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आइए रविवारीय कहानी से शुरू करते हैं। हम सभी जानते हैं कि चूहे अच्छी और मजबूत लकड़ी को भी धीरे-धीरे कुतरकर अपना रास्ता बना लेते हैं
आइए रविवारीय कहानी से शुरू करते हैं। हम सभी जानते हैं कि चूहे अच्छी और मजबूत लकड़ी को भी धीरे-धीरे कुतरकर अपना रास्ता बना लेते हैं। पर वही चूहा अगर थोड़ी-सी लकड़ी से बनी चूहेदानी में फंस जाए, तो परेशान होकर यहां-वहां भागेगा लेकिन लकड़ी कुतरने की कोशिश नहीं करेगा। जब आप करीब जाएंगे तो वो याचक-सा चेहरा बनाएगा मानो आप उसे आजाद करने वाले हों। अगर वह भागना चाहे, तो मिनटों में न सही पर कुछ घंटों में छेद करके भाग सकता है।
अगर आप उसे पांच दिन भी कैद रखें, तो हो सकता है कि भागने का कोई संकेत न दे। जब चूहों को अपना जीवन खतरे में लगता है तो वे सर्वाइव करने की क्षमता भूल जाते हैं। मुझे लगता है कि कभी-कभी इंसान भी संकट में उनकी तरह व्यवहार करते हैं। यहां मेरा तर्क है।
पिछले छह सालों से उमेश गुप्ता मेरे ड्राइवर हैं। वह इलाहबाद-बनारस मार्ग पर पड़ने वाले जंघई स्टेशन से पांच किमी दूर रचनापुर बगेड़ी गांव से हैं। वह और उनका परिवार कम से कम जमीन के मामले में, मुझसे कहीं ज्यादा अमीर है। जहां मैं, बहुमंजिला इमारत में कुछ सैकड़ों वर्ग फुट का ही मालिक हूं, उमेश व उसके परिवार के पास गांव में कुछ एकड़ जमीन है।
मुझे हमेशा से आश्चर्य होता है कि किन कारणों से यह युवा मेरे साथ काम कर रहा है, जबकि अपनी खुद की जमीन में खेती करके कई हजार रुपए कमा सकता है। साल दर साल मैंने उसे बुझे चेहरे के साथ कहते हुआ सुना है, 'सर, मुंबई में हर साल बहुत अच्छी बारिश होती है पर गांव में बिल्कुल भी बारिश नहीं है।' जाहिर तौर पर वह कृषक समुदाय पर पड़ने वाले प्रभावों के लिए जलवायु परिवर्तन और इसके परिणामों को दोषी ठहरा रहा है।
मैंने महसूस किया कि पहले के दिनों में बेहतर अवसरों के लिए लोग पलायन करते थे लेकिन इन दिनों खेती असफल होने और बढ़ते आर्थिक संकट के कारण घर छोड़ने को मजबूर हैं। ये बेहतरी की आस में होने वाला पलायन नहीं रह गया है बल्कि जीवनयापन की मजबूरी में घर छोड़ना हो गया है।
यही कारण है कि जब संघर्ष से कठिन हालातों पर जीत हासिल करने वालों के बारे में सुनता हूं, तो मुझे बेहद खुशी होती है। कर्नाटक के कोडागु जिले में छोटे से हिल स्टेशन मडिकेरी की महिलाओं का उदाहरण लें। कोविड संकट के बाद ये महिलाएं रसोई से बाहर आईं, स्व-सहायता समूह बनाया और ऐसे किसानों से अरसे से खाली पड़े धान के खेत ले लिए, जिन्होंने खेती बंद कर दी थी। क्योंकि धान की खेती में ज्यादा मजदूरी के अलावा जुताई, बुवाई और रोपाई के लिए भारी संख्या में कामगारों की जरूरत होती है।
संजीवनी ओकुट्टा के बैनर तले महिलाएं इन खेतों पर धान उगा रही हैं और आज 15 महिला स्व-सहायता समूह संजीवनी से जुड़ गए हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन जिला कार्यक्रम उनकी उन्नति की बारीकी से निगरानी कर रहा है और संजीवनी की इन महिलाओं के हालिया कदम से खुश है।
मुझे इन महिलाओं की पहल पसंद आई क्योंकि वे स्थानीय स्तर पर क्लाइमेट रेजिलियेंस बनाने (जलवायु दुष्प्रभाव झेलने के साथ खुद को बदलना) में निवेश कर रही हैं और इस तरह वे न सिर्फ स्थानीय समुदाय के अर्थशास्त्र की रक्षा कर रही हैं, साथ ही उन्हें व दूसरों को पलायन से रोक रही हैं। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जहां इस तरह के कदम उठाने वाले गांव खुशहाल हैं।
फंडा ये है कि हम चूहे नहीं हैं। जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए हमें अपनी ताकत पहचाननी होंगी, उन पर फोकस करना होगा और जोरदार वापसी के लिए उस ताकत को और बेहतर बनाने के साथ खुद को नए सिर से प्रशिक्षित करना होगा।
एन. रघुरामन का कॉलम:
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