सम्पादकीय

अफगानी शौर्य के बेमिसाल प्रतीक

Rani Sahu
19 Aug 2021 6:28 PM GMT
अफगानी शौर्य के बेमिसाल प्रतीक
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के सी त्यागी। आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर खान अब्दुल गफ्फार खान की आत्मकथा प्रकाशित हुई है, जिसको लेकर चर्चा जारी है। हालांकि, मूल पुस्तक पश्तो भाषा में है, जिसका अंग्रेजी अनुवाद माई लाइफ ऐंड स्ट्रगल (मेरा जीवन और संघर्ष) नाम से प्रकाशित हुआ है। यह किताब नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर की कबिलाई संस्कृति, इतिहास के साथ-साथ आजादी के संग्राम और बंटवारे की आपबीती घटनाओं पर आधारित है।

अफगानिस्तान में हो रहे मौजूदा बदलाव के समय इस पुस्तक का महत्व और अधिक हो जाता है कि अफगानी अवाम किस प्रकार पुरातन रीति-रिवाजों को निभाते हुए प्रगतिशील एवं आधुनिक सभ्य समाज की ओर अग्रसर थे। तालिबान के प्रवक्ता का यह वक्तव्य निराशा पैदा करने वाला है, जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान में किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की संभावना से इनकार किया है। तालिबान के प्रवक्ता का कहना है कि उनके मुल्क में लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार नहीं है। अफगानिस्तानी शासन व्यवस्था का संचालन शरिया कानूनों के जरिये होगा। पहले ही अफगानों को बडे़ पैमाने पर मुल्क छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस संकट के बाद लगभग 30 हजार अफगानी रोजाना देश छोड़कर भाग रहे हैं। अफगान अपनी सीमा की सुरक्षा और कबीलों की हिफाजत के लिए जाने जाते रहे हैं। सबसे ज्यादा जुल्म-ज्यादती आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने इन्हीं कबीलाई समूहों के विरुद्ध की थी, पर शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि दो दशकों में 85 अरब डॉलर की लागत से तैयार और प्रशिक्षित अफगान सुरक्षा बलों की तरफ से गोली तक न चलाई गई। बादशाह खान यदि आज होते व पाकिस्तान-अफगानिस्तान में उनकी चलती, तो तालिबानी बर्बरता के आगे वह कभी घुटने नहीं टेकते। बादशाह खान की आत्मकथा अफगानों की शौर्य गाथाओं के अनेक किस्से-कहानियों से भरी है। अपने अवाम के बीच वह स्नेह के साथ बाचा खान, बादशाह खान, फख्रे-अफगान आदि नामों से पुकारे जाते थे। लेकिन गांधीजी से निकटता और संयुक्त भारत के अंतिम छोर यानी सीमावर्ती क्षेत्र से संबंधित होने के कारण उन्हें 'सीमांत गांधी' के नाम से ज्यादा जाना जाता है। भारत सरकार ने उनके बलिदानी कार्यों का सम्मान करते हुए उन्हें 'भारत रत्न' से नवाजा। 1890 से प्रारंभ होकर 1988 तक चली उनकी जीवन यात्रा अनोखे घटनाक्रमों से जुड़ी हुई है। उनकी अंतिम यात्रा में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी शामिल हुए थे। 'खुदाई खिदमतगार' नामक संगठन का लक्ष्य विभिन्न कबीलों को शिक्षित कर आधुनिक युग में प्रवेश कराना था। इस संगठन को जहां अंग्रेज एक विद्रोही और आतंकी संगठन मानते थे, वहीं मुस्लिम लीग के नेताओं की भृकुटि भी इसलिए तनी रहती थी कि कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रमों में इनकी अग्रणी भूमिका होती थी। बादशाह खान भारतीय उप-महाद्वीप के सबसे लंबी अवधि (28 वर्ष) तक जेल जीवन जीने वाले नेता हैं। परतंत्र भारत की लगभग सभी महत्वपूर्ण जेलों में सजा काटने का उन्हें अनुभव था, जिसमें गुजरात, साबरमती, हजारीबाग, बरेली, अल्मोड़ा, मुंबई, लाहौर आदि शामिल हैं। जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद समेत सभी नामचीन हस्तियों के साथ उन्होंने अनुभव साझा किए हैं। सन 1918 के स्पेनिश फ्लू के भी वह शिकार हुए और कई परिजनों को खोने की पीड़ा भी महसूस की। महात्मा गांधी के स्वाधीनता संग्राम में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई। साबरमती आश्रम, सेवाग्राम और बाद में 1947 में पटना-प्रवास में उन्हें गांधीजी का भरपूर सान्निध्य मिला। उन्होंने उपेक्षित पख्तूनों को आजादी के आंदोलन का अग्रणी दस्ता बनाया और नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर में दो बार सरकार बनाकर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाया। ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडलों से समय-समय पर होने वाली लगभग सभी महत्वपूर्ण बैठकों में नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद के अलावा गांधी के प्रिय पात्र के रूप में वह उपस्थित रहते थे। मुस्लिम लीग और जिन्ना के पाकिस्तान के अलग राष्ट्र के सिद्धांत का उन्होंने सभी मंचों से पुरजोर विरोध किया, जिसके लिए उन्हें पाकिस्तान बनने के बाद 10 वर्षों से अधिक अवधि तक वहां की जेलों में भीषण यातनाएं सहनी पड़ीं। भारत बंटवारे को लेकर वह गांधी, नेहरू, पटेल, राजाजी, सभी से निराश थे। उन्होंने सभी को कई अवसरों पर सचेत किया कि बंटवारे के बाद ये लोग भूखे भेड़ियों की तरह हमें निगल जाएंगे। बाद के दिनों में पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा उन्हें व उनके परिवार को दी गई यातनाओं को अब भी लोग याद करते हैं। पख्तून पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर बड़ी संख्या में मौजूद हैं। करीब 50 लाख से अधिक इनकी आबादी है। बंटवारे के समय 'स्वायत्त पख्तून' के लिए प्रत्यनशील बादशाह खान को मलाल रहा कि माउंटबेटन, भारत व पाकिस्तान, सभी ने इसे लागू नहीं होने दिया। उन्हें गांधी और नेहरू के रुख पर अधिक अफसोस रहा।

जिन्ना ने तब कहा था कि बादशाह खान हमारे मुस्लिम भाई हैं, लिहाजा हम उनसे एकांत में बात कर मामले को सुलझा लेंगे, लेकिन सीमांत सूबे की स्वायत्तता को लेकर कोई फैसला नहीं हुआ। बाद में, मौलाना आजाद ने अपनी पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम में इसका जिक्र किया है कि 'मुस्लिम लीग, कांग्रेस और माउंटबेटन के बीच सभी मसलों पर सहमति पहले ही बन चुकी थी, लिहाजा कांग्रेस नेतृत्व ने बादशाह खान को भी अंधेरे में रखा।' बादशाह खान बहुत व्यथित थे और क्रोधित भी कि किस प्रकार सीमांत प्रांत के लोगों ने मुस्लिम लीग का विरोध करके कांग्रेस का साथ दिया, फिर भी उनके साथ यह सुलूक किया गया। यद्यपि कांग्रेस पार्टी के नेता उन्हें सार्वजनिक अवसरों पर बेहद सम्मान देते रहे। कई अवसरों पर स्वयं पंडित नेहरू, सरदार पटेल, गांधी जी के पुत्र देवदास गांधी उनकी अगुवाई के लिए उपस्थित रहते थे। राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद आदि ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए राजी करने का भी प्रयास किया था, लेकिन वह मानव जाति की सेवा के लिए 'खुदाई खिदमतगार' को सबसे अच्छा औजार मानते थे। लगभग 555 पृष्ठों में फैली यह आत्मकथा इतिहास के वर्णन के साथ भारत के बंटवारे की तकलीफ भी बयां करती है। किस प्रकार पाकिस्तान के उपेक्षित इलाकों के पख्तूनों ने अंग्रेजों से आजादी और अविभाजित भारत के लिए संघर्ष किया और यातनाएं सहीं, लेकिन भारत का बंटवारा उन्हें सबसे बड़ा दुख दे गया। बादशाह खान अंत समय तक लोकतंत्र और सत्य-अहिंसा-प्रेम के समर्थक बने रहे। पता नहीं, आज के पठानों या अफगानियों को बादशाह खान कितने याद हैं?

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