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हाल ही में अमर उजाला में छपी कुछ रिपोर्ट्स सशक्त, अपराजेय राष्ट्र के निर्माण को अवरुद्ध करने वाली खौफनाक तस्वीर पेश करती हैं
प्रदीप कुमार
हाल ही में अमर उजाला में छपी कुछ रिपोर्ट्स सशक्त, अपराजेय राष्ट्र के निर्माण को अवरुद्ध करने वाली खौफनाक तस्वीर पेश करती हैं। पिछले 25 अप्रैल को बुलंदशहर (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) के गड़ाना गांव में गौरव नामक एक दलित युवक की घुड़चढ़ी को सुरक्षा प्रदान करने के लिए दो एसएचओ, आठ उपनिरीक्षकों और तीन थानों की पुलिस को जुटना पड़ा। गौरव ने एसएसपी से लिखित शिकायत की थी। एसएसपी को याद दिलाया गया, आठ महीने पहले इसी गांव में घुड़चढ़ी पर हुई हिंसा में एक व्यक्ति की जान चली गई थी; जुलाई, 2021 के बाद गांव में करीब दस शादियां हुईं, जिनमें बारात की चढ़त या घुड़चढ़ी नहीं करने दी गई।
गौरव का असली परिचय जान लीजिए। वह सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स के सिपाही हैं। वही सीआरपीएफ, जिसके सैकड़ों जवान कश्मीर में आतंकवाद से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं। पुलवामा में चालीस जवानों की नृशंस हत्या तो यह देश कभी भूल ही नहीं सकता। चार मई को अल्मोड़ा के एक गांव में अनुसूचित जाति के दूल्हे को बलपूर्वक घोड़े से उतार दिया गया। आसपास के गांवों में तनाव फैल जाने के बाद छह लोगों पर केस दर्ज हुआ। उत्तराखंड अनुसूचित जाति आयोग ने घटना का संज्ञान लिया।
डीएम और एसएसपी ने स्थानीय प्रशासन से रिपोर्ट मांगी। प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार, अभी अदालती कार्यवाही शुरू नहीं हुई है। अल्मोड़ा के ही कफलटा गांव चलते हैं। बयालीस साल पहले दलित दूल्हा डोली से जा रहा था। एक खास इलाके में पहुंचने के बाद लठैतों ने बारात रोक कर फरमान सुनाया, दूल्हा पैदल चले, डोली में बैठकर नहीं जाने देंगे। इस पर हुई हिंसा में चौदह दलित मारे गए थे; छह को जिंदा जला दिया गया था। मृतकों में कुमाऊं रेजिमेंट का एक सैनिक भी था।
इंदिरा गांधी के पीएमओ को जानकारी पहले मिली थी, एसडीएम को बाद में। केस सत्तरह साल चला। तब तक तीन अभियुक्तों की मौत हो चुकी थी। न्यायिक प्रक्रिया में इतना विलंब। गौर करें, बयालीस साल में भारत विभिन्न क्षेत्रों में जितना बदला, जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव उस अनुपात में नहीं आया। पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित राष्ट्रीय संस्था, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में 29 अप्रैल की घटना ने शर्मसार कर दिया। कुलपति डॉ. सुधीर कुमार जैन और रेक्टर डा. वी.के. शुक्ल की देखरेख में रोजा इफ्तार का आयोजन किया गया था।
कुछ प्रदर्शनकारी वहां जाकर हनुमान चालीसा का पाठ करने लगे, कुलपति के आवास पर प्रदर्शन हुआ और उनका पुतला फूंका गया। जनसंपर्क अधिकारी डॉ. राजेश सिंह ने स्पष्टीकरण दिया कि बीएचयू के महिला महाविद्यालय में रोजा इफ्तार की परंपरा रही है। नोट कीजिए, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने शिक्षा मंत्रालय की अनुशंसा पर इसी साल सात जनवरी को कुलपति डॉ. जैन को नियुक्त किया था। इससे भी अधिक चिंताजनक एक और घटना हुई। ऊंचे मनोबल और राष्ट्र की रक्षा के अटल संकल्प की तरह भारतीय सेना की एक ताकत यह भी है कि वह भारतीय राष्ट्र-राज्य एवं संविधान की आत्मा का पूर्ण प्रतिबिंबन करते हुए धर्म और जाति पर आधारित आग्रह-दुराग्रह से सर्वथा मुक्त है।
इस बार सेना की ओर से आयोजित इफ्तार का संगठित विरोध किया गया। सेना में एक भयावह विषाणु को इंजेक्ट करने का यह संगीन जुर्म था। सामाजिक रुग्णता से राष्ट्र की समग्र शक्ति और सांविधानिक व्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कुछ उदाहरणों पर विचार करने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट्स और निचली अदालतों का बेशकीमती वक्त अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाहों व प्रेम प्रसंगों पर बर्बाद होना चाहिए? पिछले सत्र में लोकसभा में सरकार ने बताया कि 4.7 करोड़ केस अदालतों में विचाराधीन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के सामने कई अहम सांविधानिक वाद हैं। फैसले के लिए अनिश्चित काल तक इंतजार मजबूरी है। अगर किसी हाई कोर्ट को लंबी सुनवाई के बाद अंतरधार्मिक दंपति को सुरक्षा देने के लिए पुलिस को आदेश देना पड़े, तो इसका अर्थ यह है कि पुलिस ने अपनी सामान्य ड्यूटी नहीं की, जिससे कोर्ट का समय नष्ट हुआ। भारत का कानून धर्म और जाति की सीमाओं से आगे दो वयस्कों को विवाह की अनुमति देता है। अगर सजातीय वयस्क लिव-इन में हैं, तो अधिकतर मामलों में हिंसा की आशंका नहीं रहती।
विजातीय अथवा विधार्मिक होते ही धर्म, परंपरा, संस्कृति सब खतरे में पड़ जाते हैं। हैदराबाद का हत्याकांड गवाह है कि लोकतांत्रिक-सांविधानिक भावना का हनन करने वाली यह असहिष्णुता और कूपमंडूकता किसी एक जाति या धर्मानुयायियों तक सीमित नहीं है। पुलिस तय कर ले, तो भी धर्म-जाति जनित हिंसा कारगर ढंग से नहीं रोक सकती है। प्रति एक लाख पर होने चाहिए 222 पुलिसकर्मी। लेकिन भारत में 30 फीसदी पुलिसकर्मियों की कमी है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और आंध्र प्रदेश में तो एक लाख पर 100 पुलिसकर्मी ही हैं।
पुलिस को आतंकवादियों, खनन माफिया, तस्करों, नशा कारोबार, चोरों-लुटेरों से निपटने के साथ ही अन्य हिंसा और जांच कार्यों में भी फंसे रहना पड़ता है। दहेज, विवाह, गोत्र जैसे झगड़ों में पुलिस के उलझ जाने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण कामों का हर्जा होता है। अगर उन्मादी भीड़ हथियारबंद होकर अपने मनमाफिक फैसला करने लगी, अपनी व्याख्या या समझ के मुताबिक कानून पर अमल सुनिश्चित करने का दुस्साहस बेरोकटोक चलता रहे और ऐसे तत्वों को भरोसा हो कि वे कानूनी जवाबदेही से बच सकते हैं, तो खतरे की घंटी कान खोलकर सुननी चाहिए।
तब विधि के शासन और कुल मिलाकर सांविधानिक निजाम की जड़ें कमजोर होने लगती हैं। मोबाइल फोन, इंटरनेट और वाट्सएप के दौर में कुछ भी छिपाना असंभव है। ये सब करने वाले दरअसल देश की आबरू से खेल कर रहे हैं। समाज में हर तरह के विष वृक्षों के रोपण पर कारगर रोक के लिए समाज को जागरूक होना पड़ेगा। संतों, महंतों, धर्माचार्यों, महामंडलेश्वरों, मठाधीशों, इमामों, मौलवियों, पादरियों और ग्रंथियों का प्रभाव व्यापक है, इसलिए नफरत फैलाने और दरारें डालने या बढ़ाने की कुत्सित कुचेष्टाओं के विरुद्ध उन्हें मुखर होना पड़ेगा। देश की एकता चट्टानी है। लेकिन ये चट्टानें हिमालय पर्वत जैसी हैं।
Rani Sahu
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