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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने भी एक बार कहा था कि नए कृषि कानूनों (Agricultural Laws) पर किसानों को भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है
संयम श्रीवास्तव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) ने भी एक बार कहा था कि नए कृषि कानूनों (Agricultural Laws) पर किसानों को भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है. इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि विपक्ष किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चला रहा है. गुजरात प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष सी आर पाटिल (C R Patil) ने भी एक बार कहा था कि दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन देश में अराजकता और अस्थिरता उत्पन्न करने की विपक्ष की सुनियोजित साजिश है.
दरअसल 2014 से पहले जब कांग्रेस सत्ता में थी तब वह इन कृषि कानूनों के पक्ष में हुआ करती थी. इसके चलते बीजेपी के नेताओं का ही नहीं दूसरी फील्ड के बहुत से लोगों का भी मानना था कि किसान आंदोलन सत्ताधारी पार्टी से चुनावी बढ़त पाने के लिए एक साजिश थी. पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद किसान आंदोलन पर लगने वाला यह आरोप अब सही ही लग रहा है.
उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में जहां भारतीय जनता पार्टी सरकार बना रही है. तो वहीं पंजाब में आम आदमी पार्टी ने सभी राजनीतिक दलों का सूपड़ा साफ कर दिया है. हालांकि इन सबके बीच एक सवाल जो सबसे बड़ा बनकर खड़ा हो गया है, वह यह है कि आखिर इन चुनावों में उन किसान नेताओं का क्या हुआ जो किसान आंदोलन के बाद पूरे देश में चर्चा में रहे थे. गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर छोड़ सकते हैं क्योंकि यहां किसानों का कोई खास रोल नहीं था. लेकिन उत्तर प्रदेश और खास तौर से पंजाब में इनका बड़ा रोल था.
किसान नेताओं कीजमानत जब्त हो गई
पंजाब में कई किसान संगठनों ने एक साथ मिलकर संयुक्त समाज मोर्चा बनाया था और उसी के बैनर तले चुनाव लड़ा था. लेकिन पंजाब में एक भी सीट पर यह किसान मोर्चा नहीं जीत पाया. जीतने की बात तो दूर है, इस मोर्चे के उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई. अमृतसर की 11 सीटों पर संयुक्त समाज मोर्चा के कई दिग्गज नेता खड़े थे, लेकिन इन सब की जमानत जप्त हो गई. किसी को भी 1500 से ऊपर वोट नहीं मिले. कुछ को तो 500 भी नहीं मिले.
यहां तक की किसान संगठनों के मुख्य चेहरा माने जाने वाले बलबीर सिंह राजेवाल जो लुधियाना की समराला सीट से निर्दलीय प्रत्याशी थे उनकी भी जमानत जप्त हो गई. उन्हें महज 4676 वोट मिले. जबकि इसी सीट पर आम आदमी पार्टी के जगतार सिंह दयालपुरा को सबसे ज्यादा 57557 वोट मिले. वहीं एक और बड़ा नाम गुरनाम सिंह चढूनी जिनकी पार्टी पंजाब में 10 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी, उसके भी दसों के 10 उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाए. चढूनी की संयुक्त संघर्ष पार्टी ने गुरुदासपुर, शानकोट, फतेहगढ़ साहिब, संगरूर, नाभा, समाना, भोलथ, दखा, डिबरा और अजनला से अपने प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन किसी भी प्रत्याशी को 25 सौ से ज्यादा वोट नहीं मिले. कुछ को तो 600 वोट मिलने भी मुश्किल हो गए. पंजाब में भी किसान आंदोलन को भुनाने में जुटी कांग्रेस और अकाली दल की करारी हार भी यही साबित करती है कि किसान आंदोलन निष्प्रभावी साबित हुआ क्योंकि दोनों ही दलों ने इसे भुनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी थी.
वहीं अगर बात उत्तर प्रदेश की करें तो यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का असर माना जा रहा था. जिस तरह से पश्चिमी यूपी से आने वाले बड़े किसान नेता राकेश टिकैत खुले तौर पर आरएलडी और समाजवादी पार्टी गठबंधन का समर्थन करते और बीजेपी का विरोध करते दिख रहे थे, उसे देखकर ऐसा ही लग रहा था जैसे राकेश टिकैत का जादू इस गठबंधन को अच्छी बढ़त दिलाएगा. लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो पता चला कि यह सारा गुणा गणित फेल हो गया. बीजेपी ने 58 सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 44 सीटों पर जीत दर्ज की. जबकि समाजवादी पार्टी को सिर्फ 5 और आरएलडी को सिर्फ 8 सीटों पर जीत हासिल हुई. यहां तक कि आरएलडी के मुखिया जयंत चौधरी के जिला बागपत में भी 2 सीटें बीजेपी ने जीत लीं.
कृषि कानून असली मुद्दा होता तो लखीमपुर की सारी सीटें बीजेपी के नाम होतीं?
चुनाव पूर्व यूपी के लखीमपुर खीरी में किसानों के साथ जो हुआ उसे कभी माफ नहीं किया जा सकता. सबसे बड़ी बात ये रही कि विपक्ष और मीडिया के दबाव में भी सरकार ने किसानों को कुचलने के मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा के पिता अजय मिश्रा टेनी को प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के मंत्रिमंडल से नहीं हटाया. समझा जा रहा था कि बीजेपी ने यह आत्मघाती कदम उठाया है. और तो और यूपी में वोटिंग के दौरान ही आशीष मिश्रा को बेल मिलने को चुनाव विश्लेषकों ने बीजेपी के खिलाफ जाने की उम्मीद की थी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टे पूरे जिले की 8 सीटें बीजेपी ने अपने कब्जे में कर लीं. किसान बहुल पश्चिमी यूपी की सीटों पर अगर भारतीय जनता पार्टी उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन यह स्पष्ट करता है कि किसान आंदोलन ने चुनाव में वह प्रभाव नहीं डाला जिसकी उम्मीद की जा रही थी.
Rani Sahu
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