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श्रीलंका में रानिल विक्रमसिंघे की वापसी, क्या अब संकट होगा खत्म
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में रानिल विक्रमसिंघे की विजय पर उनके दोनों प्रतिद्वंद्वी तो चुप हैं लेकिन उनके विरुद्ध राजधानी कोलंबो में प्रदर्शन होने शुरू हो गए हैं. आम तौर पर गणित यह था कि राजपक्षे-परिवार की सत्तारूढ़ पार्टी के नाराज सदस्य रानिल के विरुद्ध वोट देंगे और संसद किसी अन्य नेता को राष्ट्रपति के पद पर आसीन कर देगी लेकिन रानिल को स्पष्ट बहुमत मिल गया है.
इसका अर्थ यही है कि सत्तारूढ़ दल में दरार जरूर पड़ी है लेकिन वह इतनी चौड़ी नहीं हुई कि पार्टी-उम्मीदवार उसमें डूब जाए और दूसरा यह कि प्रधानमंत्री रहते हुए रानिल विक्रमसिंघे ने पिछले कुछ हफ्तों में ही भारत और अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों को इतना प्रेरित कर दिया था कि श्रीलंका को अरबों रु. की मदद आने लगी थी.
वैसे भी रानिल छह बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. इतने अनुभवी नेता अब राष्ट्रपति बनने पर शायद श्रीलंका को वर्तमान संकट से उबार ले जाएं. इसी विश्वास ने उन्हें जिताया है लेकिन उनका आगे का रास्ता बहुत ही कंटकाकीर्ण है.
एक तो श्रीलंका की सारी बागी जनता मानकर चल रही है कि वे राजपक्षे परिवार के भक्त हैं, वे उनके कहे मुताबिक ही काम करेंगे. इसीलिए अब जनता का गुस्सा पहले से भी अधिक तीव्र होगा. जो नेता उनसे हारे हैं, वे जनता को भड़काए बिना नहीं रहेंगे. हालांकि उन्होंने अपनी हार को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया है.
यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि राष्ट्रपति के चुनाव में श्रीलंका की जनता मतदाता होती तो रानिल विक्रमसिंघ की जमानत जब्त हो जाती. अब देखना यही है कि विक्रमसिंघे श्रीलंका की वर्तमान समस्याओं का हल कैसे निकालते हैं. यदि इस वक्त वे किसी विपक्षी नेता, जैसे सजित प्रेमदास को प्रधानमंत्री बना दें तो शायद उन्हें राजनीतिक तूफानों का सामना कम ही करना पड़ेगा.
यदि ऐसा हो सके तो श्रीलंका में एक सर्वदलीय और सर्वसमावेशी मंत्रिमंडल बन सकता है, जो कि आम विरोध को भी शांत कर सकेगा. जहां तक भारत का सवाल है, राष्ट्रपति के इस चुनाव में भारत की भूमिका सर्वथा निष्पक्ष रही है. उसने अब तक लगभग चार बिलियन डॉलर की मदद श्रीलंका को दे दी है और वह अभी भी अपने इस निकट पड़ोसी राष्ट्र को संकट से उबारने को कृतसंकल्प है.
Rani Sahu
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