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हाल ही में एक साल से चली आ रही दिल्ली की नाकाबंदी किसानों ने उठा ली है
चोब सिंह वर्मा, हाल ही में एक साल से चली आ रही दिल्ली की नाकाबंदी किसानों ने उठा ली है। सरकारें अपने सामान्य कामकाज में जुट गई हैं। किसानों की कई मांगें पूरी हुई हैं, लेकिन कमोबेश सभी पक्ष नुकसान में रहे हैं। सरकार को 'लॉस ऑफ फेस' हुआ, किसान एक हद तक आम जन की सद्भावना खोए और देश की छवि को भी नुकसान पहुंचा। इस पृष्ठभूमि में आज एक राजनेता बरबस याद आते हैं, वह हैं चौधरी चरण सिंह। वह 1937 में अंतरिम सरकार में एमएलए बनते ही खेती व किसानों के हित में कानून बनवाने की जुगत में जुट गए थे। मंत्री बनते ही समस्त भारत में सबसे क्रांतिकारी भूमि सुधार कानून बनवाने में उन्होंने सफलता हासिल की थी। वह अपने सतत संघर्ष, लगन और मेहनत के बल पर विधायक से प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे जरूर, लेकिन वह सोते-जागते, खाते-पीते, सोचते कृषक हित के बारे में ही थे।
तरह-तरह के कर, कटौती और शुल्क-वसूली करके स्थानीय प्रशासन व मंडी में बिचौलिया वर्ग किसानों का शोषण करते थे। तौल में गड़बड़ी, कर्दा, धर्मादा और बट्टा आदि की आड़ में खुली लूट की जाती थी, यह सब चौधरी चरण सिंह ने व्यावहारिक रूप से स्वयं देखा और महसूस किया था। हिन्दुस्तान टाइम्स के 31 मार्च,1938 और 1 अप्रैल, 1938 के अंक में उपरोक्त विषय से संबंधित दो लेख प्रकाशित कराए थे- कल्टीवेटर लूजेज 15 परसेंट थ्रू लेवीज व प्रपोज्ड लेजिस्लेशन फॉर रेगूलेशन। इन लेखों को पढ़कर संयुक्त पंजाब प्रांत के तत्कालीन राजस्व मंत्री सर छोटूराम ने लाहौर से अपने निजी सचिव टीकाराम को चौधरी चरण सिंह के पास भेजा था। विचार-विमर्श के बाद पंजाब में इन्हीं विचारों के आधार पर कुछ माह बाद कृषि विपणन संबंधी कानून बनाया गया था। विडंबना देखिए, अपने दल में ही इसका विरोध हो जाने के कारण उत्तर प्रदेश में इस कानून को पास कराने में चौधरी साहब को 1964 तक इंतजार करना पड़ा। जब वह 1964 में कृषि मंत्री थे, तब उन्होंने 'उत्तर प्रदेश कृषि उत्पादन मंडी अधिनियम 1964' नाम से मंडी व्यवस्था संबंधी कानून बनवाया था। उन्होंने महाजनों व स्थानीय सूदखोरों के कर्ज बंधन में जकड़े लाखों गरीब किसानों को कानून पारित कराकर कर्ज मुक्त कराया था।
सन 1945 में आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में बनारस में किसानों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ था। वहां चौधरी साहब ने कांग्रेस का घोषणापत्र ड्राफ्ट किया था, जिसका मकसद था उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा का अंत करना। उन्होंने सन 1947 में हाउ टु अबॉलिश जमींदारी- व्हिच अल्टरनेटिव सिस्टम टु अडॉप्ट नामक पुस्तक छपवाकर इसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। इस पर समालोचनाएं व विरोधी प्रतिक्रियाएं भी प्राप्त हुईं। इनके जवाब में उन्होंने 1948 में दूसरी पुस्तक लिख डाली अबॉलिशन ऑफ जमींदारी इन यूपी : क्रिटिक्स आन्सर्ड। अंतत: वह जीते, साल 1952 में राजस्व व कृषि मंत्री रहते हुए उन्होंने कानून के जरिये खेतिहरों को भूमि पर मालिकाना अधिकार दिला दिए। निर्धन, भूमिहीन, सदियों से जमीन के किसी टुकडे को जोतते आ रहे किसानों के हित मेें यह क्रांतिकारी कदम था।
चौधरी साहब ने 1953 में 'कृषि जोत चकबंदी अधिनियम' पारित कराया। मिट्टी के वैज्ञानिक परीक्षण की योजना भी उन्होंने ही शुरू कराई थी। भूमि हदबंदी कानून (यूपी लैंड सीलिंग ऐक्ट) भी उनकी ही देन है। किसानों के हितों की रक्षा के लिए 1959 में उन्होंने कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में प्रधानमंत्री द्वारा कॉपरेटिव फार्मिंग के पक्ष में पेश किए गए प्रस्ताव का मुखर विरोध किया था। वह प्रस्ताव मृत पत्र ही रह गया। चरण सिंह अपने जमीनी अनुभवों से जानते थे कि सामूहिक या सहकारिता वाली खेती मानवीय स्वभाव के विरुद्ध है। उन्हें विश्वास था कि सहकारी खेती से उत्पादन पर बुरा असर होगा और मुल्क दरिद्रता व अन्न संकट की ओर बढ़ जाएगा। बाद में पोलैंड, चीन और सोवियत संघ, रूस जैसे साम्यवादी देशों की सहकारी खेती के दुष्परिणाम बताते हैं कि चौधरी चरण सिंह सही थे। उन्होंने शुरू में ही यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि सत्ता में शामिल हुए बगैर कुछ हासिल नहीं हो सकता। इसीलिए वह सत्ता चाहते थे और उसे पाने के लिए उन्होंने विरोधाभाषी गठबंधन भी किए थे। फिर भी वह खालिस रूप से सत्ता के पीछे भागने वाले राजनीतिज्ञ नहीं थे। चौधरी चरण सिंह के लिए सत्ता लक्ष्य नहीं, व्यापक जनसेवा का माध्यम रही। इसीलिए एक सख्त और ईमानदार प्रशासक के रूप में उनकी ख्याति अक्षुण्ण बनी रही। वह कामचोर व भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए दु:स्वप्न की तरह थे।
सन 1970 में मुख्यमंत्री बनते ही चौधरी साहब ने कृषि उत्पादन बढ़ाने की नीति को प्रोत्साहित करने के लिए उर्वरकों से बिक्री कर हटा दिया था। 3.5 एकड़ तक की जोतों का लगान माफ कर दिया था। आजादी से पहले ही उन्होंने सरकारी सेवाओं में ग्रामीण पृष्ठभूमि वालों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की वकालत इसलिए की थी कि ऐसे अधिकारी ग्रामीणों की मुश्किलों का सही निदान कर सकेंगे। आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया जिस राजनीति के दार्शनिक थे, उस राजनीतिक दर्शन को अमलीजामा पहनाने का काम चौधरी चरण सिंह ने ही किया था। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का आज तक वास्तविक मूल्यांकन नहीं हुआ है। वह एक गंभीर अध्येता, चिंतक व अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखी थीं। इनकी एक किताब इकोनॉमिक नाइटमेअर ऑफ इंडिया : इट्स कॉजेज ऐंड क्योर (1981) देश-विदेश में चर्चित रही है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम में भी यह पुस्तक शामिल है। यह गौरव किसी अन्य हिन्दुस्तानी राजनेता को हासिल नहीं है।
चौधरी साहब ने अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन में कभी भी अपनी बातें या मांगें मनवाने के लिए सड़कें जाम नहीं की, न ही सरकारी संपत्ति की तोड़फोड़ करने दी और न कभी लोक व्यवस्था भंग की। वह उच्च शिक्षित थे, गुणी थे, सबकी लक्ष्मण रेखाएं समझते थे और उन्हीं लक्ष्मण रेखाओं के अंदर रहकर अपनी बातें या मांगें मनवा भी लेते थे। आज के किसानों में जो जज्बा, जोश, सीने में आग व एकता नजर आ रही है, उसमें चौधरी साहब का बड़ा योगदान है। किसानों और उनके नेताओं को चौधरी चरण सिंह द्वारा उनके हित में पूरे जीवनभर किए गए कार्यों को स्मरण करने के साथ ही उनकी राजनीतिक जीवन यात्रा के आदर्श मंत्र को गांठ बांधकर याद रखना चाहिए कि लोक व्यवस्था और अनुशासन बनाकर किए गए आंदोलन ज्यादा फलदायक व सफल होते हैं।
Rani Sahu
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