सम्पादकीय

समान नागरिक संहिता की असमान राह

Rani Sahu
27 April 2022 6:29 PM GMT
समान नागरिक संहिता की असमान राह
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भारत में राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत बताई जाती है

आनंद कुमार

भारत में राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत बताई जाती है। मगर किसी भी समाज के रीति-रिवाजों को बदलने के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान की अपनी साख मजबूत होनी चाहिए, क्योंकि विवाह की व्यवस्था समाज की जिम्मेदारी रही है और इसमें सत्ता-प्रतिष्ठान का दखल संदेह पैदा करता है। भारत भी अपवाद नहीं है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 तक जो धार्मिक स्वतंत्रता का आश्वासन मिला हुआ है, वह अनुच्छेद 45 में निर्देशित समान नागारिक कानून व्यवस्था के निर्माण की जिम्मेदारी से टकराता है। यहां हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 1954 में जब हिंदू सामाजिक कानूनों में सुधार के लिए जवाहरलाल नेहरू के समर्थन से कानून मंत्री बाबा साहब आंबेडकर ने प्रस्ताव रखा, तो कट्टरपंथी हिंदुओं जैसा असंतोष खुद कांग्रेस में फैल गया। फिर, 1956 में इस प्रयास को चार टुकड़ों में बांटकर पेश किया गया और हिंदू विवाह व संपत्ति में हिस्सेदारी आदि सवालों का कुछ समाधान निकल सका। देखा जाए, तो इस तरह के बदलावों के लिए विदेशी शासन ज्यादा सक्षम रहे हैं। इसीलिए, 1856 में विधवा विवाह की अनुमति मिल सकी और 1928 में हिंदू ्त्रिरयों को पति की संपत्ति में हिस्सेदारी संबंधी कानून बन सके। ब्रिटिश शासन के दौरान ही 1937 में शरिया कानून लागू किया गया।
हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि भारत का गोवा ऐसा प्रदेश है, जहां समान नागरिक संहिता पुर्तगाली राज के समय से ही लागू है। गोवा भारत के अन्य राज्यों की तरह बहुधर्मी है, लेकिन वहां के हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों आदि में समान नागरिक संहिता को लेकर कोई विवाद नहीं है। तो क्या पूरे भारत को गोवा के रास्ते पर चलकर समान नागरिक संहिता लागू कर देनी चाहिए? इसके बरक्स यह याद दिलाया जाता है कि भारत में 1954 से ही विशेष विवाह कानून (स्पेशल मैरिज ऐक्ट) उपलब्ध है, जिसके तहत बिना धार्मिक परंपराओं और बंधनों के दो वयस्क स्त्री-पुरुष विवाह कर सकते हैं। और ऐसे विवाहों को सरकार की मान्यता भी हासिल है।
असल में, मुसलमानों के विवाह कानूनों को लेकर हमारे देश में 1937 से ही विवाद रहे हैं। पुरुष प्रधान व्यवस्था को इसका दोषी माना गया है। पति द्वारा तत्काल तलाक देने की व्यवस्था के कारण पत्नी पूरी जिंदगी आतंक और अनिश्चय में जीने को विवश होती है। तलाक नहीं देने पर भी पति एक पत्नी के रहते हुए और शादियों का धर्मसम्मत अधिकार रखता है। तलाकशुदा स्त्री को गुजारा भत्ता देना एक मानवीय जिम्मेदारी कही जा सकती है, लेकिन शरिया कानून में इसे स्पष्ट शब्दों में मना किया गया है।
इस पुरुष प्रधान विवाह व्यवस्था पर विशेष ध्यान आजादी के बाद सन 1985 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाह बानो नाम की 72 वर्षीय महिला की फरियाद पर दिए गए फैसले के बाद गया। शाह बानो को उनके वकील पति ने विवाह के पांच दशक बाद बिना गुजारा भत्ता के संबंध तोड़ने का फरमान सुना दिया था। शाह बानो को अदालत से राहत तो मिली, लेकिन तब की प्रगतिशील आवाजें हकलाने लगीं, क्योंकि कट्टरपंथी तबके इस फैसले को इस्लाम के वजूद पर खतरा बताने लगे थे। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार में इतना आत्मबल नहीं था कि वह सर्वोच्च न्यायालय के साथ खड़ी रह सके। तब से समान नागरिक संहिता का मुद्दा मुस्लिम विवाह व्यवस्था में स्त्री हितों की रक्षा का पर्याय बन गया है।
समाज के वयस्क सदस्यों के बीच यौन संबंध और परिवार-व्यवस्था के लिए विवाह नामक संस्था की बड़ी भूमिका है। इसीलिए यह व्यवस्था देश, काल और पात्रों के अनुसार विविधातपूर्ण है। भारतीय समाज अलग-अलग जातियों, धर्मों, क्षेत्रों और वर्गों में बंटा हुआ है, और इन विविधताओं से जुड़ी विशिष्टताएं विवाह की संस्था और इससे जुड़े रस्म-ओ-रिवाज में स्पष्ट दिखती हैं। विवाह की संस्था पुरुष प्रधानता और स्त्री प्रधानता के बीच बनती-बदलती आई है। अंग्रेजी राज के दौरान इसका एक ढांचे में बने रहने से यही संदेश गया था कि यह आदिवासियों और विभिन्न जातियों के विवाह नियमों की उपेक्षा करके ब्राह्मण उन्मुख व्यवस्था की स्थापना है। अभी भी हिंदू विवाह व्यवस्था में क्षेत्र और जाति के अनुसार विविधताएं बनी हुई हैं। यह भी याद रखना चाहिए कि जब बाल विवाह व सती प्रथा जैसी भयानक परंपराओं को खत्म करने का प्रयास किया गया, तब सहमति से ज्यादा विरोध के स्वर गूंजे थे। लोकमान्य तिलक जैसे नायकों की नजर में भी विदेशी राज को भारतीय समाज में सुधार का कोई अधिकार नहीं था। इस इतिहास को याद रखते हुए ही हमें मुस्लिम समाज में मौजूद विवाह नामक व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए।
दिक्कत यह है कि मौजूदा भाजपा सरकार की धर्म संबंधी छवि जगजाहिर है। इसके कारण समान नागरिक संहिता को शायद ही समाज की जरूरत से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में, यह सोचना होगा कि क्या अपनी खराब साख के बावजूद सरकार को मुसलमानों को निशाने पर रखते हुए समान नागरिक संहिता के लिए संसद को एक मंच बनाना चाहिए? धर्म की रक्षा के नाम पर ज्यादातर लोग प्राय: भावनाओं में बह जाते हैं। इसलिए एक तरफ, गांवों और कस्बों के नुक्कड़ पर 'इस्लाम खतरे में है' के नारे के साथ लोगों के जुटने, तो दूसरी तरफ 'एक देश, एक कानून' का विरोध करने वालों को पाकिस्तान भेजने की सलाह देने वाले हुड़दंगियों के भड़कने की आशंका होगी। वैसे यह तो साफ हो चुका है कि शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विस्तार से मुस्लिम स्त्री-पुरुष भी देर-सवेर विवाह संबंधी कानूनों की अनिवार्यता स्वीकार लेंगे। इसीलिए इस सवाल पर सत्ता की तरफ से शक्ति प्रदर्शन करना राष्ट्र-निर्माण के लिए सही रास्ता नहीं होगा।
समान नागरिक संहिता के दबाव को आदिवासी भारत भी स्वीकार नहीं करेगा। 10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी भारतीय स्त्री-पुरुष हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि विवाह कानूनों से परे स्थानीय विधि और रीति-रिवाजों के साथ परिवार व्यवस्था स्वीकारते हैं। विवाह संबंधी इनके विवादों को स्थानीय आदिवासी जमात सुलझाती है। लिहाजा, समान नागरिक संहिता को लागू करने के आवेश में केंद्र सरकार अनायास आदिवासियों के साथ भी एक मोर्चा खोल लेगी।

Rani Sahu

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