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- यू.पी. में 'जनसंख्या'...
आदित्य चोपड़ा| सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है कि संविधान में राज्यों को जो अधिकार दिये गये हैं वे प्रदेशों के हितों को इस प्रकार संरक्षित करने के लिए दिये गये हैं कि प्रत्येक राज्य का नागरिक सबसे पहले भारतीय होते हुए अपने निजी विकास व उत्थान के लिए एक समान रूप से संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उपयोग एक समान रूप से कर सके और कोई भी सत्ता या शासन उसके साथ उसकी जाति या धर्म अथवा शिक्षा या लिंग को लेकर किसी प्रकार का भेदभाव न कर सके। अतः उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ अपनी नई जनसंख्या नीति का जिस तरह प्रचार कर रहे हैं उसे भारत के संविधान के तहत देश का सर्वोच्च न्यायालय पहली ही नजर में कूड़े की टोकरी में फैंकने ऐलान कर सकता है कि राज्य सरकारों का पहला कर्त्तव्य संविधान के अनुसार नागरिकों के उन हितों का संरक्षण करना है जिनसे वे स्वयं को अधिक सशक्त बना कर राष्ट्रीय विकास में अपना योगदान दे सकें। यद्यपि मुख्यमंत्री योगी ने जनसंख्या नियंत्रण का ड्राफ्ट जारी करके यह कहा है कि इसमें हर वर्ग का ध्यान रखा जाएगा लेकिन जनसंख्या के बारे में जो बुनियादी तौर पर गलत अवधारणा फैलाने की कोशिश की जा रही है वह यह है कि इसके लिए नागरिक या समाज दोषी हैं। जबकि हकीकत यह है कि इसके लिए वे सामाजिक परिस्थितियां व विसंगतियां दोषी हैं जिन्हें बदलने का प्रयास जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों द्वारा ही नहीं किया गया। इस मामले में संविधान का स्पष्ट निर्देश है कि प्रत्येक सरकार समाज में वैज्ञानिक सोच व दृष्टि बढ़ाने के लिए काम करेगी परन्तु पिछले तीस साल से पूरा देश देख रहा है कि किस प्रकार समाज में अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता की जड़ें मजबूत की जा रही हैं जिनमें जातिगत व्यवस्था सबसे ऊपर है। संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर का सपना था कि संविधान में सामाजिक बराबरी के प्रावधानों के लागू होने के बाद भारत में एक न एक दिन जाति विहीन समाज की नींव जरूर पड़ेगी। मगर इसके विपरीत हो यह रहा है कि जैसे-जैसे हम वैज्ञानिक प्रगति करते जा रहे हैं वैसे-वैसे ही और अधिक रूढ़ीवादी व अन्धविश्वासी होते जा रहे हैं। इसका सीधा दोष उस राजनीतिक तन्त्र को दिया जा सकता है जिससे लोकतन्त्र में सत्ता पैदा होती है। अतः जनसंख्या के मामले में सत्ता कोई भी कानून नागरिकों पर किसी कीमत पर नहीं थोप सकती है। जनसंख्या का सीधा सम्बन्ध नागरिकों की गरीबी और सामाजिक सोच से है। यदि जनसंख्या नीति में यह बखान करने की कोशिश की जाती है कि जिनके दो से अधिक बच्चे होंगे उन्हें न तो सरकारी नौकरी मिलेगी और न वे पंचायत स्तर का चुनाव लड़ पायेंगे या अन्य किसी सरकारी कल्याण सुविधा का लाभ ले पायेंगे, यहां तक कि उनके राशन कार्ड में सिर्फ चार लोगों का अनाज ही दिया जायेगा तो यह सत्ता द्वारा उनके गरीब होने की सजा दी जा रही है। गरीबी का न कोई धर्म होता है और न जाति बल्कि यह आर्थिक हालत होती है। जो आदमी पहले से ही गरीब है जिसका कारण अशिक्षा व सामाजिक ताना-बाना है तो भारत की कल्याणकारी राज की संस्थापना कहती है कि सरकारी सुविधाओं पर उसका पहला हक बनता है। मगर जनसंख्या नीति उसे ही सबसे पहले निशाने रख कर उसे सजा सुना रही है।