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कई बार खामोशी भी बहुत कुछ कहती है
रंजीव
कई बार खामोशी भी बहुत कुछ कहती है. उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh Loudspeaker Controversy) में इन दिनों धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकरों को हटाए जाने या उनकी आवाज कम करने का जो अभियान चल रहा है उससे उपजी शांति भी कुछ कहती है. बगैर किसी जोर-जबरदस्ती और दबाव के अब तक करीब 45 हजार लाउडस्पीकर (Loudspeaker) विभिन्न धर्म स्थलों से हटाए जा चुके हैं. जबकि करीब 60 हजार की आवाज कम की गई है. खास बात यह है कि यह अभियान पूर्व के अदालती आदेशों के परिपेक्ष्य में शुरू हुआ है और जिसे मंदिर, मस्जिद और यहां तक कि गुरुद्वारा प्रबंधकों ने बिना किसी विरोध मानने से गुरेज नहीं किया. यहां तक कि ज्यादातर जगहों पर मंदिरों और मस्जिदों के संचालकों ने खुद ही अतिरिक्त लाउडस्पीकर हटाए या उनकी आवाज को कम किया.
यूपी के अपर मुख्य सचिव, गृह अवनीश अवस्थी के मुताबिक आदेश जारी होने के बाद लोगों ने स्वेच्छा से मंदिरों और मस्जिद परिसर से लाउडस्पीकर हटाए हैं. लोगों ने आपसी सहयोग और सौहार्द की भावना के साथ लाउडस्पीकर उतारे हैं. उन्होंने कहा कि लाउडस्पीकर को लेकर सरकारी फरमान जारी होने के बाद धर्म गुरुओं ने आगे आकर सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने की अपील की जिसका असर हुआ. यह सकारात्मक और स्वागत योग्य पहल है.
उल्लेखनीय है कि इस अभियान के पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (CM Yogi Adityanath) ने सभी धार्मिक स्थलों के संचालकों से अपील की थी कि वे अपने यहां लगे लाउडस्पीकर की आवाज कम करें, ताकि उसकी आवाज उनके परिसर से बाहर न जाए. माना जा रहा है कि बीते 10 दिन से चल रहे इस अभियान की सफलता में मुख्यमंत्री की अपील का भी खासा असर है. उत्तर प्रदेश जैसे धार्मिक ध्रुवीकरण वाले राज्य में यदि सभी संप्रदायों के लोग बिना किसी लाग लपेट के ऐसा कर रहे हैं तो इसको बड़ी घटना माना जाना चाहिए. हालांकि, यह माना जाना जल्दबाजी होगी कि रामराज्य से हालात आ गए हैं और धार्मिक मुद्दों पर तनाव अब दूर की कौड़ी है. लेकिन इस पूरे लाउडस्पीकर प्रकरण ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिए हैं कि संवाद से बेहतर शासन व्यवस्था चल सकती है और समावेशी कार्यपद्धति एक बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था और समाज का निर्माण कर सकती है.
योगी आदित्यनाथ की छवि अब सुधर रही है
इस पूरे मामले में सबसे उल्लेखनीय बात यह भी है कि योगी आदित्यनाथ की जो छवि अब तक आमतौर पर रही है उन्होंने उससे बिल्कुल विपरीत समग्रता में निर्णय लेने और सभी की भावनाओं का सम्मान करने वाला रुख दिखाया है जो कि उनके अतीत की छवि से एकदम उलट है. सबको याद है कि उत्तर प्रदेश में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद साल 2017 में जब कांवड़ यात्रा में डीजे बजाने के मुद्दे पर विवाद चल रहा था तब उन्होंने यह बयान देकर सनसनी मचा दी थी कि 'कांवड़ यात्रा में डीजे नहीं बजेगा तो क्या शव यात्रा में बजेगा?'
इतना ही नहीं वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के समय भी उन्होंने विपक्ष पर तंज कसते हुए बयान दिया था कि "अगर उनके पास अली हैं तो हमारे पास बजरंगबली हैं". उनके बयानों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का आरोप लगाते हुए विपक्ष ने काफी सवाल उठाए थे और खूब विवाद हुआ था. कट्टर हिंदुत्ववादी वाली छवि की पहचान के साथ ही योगी आदित्यनाथ ने हाल में संपन्न 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का प्रचार भी किया. 80 बनाम 20 उनका बयान खासा चर्चित हुए रहा था जिसके सीधे मायने यह निकाले गए थे कि योगी आदित्यनाथ एक खास समुदाय को अलग-थलग कर बहुसंख्यक समुदाय का का समर्थन पाने और उसका ही प्रतिनिधित्व करने के पर्याप्त संकेत दे रहे हैं.
वहीं, उत्तर प्रदेश में दोबारा सरकार बनने और फिर से मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ की कार्य पद्धति में बदलाव के संकेत दिख रहे हैं. नाहक की बयानबाजी से बचते हुए उन्होंने अपना पूरा ध्यान बेहतर गवर्नेंस का ढांचा खड़ा करने पर लगा रखा है. इसमें उन्हें कितनी कामयाबी मिलेगी यह समय बताएगा. लेकिन लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का जो मनोवैज्ञानिक दबाव सिस्टम पर और शायद जनता पर भी होता है उसका भी असर खूब दिख रहा है. मुख्यमंत्री की तरफ से की जा रही अपील को पर्याप्त तवज्जो दी जा रही है. छवि बदलने की कोशिश हो या फिर दोबारा जिम्मेदारी मिलने का दबाव, इस मामले में चाहे जो भी कारण हो इतना तो तय है कि लाउडस्पीकर के मामले ने यह साबित किया है कि सरकार अगर समावेशी तरीके से बिना भेदभाव के चलना चाहे तो समाज भी बेहतर रिस्पांस देता है.
उत्तर प्रदेश केंद्र के लिए भी महत्वपूर्ण
लाउडस्पीकर हटाने इस दौर में ही अयोध्या में सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की जो घटना सामने आई उसमें गिरफ्तार किए गए हिंदू संप्रदाय के युवकों की साजिश का पुलिस ने जिस तरीके से आनन-फानन में खुलासा कर आरोपियों की गिरफ्तारी की, उससे भी यह संकेत मिल रहे हैं कि योगी सरकार 2.0 खुद को निष्पक्ष दिखाते हुए एक समावेशी शासन व्यवस्था देने की सायास कोशिश कर रही है. बिना राग द्वेष के सरकार चलाने की शपथ तो ली जाती है लेकिन इस पर अमल आमतौर पर नहीं हो पाता लेकिन यदि सभी संप्रदायों को साथ लेकर उन्हें किसी सकारात्मक प्रयास में भागीदार बनाने में सफलता मिले तो उसका स्वागत होना चाहिए.
अलबत्ता सरकार को यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि यह महज प्रतीकात्मक ना रह जाए और सिर्फ एक घटना होने की मिसाल भर बनकर न रह जाए. उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक समुदाय के मन में, विशेषकर मुस्लिमों के बीच बीजेपी सरकार को लेकर शक और संदेह के भाव हमेशा से रहे हैं. दोबारा सत्ता में आई बीजेपी सरकार की जिम्मेदारी है कि उसे फिर से मिले जनादेश को वह वस्तुतः सबकी सरकार में तब्दील करे. यह तभी संभव होगा जब शासन व्यवस्था बिना किसी पूर्वाग्रह के निरंतर समावेशी आचरण करती रहे. यदि यह महज एक घटना भर में सिमट कर रह गई तो इसके सकारात्मक परिणाम नहीं निकल सकते.
दरअसल एक बेहतर प्रशासक की छवि के साथ शासन चलाना योगी आदित्यनाथ के लिए राजनीतिक रूप से भी जरूरी है क्योंकि 2024 का लोकसभा चुनाव सामने है और केंद्र में दोबारा नरेंद्र मोदी की सरकार बनने में यूपी की 80 लोकसभा सीटों की अहम भूमिका होगी. विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान बीजेपी के वरिष्ठ नेता और देश के गृहमंत्री अमित शाह चुनावी सभाओं में कह चुके हैं कि 2024 में फिर से नरेंद्र मोदी की सरकार बनाने के लिए 2022 में यूपी में योगी की सरकार बनना जरूरी है. उस रणनीति के मुताबिक यूपी में योगी की सरकार बन चुकी है और 2024 में फिर से मोदी की सरकार बनने के लिए योगी सरकार 2.0 को यूपी में सुशासन और सौहार्दपूर्ण माहौल में काम करना होगा क्योंकि 2024 में जब लोकसभा के चुनाव हो रहे होंगे तो केंद्र में बीजेपी की सरकार के 10 साल हो चुके होंगे और यूपी में 7 साल. लिहाजा किसी भी तरह की की एंटी इनकंबेंसी से बचने के लिए जरूरी है कि 80 लोकसभा सीटों वाली उत्तर प्रदेश की सरकार को बिना भेदभाव के चलाया जाए ताकि सामाजिक तबके के समर्थन का दायरा और बढ़ सके.
Rani Sahu
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