- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- चीन के साथ व्यर्थ की...
x
चीन के साथ व्यर्थ की वार्ता
सोर्स : Jagran
विजय क्रांति : गत 17 जुलाई को लद्दाख के चुशुल-मोल्डो सीमा मीटिंग प्वाइंट पर भारत और चीन के बीच कोर कमांडर स्तर की वार्ता हुई। करीब 12 घंटे चली यह बैठक बिना किसी ठोस परिणाम के ही समाप्त हो गई। उसमें केवल यही सहमति बनी कि बातचीत को जारी रखा जाए। 16वें दौर की इस वार्ता के अगले ही दिन भारत और चीन के विदेश मंत्रालयों द्वारा जारी साझा प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया, '11 मार्च को संपन्न पिछली (15वीं) बैठक में हुई प्रगति के आधार पर दोनों पक्ष संपर्क में रहने और सैन्य एवं राजनयिक कड़ियों के माध्यम से बातचीत जारी रखने और जल्द से जल्द मुद्दों के पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान की दिशा में काम करने पर सहमत हुए।'
इसमें कोई संदेह नहीं कि पूरी विज्ञप्ति नई आशा और आपसी विश्वास की चाशनी में लिपटी हुई दिखती है, लेकिन अगर इसके असली अर्थ को बयान किया जाए तो उसके लिए यह मशहूर पंजाबी कहावत काफी होगी कि 'जित्थे दी खोती, ओत्थे आन खलोती।' यानी बोझे से लदी हुई गधी पूरे शहर का चक्कर काटने के बाद अपने ठिकाने पर वहीं आ खड़ी हुई, जहां से चली थी। न तो इस विज्ञप्ति में और न दोनों पक्षों के किसी अधिकारी के पास इस सवाल का जवाब है कि 11 मार्च की बैठक में किस तरह की 'प्रगति' हुई थी और वार्ता के इस नए दौर में या फिर पिछले 27 महीनों से चली आ रही वार्ताओं में लद्दाख के जमीनी मोर्चे पर सैनिक तनाव को कम करने के लिए क्या ठोस 'प्रगति' हुई है?
अगर इस कूटनीतिक लफ्फाजी से परे जमीनी असलियत देखें तो 20 मार्च 2020 के बाद लद्दाख की सीमा पर तनाव घटने के बजाय लगातार बढ़ रहा है। चीनी सेना ने पैंगोंग झील के इलाके में आगे बढ़कर 'फिंगर-4' तक अपना कब्जा जमा लिया है। चीन की इस सामरिक बढ़त के जवाब में भारतीय सेना के एलीट माने जाने वाले तिब्बती दस्ते 'विकास रेजीमेंट-22' (प्रचलित नाम 'टू-टू रेजिमेंट') की मदद से इस इलाके की कैलास चोटियों पर रातों रात मारक हथियार तैनात कर दिए, जिसने पूरे इलाके में तैनात चीनी सेना के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया।
इस खतरे से परेशान चीन की पहल पर सैनिक वार्ताओं का जो क्रम शुरू हुआ, उसके आरंभिक चरणों में ही भारतीय पक्ष चीन के इस आश्वासन पर कैलास चोटियों से 'टू-टू' और हथियारों को हटाने पर राजी हो गया कि चीन भी इस दौरान भारतीय क्षेत्रों को खाली कर देगा। इसी उम्मीद में भारतीय सेना ने तो कैलास चोटियां खाली कर दीं, लेकिन चीनी पक्ष भारतीय क्षेत्रों को खाली करने के बजाय 'रचनात्मक और दूरंदेशी' वार्ताओं को चलाए रखने से आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, इस बीच चीनी सेना ने पैंगोंग झील के बीच एक ऐसा दोहरा पुल भी बना डाला, जिसके रास्ते वह मात्र डेढ़ घंटे के भीतर टैंकों और बख्तरबंद गाडिय़ों को सीधे 'फिंगर-4' तक लाकर भारतीय सेना के लिए नया संकट खड़ा कर सकती है।
असल में गलवन झड़प में भारतीय सेना की जोरदार जवाबी कार्रवाई और लंबे समय तक हाड़ कंपा देने वाली सर्दी से चीन को यह समझ आ चुका है कि उसके सैनिकों में इस इलाके में साल भर तैनात रहने का दम नहीं है। इसीलिए चीन ने भारत के साथ वार्ताओं को लंबा खींचकर उनकी आड़ में अपनी रणनीति को पिछले दो साल के भीतर थल सेना के बजाय वायुसेना और मिसाइलों पर केंद्रित कर लिया है। लद्दाख सीमा से सटे हुए तिब्बती और शिनजियांग (मूल नाम 'ईस्ट तुर्किस्तान') के इलाकों में नई हवाई पट्टियां विकसित करने और मिसाइलें तैनात कर उसने भारत पर दबाव बढ़ा दिया है। याद रहे कि शिनजियांग पर 1949 और तिब्बत पर 1951 से चीन ने जबरन कब्जा जमाया हुआ है।
भारत में नीति निर्धारकों को यह याद रखना जरूरी है कि चीनी रणनीति में विपक्षी से बातचीत का केवल एक ही मतलब होता है कि उसे बातों में उलझाए रखकर उस दौरान अपनी किलेबंदी को इतना मजबूत कर लिया जाए कि मौका आने पर बिना युद्ध किए ही विरोधी वार्ता की मेज पर घुटने टेकने को मजबूर हो जाए। भारत यह भी न भूले कि 1981 में संवाद-संपर्क के पहले चरण में ही चीनी नेताओं ने 'इतिहास की देन सीमा विवाद' को किनारे रखकर आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते बनाने का जो जाल फेंका था, भारत आज भी उसमें फंसा हुआ है। 2021 में भारत-चीन व्यापार 125 अरब डालर था, जिसमें चीनी निर्यात का हिस्सा 97 अरब डालर से ज्यादा रहा और गलवन झड़प की कड़वाहट और 'मेक इन इंडिया' अभियान के बावजूद 2020 के मुकाबले यह व्यापार 40 प्रतिशत बढ़ा। साथ ही 1993 से लेकर 2020 तक कम से कम आठ वार्ताओं में चीन ने एक बार भी भारत को कोई रियायत नहीं दी। उलटे इनकी आड़ में भारत के विरुद्ध अपनी तैयारी को ही मजबूत किया।
चीन की वार्ता रणनीति का एक ऐतिहासिक उदाहरण 1949 में शिनजियांग के उग्र मुस्लिम उइगर नेताओं को चेयरमैन माओ का 'परिवार' और 'भाई-भाई' जैसी वार्ता का निमंत्रण है। माओ ने सभी तुर्की जातियों और कबीलों के अधिकांश सरदारों को बातचीत के लिए बीजिंग बुलाया। इसके लिए सोवियत संघ से एक विमान की व्यवस्था भी कर ली, लेकिन वह विमान बीजिंग पहुंचने से पहले ही रास्ते में बम विस्फोट में नष्ट हो गया। इस तरह चीन के औपनिवेशिक कब्जे के खिलाफ लड़ने वाले उइगर नेताओं की पूरी पीढ़ी एक झटके में समाप्त हो गई। यूरोपीय संसद के अल्टीमेटम से डरे हुए चीन ने 2002 में दलाई लामा के साथ वार्ता तो शुरू की, लेकिन वह इसे किसी न किसी बहाने 2010 तक टालता गया। इस बीच चीन ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा को बुलेट ट्रेन से जोड़कर और वहां सड़कों एवं सैन्य ठिकानों का नया जाल बिछा लिया। साथ ही तिब्बत में हान चीनी नागरिकों को बड़ी संख्या में बसाकर पूरा पासा ही पलट दिया। अब उसने वार्ता से भी इन्कार कर दिया है।
चीन की इस 'वार्ता रणनीति' और उसके इतिहास को देखते हुए भारत के राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य नेतृत्व को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि चीन की वार्ताएं ऐसे रंगमंच जैसी होती हैं, जिसमें परदे के सामने तो मुस्कराहट और प्रेम का नाटक चलता है, लेकिन परदे के पीछे तलवारों की धार तेज की जाती है। वार्ता में कोई हर्ज नहीं, लेकिन इन वार्ताओं से शांति की उम्मीद में अपनी तैयारी छोड़ बैठना आत्मघाती होगा।
Rani Sahu
Next Story