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पिछले दिनों चौबीस घंटों के भीतर तीन अलग-अलग ओहदे के पुलिसकर्मियों की वाहनों से कुचलकर की गई हत्याओं को क्या महज संयोग माना जाना चाहिए
विभूति नारायण राय,
पिछले दिनों चौबीस घंटों के भीतर तीन अलग-अलग ओहदे के पुलिसकर्मियों की वाहनों से कुचलकर की गई हत्याओं को क्या महज संयोग माना जाना चाहिए? यह प्रश्न इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि ये हत्याएं देश के तीन राज्यों में हुईं, जिनमें अलग-अलग दलों या गठबंधन की सरकारें हैं। शायद यही कारण था कि इन पर कोई राजनीतिक बयानबाजी नहीं हुई, पर यह भी नहीं हुआ कि इन्हें लेकर विधायी सदनों या मीडिया में कोई गंभीर बहस हुई हो।
हरियाणा में नूह के निकट पुलिस उपाधीक्षक सुरेंद्र सिंह बिश्नोई, झारखंड की राजधानी रांची में महिला सब-इंस्पेक्टर संध्या टोपनो और गुजरात के आणंद जिले में कांस्टेबल किरण राज ड्यूटी के दौरान मारे गए। तीनों दुर्घटनाओं की परिस्थितियां एक जैसी ही थीं। तीनों में अपराधी तेज रफ्तार वाहनों में भागने की कोशिश कर रहे थे, तीनों में मौके पर मौजूद पुलिस वालों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया और तीनों ही जगह ड्राइविंग सीट पर बैठे दुस्साहसिक चालकों ने उन्हें कुचल दिया। एक बात स्पष्ट है, जाहिरा तौर पर इन घटनाओं में आपस में कोई संबंध न होते हुए भी समाजशास्त्र के किसी गंभीर विद्यार्थी को इनमें बडे़ दिलचस्प अंतरसंबंध मिल सकते हैं।
सबसे पहले हमें पिछले सात दशकों में पुलिस और जन-सामान्य के रिश्तों में आए बदलाव को समझना होगा। आजादी के पहले पुलिस और जनता के बीच के रिश्ते कुछ वैसे ही थे, जिनकी किसी औपनिवेशिक समाज में अपेक्षा की जा सकती है। उन दिनों हिंदीभाषी इलाकों की लोककथाओं या लोकगीतों में एक मुहावरा जनता की जुबान पर चढ़ा हुआ मिलता है, जिसके अनुसार, गांव में खाकी पगड़ी दिखते ही पूरा गांव खाली हो जाता था और लोग आसपास के जंगलों में भाग जाते थे। बाद के कुछ दशकों तक इस स्थिति में कोई उल्लेखनीय बुनियादी फर्क नहीं पड़ा। स्वाभाविक था, एक नए बन रहे लोकतांत्रिक समाज में जनता बहुत दिनों तक पुलिस से अपने ऐसे रिश्ते नहीं स्वीकार कर सकती थी। परिवर्तन शुरू हुए, पर बहुत धीरे-धीरे। मैंने उत्तर प्रदेश के एक मुख्यमंत्री को एलानिया कहते सुना है कि पुलिस का इकबाल तो उसकी हनक से कायम होता है। यह वही हनक है, जिसके चलते जनता गांव छोड़ जंगलों में भाग जाती थी। यह अलग बात है, लोकतंत्र के चलते सार्वजनिक रूप से इस सोच का समर्थन करने वाले कम होते गए हैं।
इन दुर्घटनाओं के पीछे सबसे पहले हमें इसी मानसिकता को समझना होगा। हमारा औसत पुलिसकर्मी क्या अब भी यह नहीं सोचता कि उसके तन पर खाकी देखते ही अपराधी जड़ हो जाएगा और अपना वाहन बंद कर देगा? वह भूल जाता है कि अब यथार्थ बदल चुका है। वाहनों के इंजन ज्यादा ताकतवर हैं और उन्हें चलाने वाले व्यक्ति के मन से पुलिस का पारंपरिक खौफ खत्म हो चुका है। तीनों घटनाओं में अतिरिक्त आत्मविश्वास से लबरेज पुलिसकर्मी इसी भ्रम में मारे गए कि उनके इशारा करते ही वाहन रुक जाएंगे।
किसी वर्दीधारी संगठन में, जिसे हथियार दिए गए हैं, प्रशिक्षण सबसे महत्वपूर्ण होता है। सेना मेें तो हर यूनिट की दीवार पर एक उद्धरण लिखा दिखता है, जिसका संदेश है कि प्रशिक्षण में जितना पसीना बहाया जाएगा, युद्धक्षेत्र में उतना ही खून बचेगा। दुर्भाग्य से पुलिस में सबसे उपेक्षित क्षेत्र प्रशिक्षण ही है। ऊपर वर्णित तीनों घटनाओं का गहराई से अन्वेषण किया जाए, तो सिखलाई की कमियां बड़ी स्पष्ट दिखेंगी और बिना सही सिखलाई के सशस्त्र बलों की कोई टुकड़ी किसी भीड़ से बेहतर नहीं होती।
पुलिस और कानून-व्यवस्था संविधान के अनुसार, राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाला विषय है। राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारेें आती-जाती रही हैं, पर यह बिना अपवाद कहा जा सकता है कि किसी भी दल के लिए पुलिस प्रशिक्षण महत्वपूर्ण नहीं रहा है। अमूमन प्रशिक्षण केंद्रों पर बतौर सजा नियुक्तियां की जाती हैं और बिना रुचि वाले अधिकांश प्रशिक्षक अपने प्रशिक्षुओं को कितना पेशेवर बना पाते होंगे, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
मानक संचालन प्रक्रिया या एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर), एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसका इन तीनों घटनाओं में उल्लंघन हुआ दिखता है। एसओपी किसी अनुशासित समूह के लिए इसलिए भी आवश्यक है कि उसकी कोई भी कार्रवाई शून्य में नहीं होती। हर क्रिया पर समूह के किसी अन्य सदस्य को भी हरकत करनी होती है, इसीलिए एक एसओपी बनाई जाती है। हरियाणा के किसी भी जिले में अवैध खनन पर छापा मारने के पहले पुलिस कंट्रोल रूम या किसी उच्चाधिकारी को सूचित करना एसओपी का हिस्सा होगा, ताकि जरूरत पड़ने पर आवश्यक बल भेजे जा सकें। जितनी जानकारियां सार्वजनिक हुई हैं, उनसे तो लगता नहीं कि इस जरूरी प्रक्रिया का पालन किया गया। खबरों के अनुसार, पुलिस उपाधीक्षक अवैध खनन की सूचना मिलते ही कुछ सहकर्मियों के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए। बिल्कुल ऐसे ही महिला सब इंस्पेक्टर ने पशु तस्करी के आरोपी ट्रक को अकेले दम पर रोकने का प्रयास किया। कांस्टेबल किरण ने ट्रक को क्यों रोकना चाहा, यह स्पष्ट नहीं है, पर उन्होंने भी पेशेवर आचरण का उल्लंघन किया। मुमकिन है, समय की कमी या गोपनीयता की वजह से इन पुलिसकर्मियों ने जरूरी सावधानियां न बरती हों, पर इतना तो प्रथम दृष्टया साफ है कि सामान्य सी एसओपी का पालन किसी में नहीं किया गया।
हमें थोडे़-थोडे़ अंतराल पर पुलिसकर्मियों की ऐसी अस्वाभाविक मृत्यु की खबरें मिलती रहती हैं, पर एक छोटी सी अवधि में अलग-अलग प्रदेशों में तीन पुलिसकर्मियों की हत्या विचलित करने वाली है। ये घटनाएं पुलिस प्रशिक्षण की खामियों और पुलिस को बेहतर पेशेवर संस्था बनाने की जरूरत को रेखांकित करती हैं। अभी तक तो इन दुर्घटनाओं पर कोई गंभीर बहस होती दिख नहीं रही है। क्या नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली संस्था 'पुलिस' में घटी इतनी बड़ी दुर्घटनाओं में नागरिकों की इतनी कम दिलचस्पी चिंताजनक नहीं है? या आम नागरिक पुलिस वालों की जिंदगी को इतना महत्व भी नहीं देते कि 24 घंटों के भीतर अकाल काल कवलित हुई तीन बेशकीमती जिंदगियों के लिए कुछ देर ठहरकर सोचें कि ऐसा क्यों कर हुआ और ऐसे उपाय करें कि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो।
Rani Sahu
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