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सम्पादकीय
उत्पीड़न के शिकार लड़कों की अनदेखी, यौन शोषित लड़के समाज के पुरुषत्व ढांचे के बीच घुट जाते हैं
Gulabi Jagat
11 May 2022 6:17 AM GMT
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यौन शोषित लड़के समाज के पुरुषत्व ढांचे के बीच घुट जाते हैं
डा. ऋतु सारस्वत। बीते दिनों खबर आई कि राजस्थान में बाल आयोग ने छेड़छाड़-दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए जागरूकता अभियान शुरू किया है। चूंकि ऐसी घटनाओं में बच्चियों को बड़े पैमाने पर निशाना बनाया जा रहा है तो बाल आयोग की यह पहल उचित कही जाएगी। यह आवश्यक भी है कि उन्हें आरंभ से ही 'गुड टच-बैड टच' के प्रति अवगत कराया जाए। हालांकि इस जागरूकता अभियान में बालकों को शामिल नहीं किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि आयोग की दृष्टि में लड़कों के लिए ऐसे प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है और लड़कियों की भांति उनका यौन उत्पीड़न नहीं होता?
यह सच नहीं है। यह धारणा पूरी तरह गलत है कि अमूमन लड़कों का यौन उत्पीड़न नहीं होता। आखिर ऐसे मिथक समाज में क्यों फैले हुए हैं? इंडियन जर्नल आफ साइकेट्री द्वारा 2015 में प्रकाशित लेख में यौन पीड़ितों का उल्लेख किया गया था। उसमें एक प्रसंग नौ वर्ष के पीड़ित बालक का था। उसके पिता ने अपने बेटे के लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श का विरोध करते हुए यह दलील दी थी कि 'इससे न तो वह अपना कौमार्य खोएगा न ही गर्भधारण करेगा। उसे एक पुरुष की तरह व्यवहार करना आना चाहिए न कि किसी डरपोक इंसान की तरह।' लड़कों के प्रति इस प्रकार की घोर असंवेदनशीलता उन्हें असहनीय शारीरिक एवं मानसिक पीड़ा ङोलने पर विवश करती है। इससे तमाम लड़के अवसाद में भी चले जाते हैं।
मर्सर यूनिवर्सिटी, जार्जिया में प्रोफेसर पैट्रीशिया रिकादी ने 'मेल रेप: द साइलेंट विक्टिम एंड द जेंडर आफ द लिसनर' शीर्षक से किए शोध में उजागर किया कि जो लड़के बचपन में यौन शोषण का शिकार होते हैं वे जीवन भर भावनात्मक, सामाजिक और निजी चुनौतियों से जूझते हैं और ये चुनौतियां उनके मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को घातक रूप से प्रभावित करती हैं। देश-दुनिया के आंकड़ों का गंभीरता से विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट होगा कि यौन उत्पीड़न के मामले में लड़कों के लिए लड़कियों के बराबर ही खतरा है, परंतु वास्तविकता के धरातल पर इसे अनदेखा कर नकार दिया जाता है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक भ्रांतियों और पूर्वाग्रहों की एक जटिल श्रृंखला का परिणाम है।
अक्टूबर 2021 में फ्रांस के कैथोलिक चर्चो में बच्चों के बड़े पैमाने पर यौन शोषण का खुलासा हुआ। अनुमानित तौर पर बीते 70 वर्षो में 3.30 लाख बच्चे यौन शोषण के शिकार हुए। एक रिपोर्ट के अनुसार यौन उत्पीड़न के शिकार बच्चों में 80 प्रतिशत लड़के हैं। उनमें से अधिकांश 10 से 13 साल के बीच के थे। वहीं भारत में 'स्टेट काउंसिल आफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग हरियाणा' ने 2017-18 के बीच हरियाणा के 33,460 बच्चों पर अध्ययन किया। उसमें सामने आया कि 55.1 प्रतिशत लड़के यौन शोषण का शिकार हुए जबकि लड़कियों का प्रतिशत 44.9 है। इन आंकड़ों को नकारती सामाजिक, वैधानिक एवं प्रशासनिक व्यवस्थाएं विश्व भर में इस सत्य की अवहेलना कर रही हैं। यह चिंता का विषय है। 'ए रिपोर्ट फ्राम इकोनामिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट' का 2019 में प्रकाशित दस्तावेज 'आउट आफ द शैडो: शाइनिंग लाइट आन द रिस्पांस टू चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज एंड एक्सप्लोइटेशन' बताता है कि दुनिया के 60 देशों में से 33 देशों में बाल दुष्कर्म कानूनों में लड़कों के लिए कानूनी सुरक्षा का अभाव है। अच्छी बात है कि भारत इस संदर्भ में संवेदनशील है और यहां लड़कियों की भांति लड़कों को भी यौन शोषण से कानूनी सुरक्षा मिली हुई है।
'एब्यूज्ड बायज: द नेगलेक्टेड विक्टिम्स आफ सेक्सुअल एब्यूज' के लेखक और मनोविज्ञानी मिक हंटर कहते हैं 'इस समस्या को नकारने का यह मतलब कतई नहीं है कि समस्या खत्म हो चुकी है।' इस किताब में उत्पीड़न के शिकार लोगों की चर्चा है। पीड़ितों पर पुरुषत्व का दबाव उन्हें मानसिक रूप से ऐसे अपराधों को सहन करने के लिए किस प्रकार विवश करता है, इसका उन्होंने गहन विश्लेषण किया है। समाज में पुरुष की व्याख्या अमूमन एक शोषक के रूप में की जाती है, परंतु लोग यह मानने को तैयार नहीं कि पुरुष शोषित भी होता है। ऐसे पूर्वाग्रह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का अप्रत्यक्ष रूप से हौसला बढ़ाते हैं।
यूनिवर्सिटी आफ न्यू हैंपशायर के राबर्टब्लम ने 40 वषों तक किशोरों का अध्ययन किया और कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि लैंगिक समानता के आंदोलन में अक्सर लड़कियों को सशक्त बनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है और किसी ने यह बताने का प्रयास नहीं किया कि लड़के भी भावनात्मक रूप से टूटते हैं। समस्या इतनी भर नहीं है। समस्या यह भी है कि लड़कों को सशक्तता का जो पाठ पढ़ाया जाता है, उसमें दर्द की अभिव्यक्ति पुरुषत्व भाव के विपरीत है। समाज में किसी लड़के को एक बच्चे के रूप में कमजोर होने की अनुमति नहीं दी जाती। एम्मा ब्राउन 'हाउ टू रेज ए बाय' में लिखती हैं कि 'लड़कों के प्रति अभिभावकों, अध्यापकों और समाज का रवैया कठोर होता है। बच्चों के जन्म के साथ माताएं और विशेषकर पिता बच्चियों के प्रति कहीं अधिक भावनात्मक रूप से बात करते हैं। वहीं बेटे के साथ अमूमन उन शब्दों का उपयोग करते हैं जो उपलब्धि पर केंद्रित हो। पिताओं की भाषा में ऐसी विसंगतियां लगातार लड़कों के भीतर वह दबाव बनाती हैं कि वह सदैव विजयी हो।' एमा कहती हैं, 'यह परवरिश का गलत तरीका है। लड़कों को भी सहायता की जरूरत होती है और वे भी पीड़ित हो सकते हैं'। क्या यह सभ्य समाज की परिभाषा के प्रतिकूल नहीं? क्या यह मानवाधिकारों के विरुद्ध नहीं है?
(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)
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