सम्पादकीय

आज 'पुस्तकालय दिवस' है : पढ़ने की प्रवृत्ति से ही दूर होगा पुस्तकों का संकट, बच्चे निभा सकते हैं अहम भूमिका

Neha Dani
12 Aug 2022 1:47 AM GMT
आज पुस्तकालय दिवस है : पढ़ने की प्रवृत्ति से ही दूर होगा पुस्तकों का संकट, बच्चे निभा सकते हैं अहम भूमिका
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पुस्तकालयों के बिना न ही तो पाठक-संसार बसेगा और न ही बचेगा।

आज 'पुस्तकालय दिवस' है। इसमें कोई शक नहीं है कि पुस्तकालय हमारे जीवन-निर्माण तथा व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस लिहाज से देश की कुछ राज्य सरकारें ग्रामीण स्तर पर भी पुस्तकालयों को स्थापित करने की घोषणा कर रही हैं। देश में सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थिति अच्छी नहीं है। हालत यह है कि लगभग सभी जिलों मे राजकीय जिला पुस्तकालय होने की जानकारी चंद लोगों को छोड़कर आम जनता को नहीं होती।



चंद जागरूक लोग ऐसे पुस्तकालयों में जाते भी हैं, तो पुस्तकालयाध्यक्ष के उदासीन रवैये के कारण वे सक्रिय रूप से नहीं जु़ड़ पाते हैं। अतः सरकार को वैसे लोगों को पुस्तकालयाध्यक्ष बनाना चाहिए, जो पुस्तकों एवं पाठकों के बीच एक नया रिश्ता स्थापित कर सके। पुस्तकालयाध्यक्षों को स्वयं भी इस पर विचार करना होगा कि वे कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को पुस्तकालयों से जोड़ सकते हैं।


अक्सर राजकीय जिला पुस्तकालयों में खरीदी जाने वाली किताबें प्रशासनिक स्तर पर तय होती हैं। इस प्रक्रिया में अनेक अनुपयोगी पुस्तकें खरीदी जाती हैं और पाठकों की पसंद की उपेक्षा की जाती है। इसलिए पुस्तकालयों में नई पुस्तकें मंगाने की प्रक्रिया में स्थानीय पाठकों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। बच्चे किसी भी समाज का भविष्य होते हैं।

अतः हमें कुछ ऐसे प्रयास करने होंगे, ताकि बच्चों में पढ़ने की प्रवृत्ति विकसित हो सके। इससे पुस्तकों पर छाया संकट अपने आप ही दूर हो जाएगा। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बच्चों को पुस्तकों से जोड़ने की कोई खास कोशिश नहीं हो रही है। बच्चे कोर्स की किताबों के अलावा फूहड़ कॉमिक्स ही पढ़ते हैं। हालांकि आजकल ज्यादातर बच्चे टीवी से या स्मार्टफोन से चिपके रहते हैं।

अच्छा बाल साहित्य पढ़ने में उनकी रुचि नहीं होती है। आज बड़े स्कूलों में तो पुस्तकालय हैं (भले ही स्थिति दयनीय है), लेकिन प्राथमिक स्कूलों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। अब समय आ गया है कि सरकार प्राथमिक स्कूलों में भी पुस्तकालयों की स्थापना करे। पुस्तकालयों की दयनीय स्थिति को सुधारने में 'पुस्तकालय अधिनियम' अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

हालांकि अभी 'पुस्तकालय अधिनियम' देश के कुछ ही राज्यों में पारित हुआ है। आज पुस्तकालयों में प्राण फूंकने के लिए नए पुस्तकालय-आंदोलन की आवश्यकता है। हिंदी पुस्तकों पर छाया संकट तब तक दूर होने वाला नहीं है, जब तक कि हिंदी भाषी समाज में पढ़ने की प्रवृत्ति विकसित नहीं होगी। निस्संदेह पुस्तकालय इस कार्य को बखूबी अंजाम दे सकते हैं, बशर्ते इनकी स्थिति में कोई गुणात्मक परिवर्तन हो।

सरकार कभी-कभार पुस्तकालयों के विकास की बात कहती तो है, लेकिन उसकी नीतियों में 'पुस्तकालयों का विकास' है ही नहीं। इसलिए अब समय आ गया है कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग पुस्तकालयों की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए सरकार पर दबाव डाले। पुस्तकों से मुंह मोड़ना हिंदी भाषी समाज के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। पुस्तकालयों के बिना न ही तो पाठक-संसार बसेगा और न ही बचेगा।

सोर्स: अमर उजाला

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