौर पर दक्षिण भारतीय सिनेमा (तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ ) कंटेंट और कलेक्शन, दोनों ही मामलों में बढ़त पर दिखता है. केवल इसी साल की बात करें तो साउथ में एक-दो नहीं, बल्कि कई फिल्मों ने जबरदस्त आर्थिक सफलता हासिल की है. ऐसा लगता है मानो कोरोना, लॉकडाउन और सीमित दर्शक संख्या का वहां कोई खास प्रभाव पड़ा ही नहीं है. वहां कई फिल्में आसानी से 50 से 100 करोड़ रु. तक बटोरने में सफल रही हैं, जबकि एक-दो ने तो 150 से 250 करोड़़ रुपये तक का भी कारोबार किया है.
इसी साल जनवरी में आई अभिनेता विजय और विजय सेतुपथी की मसाला एंटरटेनर फिल्म 'मास्टर' का वैश्विक ग्रॉस कलेक्शन तो 300 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा है. दो साल के कोरोनाकाल में यह भारत की सबसे ज्यादा कलेक्शन करने वाली फिल्म बन गई है. भारत में कोरोना के आगमन से पहले रिलीज हुई (10 जनवरी, 2020) अजय देवगन की 'तानाजीः दि अनसंग वॉरियर', ने 367 करोड़ रु. (वैश्विक ग्रॉस) बटोरे थे. इस लिहाज से देखें तो 'मास्टर' की आर्थिक सफलता आश्चर्यचकित देने वाली है, क्योंकि यह आंकड़ा 8-10 माह थियेटरों के बंद रहने बाद और कोरोना प्रोटोकाल के चलते सीमित संख्या के तहत आर्जित किया गया है.
इधर, बॉलीवुड में केवल अक्षय कुमार की फिल्म 'सूर्यवंशी' ही ऐसा कर पाई है, जिसका वैश्विक ग्रॉस कलेक्शन 294 करोड़ रु. पहुंच गया है. वैसे, कोरोनाकाल में सफल फिल्मों के मामले में हॉलीवुड भी पीछे नहीं रहा है. इसी साल की बात करें तो कई हॉलीवुड फिल्मों ने बिजनेस के मामले में हिन्दी फिल्मों को जबरदस्त पटखनी दी है. ताजा उदाहरण 'स्पाइडर-मैनः नो वे होम' का है, जो भारत में (सभी भाषाओं में) 179 करोड रु. बटोर चुकी है. तो आखिर ऐसा क्या है जो दर्शकों को बॉलीवुड फिल्मों पर खुश होकर जेब लुटाने से रोक रहा है?
पॉपकॉर्न और पैसे किस पर उछाले पब्लिक?
पहली नजर में इसे कोरोना का दंश कह सकते हैं कि लॉकडाउन खुलने के इतने माह और मोटे तौर पर स्थितियां सामान्य होने के बाद भी दर्शक सिनेमाघरों की ओर खुले दिल से लौटते नहीं दिख रहे हैं. हालांकि अब फिर से कोरोना का प्रकोप बढ़ रहा है और ओमिक्रॉन को लेकर चिंताएं भी. लेकिन क्या यह वजह काफी यह मानने के लिए कि दर्शक कोरोना या कोरोना प्रोटोकॉल की वजह से सिनेमा देखने नहीं जा रहे हैं.
कहीं ऐसा तो नहीं कि अच्छे कंटेंट और सुरक्षित मनोरंजन की उनकी चाहत घर बैठे पूरी हो रही है? निश्चित रूप से इस बीच ओटीटी मंचों ने फिल्मों और वेब सिरीज के जरिए अपनी प्रभावी उपस्थिति का अहसास कराया है, लेकिन ओटीटी मंचों का दायरा इतना मुकम्मल रूप नहीं ले पाया है कि उसके जादू से सिनेमाघर एकदम से सूने हो जाएं. या फिर कहीं अब पब्लिक को टिकट के पैसों के बदले बढ़िया कंटेंट चाहिए और वो भी बिना मिलावट वाला. यूं मन में कई सवाल उठते हैं, लेकिन एक कारण जो साफतौर पर दिखता है, वो है ज्यादातर फिल्मों की असंतुष्ट करने वाली सामग्री.
इसमें कहानी-पटकथा से लेकर नए प्रयोग की गुंजाइश तो कम दिखती ही है, साथ ही कमजोर निर्देशन, अप्रभावी अभिनय, बेदम संगीत, विषयों का दोहराव और फार्मूला आधारित फिल्म निर्माण इत्यादि भी शामिल है. खासतौर से कोरोनाकाल के दौरान रिलीज हुई फिल्मों के बारे में यह तथ्य स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं. हैरत की बात है कि 'सूर्यवंशी' को छोड़कर कोई अन्य फिल्म मसाला फिल्म के तमगे को भी नहीं भुना पाई. यहां तक की सलमान खान, जॉन अब्राहम भी इस मामले में लाचार से नजर आए. कोरोना के कारण पहले से परेशान दर्शकों के सामने कोई वजह नहीं रही कि वे सिनेमाहाल में अपने सीटीमार हीरो पर रेजगारी फेंकें या पॉपकॉन उछालें.
असल में कंटेंट की खामी ओटीटी पर कहीं न कहीं दब सी जाती है, लेकिन सिनेमाघर में ऐसा संभव नहीं है. क्योंकि वहां कलेक्शन की कसौटी पर आंकलन किया जाता है. खासतौर से नामचीन सितारों की बड़े बजट की फिल्मों को तो कलेक्शन की परीक्षा पास करनी ही पड़ती है. हाल फिलहाल की बात करें तो उम्मीद थी कि सैफ अली खान और रानी मुखर्जी की 'बंटी और बबली 2' दर्शकों का मनोरंजन करेगी, लेकिन 15 साल पुरानी फिल्म के इस सीक्वल में कहानी के मेन प्लाट से लेकर सितारों की स्क्रीन कैमेस्ट्री तक बहुत कुछ उबाऊ ही नजर आया.
इसके बाद, आई 'सत्यमेव जयते 2' ने भी कंटेंट के मामले में घोर निराश किया. वैसे, इसके ट्रेलर से तसदीक हो गई थी कि कंटेंट को किनारे कर जॉन मंडली का पूरा जोर सस्ते संवादों और कमीज उतारने पर ही है. इसी साल आई जॉन की एक अन्य फिल्म 'मुंबई सागा' में भी कुछ कुछ ऐसा ही कलेवर देखने को मिला, जिसे दर्शकों ने जरा मुंह नहीं लगाया.
'अंतिमः दि फाइनल ट्रुथ', जो कि विषय-वस्तु के लिहाज से सलमान खान की पुरानी फिल्मों का चरबा ही निकली. उम्मीदों से सजी सुनील शेट्टी के बेटे अहान शेट्टी की डेब्यू फिल्म 'तड़प' (26 करोड़ ग्रॉस) में भी वो स्पार्क नहीं दिखा कि ऑडियंस खुशी के मारे सिनेमाहाल में उछल पड़ती. नामचीन सितारों की फेहरिस्त में फिल्म 'चेहरे' अपने निर्देशन, विषय-वस्तु और अभिनय के मामले में कमजोर रही, तो वहीं कंगना रनोट एवं अरविंद स्वामी के दमदार अभिनय के बावजूद 'थलाईवी' को वाह वाही तो मिली पर आर्थिक सफलता से वह भी कोसों दूर रही. कोरोना की दूसरी लहर से पहले आई राजकुमार राव और जाह्नवी कपूर की फिल्म 'रूही' का कंटेंट भी दर्शकों ने खारिज कर दिया. मोटे तौर पर यह साल सिनेमाहाल पर रिपीट वैल्यू वाली फिल्म के लिए तरस गया.
साउथ का पलड़ा भारी कैसे
ऐसा लगता है कि आपदा में अवसर का सही इस्तेमाल करने में बॉलीवुड चूक गया और साउथ फिल्म इंडस्ट्री बाजी मार ले गई. न केवल आर्थिक स्तर पर, बल्कि फिल्मों के कंटेंट के मामले में भी बॉलीवुड से ज्यादा चर्चा इन दिनों सॉउथ की फिल्मों की हो रही है. इस साल जुलाई माह में महज एक सप्ताह के अंतराल पर अमेजन प्राइम वीडियो पर फरहान अख्तर की फिल्म 'तूफान' और अभिनेता आर्या की तमिल फिल्म 'सरपट्टा पारंबरी' रिलीज हुई. दोनों फिल्मों के केन्द्र में बॉक्सिंग है, पर लेखन, अभिनय और ट्रीटमेंट को लेकर 'सरपट्टा', 'तूफान' पर भारी दिखती है.
'सरपट्टा' में प्रयोग का जोखिम प्रभावी रूप से दिखता है, जबकि 'तूफान' के कथानक में नएपन का घोर अभाव है. इसी तरह नवंबर में दीपावली के मौके पर ओटीटी पर रिलीज हुई अभिनेता सूर्या की फिल्म 'जय भीम' को क्रिटिक्स और लोगों से बेशुमार वाह-वाही मिली. कानून के गलियारों से कमजोरों के हक और सम्मान की बात करती यह एक रूखी-सूखी फिल्म कही जा सकती है, जिसमें न तो गीत-संगीत का ग्लैमर था और न ही लोकेशंस की चकाचौंध.
अवधि भी ढाई घंटे से ज्यादा है, कि कोई भी बोर हो जाए. लेकिन 'जय भीम' को लेकर सराहना का पैमाना छोटा पड़ गया. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फिल्मों की रेटिंग करने वाली वेबसाइट आईएमडीबी पर इसे 10 में से 9.4 रेटिंग दी गई, जो कि पहली बार किसी भारतीय फिल्म को प्राप्त हुई रेटिंग है.
वैसे, यहां हम एक पल को 'जय भीम' के सामने निर्देशक अनुभव सिन्हा की 'आर्टिकल 15' (2019) को रखकर देख सकते हैं. कलात्मकता की दृष्टि से अनुभव सिन्हा की फिल्म आगे दिखती है, जबकि जय भीम में विषय की गंभीरता के साथ-साथ मनोरंजन का इनपुट भी कमाल का है और कहीं कहीं यह मसाला फिल्म का भी तड़का लगाने में कामयाब रही है. इसलिए एक गंभीर विषय पर आधारित होने के बावजूद यह मनोरंजक फिल्म भी है. अच्छा रहता कि अगर सरपट्टा पारंबरी और जय भीम सिनेमाघरों में रिलीज होतीं, तो इनके कलेवर को लेकर दर्शकों की खालिस प्रतिक्रया देखने को मिल सकती थी.
बेशक, अभिनेता धनुष की फिल्म 'कर्णन' को कई मायनों में इस साल की बेस्ट तमिल फिल्म के रूप में सराहा गया है, लेकिन हिन्दी हलकों में भी इस फिल्म की खासी चर्चा रही. कोरोना की दूसरी लहर से पहले आई इस फिल्म ने अच्छा बिजनेस (63 करोड़ रुपये बटोरे हैं) भी किया है, साथ ही धनुष एवं अन्य कलाकारों के अभिनय के अलावा इसकी कास्टिंग, माहौल, तकनीकी पहलू, रूपक, निर्देशन इत्यादि के चलते इसे विदेशों में भी बहुत सराहा गया है.
फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है, जिसमें महाभारत का रूपक है. दलित वर्ग, उच्च जाति, सामाजिक एवं राजनितिक माहौल, पुलिस प्रशासन द्वारा दमन एवं अत्याचार के चित्रण को अक्सर कला शिल्प के फ्रेम में ज्यादा प्रभावी माना जाता है, जबकि 'कर्णन' इस ढर्रे को बड़ी कुशलता से तोड़ते हुए अपना असर जगाती दिखती है.
इसके अलावा साल 2021 में शानदार कलेक्शन और मनोरंजक कंटेंट के चलते बॉलीवुड फिल्मों को पीछे छोड़ने वाली साउथ की फिल्मों में तमिल फिल्म 'डॉक्टर' (190 करोड़ रु.), तेलुगु फिल्म 'पुष्पाः दि राइज-पार्ट 1' (249 करोड़ रु.), तेलुगु फिल्म 'वकील साब' (137 करोड़ रु.), 'मानाडु' (100 करोड़ रुपये) आदि रही हैं. यह लिस्ट लंबी है, जिसमें 50 से 70 करोड़ रुपये बटोरने वाली फिल्मों की संख्या दर्जनभर हो सकती है और यहां सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि हाल में रिलीज तेलुगु फिल्म 'पुष्पाः दि राइज-पार्ट 1' का हिन्दी वर्जन 50 करोड़ से अधिक का कलेक्शन कर चुका है. यानी हिन्दी भाषी इलाकों में 'सूर्यवंशी' के बाद जिन दो फिल्मों ने सबसे ज्यादा कारोबार किया है, उनमें से एक अंग्रेजी की 'स्पाइडर-मैन' है और दूसरी तेलुगु की 'पुष्पा' है.
दरअसल, जब हम तमिल फिल्म 'मंडेला' का कलेवर देखते हैं, तो लगता है कि बॉलीवुड के ज्यादातर फिल्मकार अभी भी पेशेवर-व्यावसायिक फिल्मों के फेर में फंसे हैं. और जब कभी उनकी नजर किसी हटकर विषय पर जाती है, तो या तो वो किसी अन्य भाषा के रीमेक का सहारा लेते हैं या फिर कोई विवादास्पद विचार जिस पर बाद में हंगामा हो जाता है.
वर्ना, 'मंडेला' के रूप में चुनाव के अंदर खाते के हाल पर हल्की-फुल्की फिल्म बनाने से कौन किसे रोक रहा है. अब उदाहरण के लिए तेलुगु फिल्म 'सिनेमा बंदी' को ही लीजिए, जिसके निर्माता राज एंड डीके हैं. वही, जिन्होंने मनोज बाजपेयी को लेकर 'दि फैमिली मैन' जैसी शानदार वेब सिरीज बनाई है.
'मंडेला' सबटाइटल्स के साथ देखने में भी खूब रोचक लगती है. कहानी वीरा (विकास वशिष्ठ) नामक एक रिक्शा चालक की है, जिसके हाथ एक मूवी कैमरा लग जाता है. पहले तो वो उसे बेचने की सोचता है, फिर मन में खयाल आता है कि क्यों न इससे फिल्म ही बनाई जाए. ये देखना रोचक है कि कैसे वीरा अपने ही गांव के लोगों को इकट्ठा करके और सीमित संसाधन के साथ फिल्म बनाता है.
इसी कड़ी में मलयालम फिल्म 'जोजी', जो कि एक क्राइम-ड्रामा है काफी प्रभावित करती है. राजनीतिक थ्रिलर, मलयालम फिल्म 'नायट्टू' का बजट मात्र 4 करोड़ है, जिसने कोरोनाकाल में 30 करोड़ का कारोबार कर न केवल हिट क तमगा पाया है, बल्कि जोरदार वाहवाही भी लूटी है. जिओ बेबी निर्देशित मलयालम फिल्म 'दि ग्रेट इंडियन किचन', का चित्रण मिडिल क्लास परिवारों की परत उधड़ने वाला है, जो कई मायनों में चौंकाता है.
दरअसल, बाहुबली की सफलता के बाद हिन्दी पट्टी के दर्शकों ने रजनीकांत, कमल हासन, मम्मुटी, मोहनलाल, प्रभुदेवा, चिरंजीवी से आगे बढ़कर सोचना शुरू किया है. हालांकि आर. माधवन एक अपवाद कहे जा सकते हैं, जो दो दशकों से ज्यादा होने को आए, हिन्दी भाषियों को आज भी भाते हैं और अब यहीं के हो गए से हैं. लेकिन इधर, 5-6 वर्षों में प्रभास ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है, जिसके साथ राणा दग्गुबाती, सूर्या, धनुष, यश, अल्लू अर्जुन, एनटीआर जूनियर सरीखे सितारे भी यहां काफी प्रचलित होते जा रहे हैं.
इस बीच कोरोना के कारण उपजे एक खालीपन और बॉलीवुड फिल्मों की निष्क्रियता के चलते भी साउथ की फिल्मों को यहां काफी ज्यादा पसंद किया जाने लगा है. और रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है, जहाँ हिंदी पट्टी के सिने प्रेमी अच्छे कंटेंट की चाहत में अपनी मन माफिक फिल्म या वेब सीरीज तलाश ही लेते हैं. फिर बेशक वो दक्षिण की कोई भी भाषा में हो.
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