सम्पादकीय

पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने जा रहे यात्री सावधान! लद्दाख में दो माह में 11 पर्यटकों ने गंवाई जान, परिवेश को समझे बिना...

Rani Sahu
20 Jun 2022 6:11 PM GMT
पहाड़ी क्षेत्रों में घूमने जा रहे यात्री सावधान! लद्दाख में दो माह में 11 पर्यटकों ने गंवाई जान, परिवेश को समझे बिना...
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बर्फीला रेगिस्तान कहे जाने वाले लद्दाख में पर्यटकों की हो रही मौत निश्चित रूप से चिंताजनक है

By लोकमत समाचार सम्पादकीय

बर्फीला रेगिस्तान कहे जाने वाले लद्दाख में पर्यटकों की हो रही मौत निश्चित रूप से चिंताजनक है। हालत यह है कि पिछले दो माह में फटाफट टूरिज्म का सपना देखने वाले 11 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि पिछले साल छह लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। दरअसल फिल्मों में पहाड़ों के सौंदर्य को देखकर लोग पहाड़ी परिवेश को समझे बिना ही विमानों से वहां पहुंच जाते हैं और फटाफट सैरसपाटे पर निकल जाते हैं। जबकि मैदानी इलाकों और पहाड़ी क्षेत्रों के ऑक्सीजन लेवल में बहुत फर्क होता है। यही कारण है कि कारगिल और चीन सीमा के मोर्चे पर तैनात किए जाने वाले सैनिकों को भी पहले 15 दिन लेह में रखा जाता है और उसके बाद ही आगे भेजा जाता है। लेकिन लेह पहुंचने वाले पर्यटक तत्काल 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित पैंगांग लेक, खारदुंगला व चांगला दर्रे की सैर पर निकल जाते हैं। नतीजतन एक्यूट माउंटेन सिकनेस का शिकार हो जाते हैं और उनमें से कुछ अपनी जान तक गंवा बैठते हैं।
चिंताजनक बात यह भी है कि इस बार चार धाम की यात्रा पर जाने वाले कई यात्रियों की भी मौत हो रही है। दरअसल पिछले करीब दो वर्षों तक कोरोना के प्रकोप के कारण अपने घरों में ही कैद रह जाने वाले लोग इस बार मौका मिलते ही दो साल की कसर पूरी कर लेना चाहते हैं। यही कारण है कि बद्रीनाथ-केदारनाथ जैसी दुर्गम मानी जाने वाली जगहों पर भी इस बार लाखों की संख्या में श्रद्धालु उमड़ रहे हैं। हालांकि सड़कें चौड़ी हो जाने के कारण अब चार धाम की यात्रा पहले की तरह दुर्गम नहीं रह गई है लेकिन सच्चाई यह है कि यात्रा का दुर्गम नहीं रह पाना अब पहाड़ों के लिए अभिशाप भी बनता जा रहा है।
दरअसल हिमालय के पहाड़ अभी कच्चे ही हैं और मैदानी यात्रियों के ज्यादा बोझ को सहन नहीं कर सकते हैं। भीड़ के कारण बद्रीनाथ-केदारनाथ जैसी जगहों पर जैसे यात्रियों का दम घुट रहा है वैसे ही ज्यादा यात्रियों के कारण पैदा होने वाली गर्मी से पहाड़ों का भी दम घुट रहा है। इसके अलावा पहाड़ों के परिवेश को नहीं समझ पाने वाले यात्री उनकी गरिमा का सम्मान नहीं कर पाते और अपनी आदत के अनुसार वहां भी प्रदूषण फैलाते हैं। पहाड़ों पर प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ने का यह एक बड़ा कारण है। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि यात्रियों और पहाड़ों का भी दम न घुटे तो हमें वहां की यात्रा पर जाने वालों के लिए बुनियादी प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी।
जिस तरह सैनिकों को ऊपरी इलाकों में जाने के लिए कुछ दिन लेह में ठहरना पड़ता है, वैसे ही आम नागरिकों के लिए भी ज्यादा ऊंचाई पर चढ़ने से पहले अनुकूलन को अनिवार्य किया जाना चाहिए, जहां वे वातावरण के साथ अनुकूलित हों और पहाड़ों की आत्मा का भी उन्हें परिचय मिले, ताकि वे उनका सम्मान करना सीखें। पुराने जमाने में प्राय: बुजुर्ग लोग ही चार धाम की यात्रा पर जाते थे क्योंकि मार्ग की दुर्गमता के कारण उनके लौटकर आ पाने का भरोसा घर वालों को नहीं रहता था। लेकिन इसके कारण पहाड़ों पर भीड़ नहीं जुटती थी और उनके अस्तित्व के लिए भी कोई खतरा पैदा नहीं होता था। अब तकनीक ने यात्रा को तो सुगम बना दिया है लेकिन हमें अपनी, और पहाड़ों की भी, जान बचाने के लिए अब स्वनियंत्रण की आवश्यकता बहुत ज्यादा बढ़ गई है।
Rani Sahu

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