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- खुदकुशी का रास्ता
Written by जनसत्ता; राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने देश में खुदकुशी के जो ताजा आंकड़े जारी किए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि 2021 में खुदकुशी करने वालों की संख्या और इसकी दर दोनों में भारी इजाफा हुआ। साल 1967 के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब आत्मघाती कदम उठाने की प्रवृत्ति इतनी तेजी से बढ़ी।
एनसीआरबी के मुताबिक साल 2021 में खुदकुशी करने वालों का आंकड़ा प्रति दस लाख पर एक सौ बीस तक पहुंच गया जो 2020 की तुलना में छह दशमवल एक फीसद ज्यादा रहा। लेकिन इससे भी ज्यादा जो चिंताजनक बात सामने आई, वह यह कि पिछले साल खुदकुशी करने वाला हर चौथा व्यक्ति दिहाड़ी मजदूर था। आंकड़े बता रहे हैं कि साल 2019 से 2021 के बीच गरीब तबके में खुदकुशी की घटनाएं ज्यादा तेजी से बढ़ीं। इससे पता चलता है कि देश का गरीब तबका किस कदर बदहाली में जी रहा है। खुदकुशी के ये आंकड़े सरकार और समाज के समक्ष गंभीर सवाल खड़े करते हैं।
अगर लोग मौत को गले लगाने को मजबूर हो रहे हैं तो निश्चित ही कहीं न कहीं इसके जिम्मेदार कारण हमारे समाज और सरकारों की नीतियों के भीतर ही मौजूद हैं। इससे यह भी पता चलता है कि एक कल्याणकारी राज्य में सरकारें अपने नागरिकों के प्रति कितनी लापरवाह हो जाती हैं और समाज संवेदनहीन।
एनसीआरबी के आंकड़े बता रहे हैं कि 2019 से 2021 के दौरान खुदकुशी करने वालों में दिहाड़ी मजदूरों के अलावा छात्रों, स्वरोजगार में लगे लोगों, वेतनभोगियों और सेवानिवृत्त लोग भी कम नहीं थे। साल 2021 में एक लाख चौंसठ हजार तैंतीस लोगों ने खुदकुशी की। इनमें दिहाड़ी मजदूरों की संख्या बयालीस हजार के लगभग रही, यानी खुदकुशी करने वालों की कुल संख्या का एक चौथाई। इससे पिछले साल यानी 2020 में सैंतीस हजार छह सौ छियासठ दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की थी।
गौरतलब है कि 2019 से 2021 की अवधि कोरोना महामारी वाली रही। उस दौरान देश में पूर्णबंदी और फिर लंबे समय तक चले आंशिक प्रतिबंधों ने छोटे-बड़े कारोबारों को चौपट कर डाला था। मार्च-अप्रैल 2019 में तो करोड़ों प्रवासी कामगारों को अपने घरों को लौटने को मजबूर होना पड़ा था। एक साथ करोड़ों लोगों का रोजगार से हाथ धो बैठना कोई मामूली घटना नहीं कही जा सकती। इसमें सबसे ज्यादा दिहाड़ी मजदूर ही थे।
हालांकि निजी क्षेत्र में काम करने वाले लाखों वेतनभोगी भी महामारी से उत्पन्न हालात के शिकार हुए। इस बदहाली का असर आज भी बना हुआ है। जाहिर सी बात है कि अगर लोगों के पास रोजगार नहीं होगा तो पैसा कहां से आएगा और लोग खाएंगे क्या। दिहाड़ी मजदूरों के सामने यही संकट दो साल पहले भी था और कमोबेश आज भी बना हुआ है।
आंकड़े बता रहे हैं कि दिहाड़ी मजदूरों, स्वरोजगार में लोगों, पेशेवरों आदि में खुदकुशी करने वालों में दो तिहाई लोग ऐसे थे जिनकी सालाना आय एक लाख रुपए या इससे भी कम थी। भले केंद्र और राज्य सरकारें दावे करती रहें कि गरीब तबके को बचाने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी, करोड़ों लोगों को महीनों तक मुफ्त राशन या खाना दिया, लेकिन असलियत किसी से छिपी नहीं है।
अभी भी सरकारों की तरफ से रोजगार के मोर्चे पर हालात बेहतर होने के दावे किए जा रहे हैं। अगर वाकई रोजगार के हालात अच्छे हैं तो लोग जान देने पर क्यों मजबूर हैं? आज महंगाई और बेरोजगारी ने गरीब और मध्यवर्ग को बेहाल कर दिया है। ऐसे में जिसके पास खाने को नहीं होगा, रोजगार नहीं होगा या भारी कर्ज में दबा होगा, तो वह खुदकुशी जैसा कदम उठाने को ही मजबूर होगा!