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जलवायु परिवर्तन पर खतरे की घंटी को सुनने की जरूरत, खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं हम
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | डा. सुरजीत सिंह। इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की नई रिपोर्ट मानव जगत के लिए एक चेतावनी है कि अब भी समय है, जब धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए एकजुट हुआ जा सकता है। आज यह हमारी जरूरत नहीं, बल्कि एक अनिवार्यता भी है। पिछले कुछ महीनों में धरती के अलग-अलग हिस्सों में लोगों ने प्रकृति के जिस रौद्र रूप को देखा, वह अप्रत्याशित नहीं है, बल्कि मानव के अनियोजित विकास के प्रति प्रकृति की नाराजगी है। यह मानव जाति के लिए एक खतरे की घंटी के समान है। रिपोर्ट बताती है कि अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिग है, जिसके जिम्मेदार मानव निर्मित कारक ही हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण मौसमी घटनाओं में वृद्धि के साथ-साथ वर्षा के बदलते पैटर्न ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। विज्ञान ने भी इस बात की पुष्टि कर दी है कि आज हम एक खतरनाक मोड़ पर हैं। पिछले दो दशकों में आने वाले चक्रवातों की आवृत्ति ही नहीं बढ़ी है, बल्कि उनकी सघनता एवं गहनता भी बहुत बढ़ गई है। सामान्यत: अरब सागर की तुलना में बंगाल की खाड़ी में अधिक चक्रवात आते थे, परंतु 2001-2019 तक अरब सागर में 52 प्रतिशत अधिक चक्रवात आए हैं। बंगाल की खाड़ी में आने वाले चक्रवातों में आठ प्रतिशत की कमी आई है। चक्रवातों के आने की आवृत्ति में भी 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इससे हवा में अधिक नमी हो जाने के कारण बारिश की मात्र एवं आवृत्ति भी बढ़ गई है।
विकास की अंधी दौड़ में मानव ने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। उद्योगीकरण, शहरीकरण एवं वनोन्मूलन के कारण अधिक कार्बन उत्सर्जन से 20वीं सदी में पृथ्वी का तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जिसमें 0.6 डिग्री सेल्सियस पिछले तीन दशकों में बढ़ा है। आइपीसीसी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2030 से 2040 के बीच औसत वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगा। उल्लेखनीय है कि विश्व की कुल कार्बन डाईआक्साइड का 28 प्रतिशत चीन, 15 प्रतिशत अमेरिका, सात प्रतिशत भारत और पांच प्रतिशत रूस उत्सर्जन करते हैं। कार्बन उत्सर्जन की दर को यदि नहीं रोका गया तो पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से जलवायु परिवर्तन पर बहुत भयंकर प्रभाव पड़ सकते हैं, जिन्हें रोकना मानव के बस में नहीं रहेगा।
ग्लोबल वार्मिग से आर्कटिक क्षेत्र में तापमान बाकी दुनिया से दो से तीन गुना ज्यादा बढ़ रहा है। आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ लगातार पिघल रही है। शीतोष्ण या भूमध्यरेखीय क्षेत्रों की तुलना में ठंडे क्षेत्र तेजी से गर्म हो रहे हैं। पिछले 60 वर्षो में अलास्का लगभग तीन डिग्री फारेनहाइट गर्म हो गया है। साइबेरिया में लैपटेव सागर लगभग बर्फ मुक्त हो चुका है। समुद्र की बर्फ पिघलने के बेहद गंभीर परिणाम हो सकते हैं। सूर्य का ताप जब इस बर्फ से टकराकर वापस लौटता है तो पृथ्वी के औसत तापमान के संतुलन को बनाए रखने में मदद करता है। बर्फ पिघलने की स्थिति में समुद्र सीधे सूर्य के ताप को सोखने लगते हैं, जिससे उनका तापमान बढ़ने लगता है। इससे आने वाले वर्षो में चक्रवातों एवं सुनामी की आवृत्ति में और वृद्धि हो जाएगी।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार 2 डिग्री सेल्सियस तापमान में वृद्धि होने की स्थिति में बर्फ-मुक्त ग्रीष्मकाल 20 गुना अधिक होने के आसार हैं। 2050 तक दक्षिण-पूर्व संयुक्त राज्य अमेरिका में 32.2 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के 40 से 50 दिनों का अतिरिक्त अनुभव होने की उम्मीद है। इसके साथ ही विश्व भर में पेयजल संकट, दावानल, सूखा एवं अकाल, गर्म हवाएं, बेमौसम भारी बारिश आदि में बढ़ोतरी हो जाएगी। ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ जाएगा। तटीय इलाकों के डूबने से इस सदी के अंत तक दुनिया के 20 करोड़ लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण आशंकित सूखे से सभ्यताएं भी बदल सकती हैं। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक भारत को 1.2 टिलियन (लाख करोड़) डालर का नुकसान हो सकता है। इसके और भी घातक परिणाम होंगे।
जलवायु परिवर्तन की घटनाओं को देखते हुए हमें अपने आर्थिक स्वार्थो को छोड़कर जनकल्याण एवं विश्वकल्याण के बारे में सोचना चाहिए। इसके लिए सभी बड़ी अर्थव्यस्थाओं को इस दिशा में एक साथ कार्य करने की जरूरत है। दुनिया को मिलकर कार्बन उत्सर्जन को कम करने पर अधिक ध्यान देना होगा। जितना धन हम जलवायु परिवर्तनों के प्रभावों से निपटने में लगाते हैं, यदि वही धन ग्लोबल वार्मिग को रोकने पर व्यय किया जाए तो उसके सकारात्मक परिणाम होंगे। कम कार्बन उत्सर्जन की तरफ जाने से ग्रीन अर्थव्यवस्थाओं का विकास होगा। ऊर्जा के वैकल्पिक स्नेतों पर अधिक निवेश होगा। साथ ही प्रौद्योगिकी को बढ़ावा मिलने से रोजगार भी बढ़ेगा। तकनीकी एवं सामाजिक मुद्दों में समन्वय आज की एक बड़ी आवश्यकता है। सतत विकास में जलवायु परिवर्तन को शामिल करने से न सिर्फ देशों के बीच, बल्कि राज्य एवं स्थानीय स्तर पर भी लोगों की समझ बढ़ेगी। इसे एक अलग विषय के रूप में मानने पर लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते। जीवाश्म ईंधन को जलाना, वनों की कटाई, उद्योगीकरण, प्रदूषण, कार्बन एवं मीथेन उत्सर्जित करने वाले उपकरणों आदि से आम आदमी के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसके लिए भी जागरूकता को बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ पर्यावरण क्रांति को आज का मंत्र बनाने की जरूरत है।
आज भले ही हम जलवायु परिवर्तन के छोटे प्रभावों से प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन यदि समय रहते इस विषय में गंभीरता से नहीं सोचा गया तो हम सभ्यता को विनाश के मुहाने तक ले जाएंगे, जहां सिर्फ महामारियों और विनाश का ही मंजर होगा।