सम्पादकीय

हम सब सांड हैं

Rani Sahu
7 March 2022 6:52 PM GMT
हम सब सांड हैं
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पता नहीं दुनिया अक्सर सांडों तक आकर ही क्यों रुक जाती है

पता नहीं दुनिया अक्सर सांडों तक आकर ही क्यों रुक जाती है। हिलता हुआ लाल कपड़ा देख कर सांड तो क्या गाय या जिसे हम आदमी कहते हैं, भी सींग मार सकता है। यह बात दीगर है कि आदमी के सींग मुँह खोलने पर ही दिखते हैं। कई बार तो बिना मुँह खोले भी आदमी अपनी ज़ात बता जाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि सांडों को लाल कपड़ा दिखाना भी ज़रूरी नहीं। वे हिलता हुआ कपड़ा देख कर भी अपना आपा खो बैठते हैं, चाहे वह किसी भी रंग का क्यों न हो। जहां तक आदमी की बात है, वह तो सारी उम्र हिलता ही रहता है। इसीलिए मनुष्य कभी अपने आप में नहीं मिलता। शायद आदमी की इसी नियति को देखते हुए मुनियों ने आत्म-साक्षात्कार के लिए स्थिप्रज्ञता का मंत्र दिया है। जहां तक सांडों की बात है, उन्हें तभी तक क़ाबू किया जा सकता है जब तक देश में लोकतंत्र क़ायम रहे। नहीं तो सांड मुँह उठाए यूक्रेन क्या पूरी दुनिया कहीं भी घुस सकते हैं। इसका अर्थ हुआ कि सांड केवल लोकतंत्र से ही डरते हैं।

लेकिन ऐसा भी नहीं। कुछ अरसा पहले विपक्षी दलों ने सरकार पर ईवीएम में हेराफेरी करने के आरोप लगाए थे, चाहे साबित कुछ भी नहीं हुआ। इसका अर्थ हुआ कि सांड चाहें तो लोकतंत्र को भी डरा सकते हैं। रूस और चीन की मिसाल सामने है। वहां के सांडों क्षमा करें, शासकों ने अपने अंतिम साँस छोड़ने तक सत्ता में बने रहने का जुगाड़ कर लिया है। इसका अर्थ है कि जुगाड़ केवल भारत ही नहीं पूरी दुनिया में चलता है। फिर हिंदी-चीनी तो पहले ही भाई-भाई हैं और रूस से हमारा बरसों का याराना है। लेकिन विश्वगुरू की बात कुछ और है। यहां शासक निरंकुश होने के बावजूद धर्मभीरू हैं। नहीं तो आपातकाल कभी न हटता या बतोले बाबा ़फक़ीर होने की दुहाई देते हुए झोला उठाकर हिमालय जाने की बात न करते। वैसे सांड होने का अपना ही मज़ा है। सांड होने पर आदमी कहीं भी घुस सकता है। चाहे चुनाव हों या न हों। उत्तम प्रदेश के चुनावों के बाद सांड देखते ही देखते अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों में घुसेंगे। जहां तक उत्तम प्रदेश की बात है, पिछले पाँच सालों में जिस तरह सांडों को प्रश्रय दिया गया, उन्हीं सांडों ने प्रश्रय देने वालों को चुनावों में सींग देना शुरू कर दिए।
हो सकता है, सांड सत्ता पर भारी पडें। धर्म को दूहने के चक्कर में उन्होंने जिस तरह सांडों की परवरिश आरंभ की, उन्हीं सांडों ने खेती को ऐसे उजाड़ना शुरू किया कि किसानों को पंचायतों, खंड समितियों, जि़ला परिषदों, विधान सभाओं यहां तक कि संसद में भी सांड ही नज़र आने लगे। सरकारी इदारों में तो लोगों को पहले ही सांड नज़र आते थे। इतिहासकार मानते हैं कि दुनिया में तैमूर लंग, चंगेज़ ख़ान, सिकंदर और अशोक से बड़ा सांड आज तक कोई नहीं हुआ। पर अशोक जैसी प्रज्ञा किसी अन्य सांड ने नहीं जगाई। वैसे सभी सांड जल्लीकट्टू के सांडों की तरह भाग्यशाली नहीं होते। अक्सर उन्हें स्पेन के सांडों की तरह अंत में बूचड़खाना ही नसीब होता है। लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों आम जीवन में आदमी मौक़ा मिलते ही सांड हो जाता है। बस फर्क इतना है कि कोई छोटा सांड बनता है तो कोई बड़ा। वैसे बीच के सांड भी होते हैं अर्थात् मझोले सांड, जैसे आईएएस और पीसीएएस के बीच दूसरे विभागों के अफसर। वे भी मौक़ा मिलते ही लोगों को छठी का दूध याद दिला देते हैं। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि सांडों को बाप का दरजा क्यों नसीब नहीं हुआ। जब गाय को माँ का दरजा मिला था तब सांड भी उतना ही उपयोगी था। जहां तक सींग मारने की बात है, मौक़ा मिलने पर गाय भी सांड से कम साबित नहीं होती। हालांकि गाय पर सांडों या बैलों जैसी कहावतें प्रचलन में नहीं हैं। लेकिन एक पहाड़ी कहावत है, 'मीसनी गाए बखिया गुब्बा' अर्थात् मकरी गाय, सींग घुसाए।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Rani Sahu

Rani Sahu

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