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- फिर मुर्गी का अंडा...
सोशल मीडिया की डिबेट से पहले भी जंगल की बहस तीखी, नाजुक और समवेत स्वर मेंे उच्चारण करती थी और इसीलिए अब कई जहीन लोग सोशल मीडिया को अपने कौशल से जंगल बना देते हैं। ऐसे जंगली संवाद पर ताली और इसकी ताल ठीक वैसी ही है, जैसी जंगल में नाचते मोर की होती है। सोशल मीडिया की चीखों से अब जंगली व पालतू प्राणियों में भी उत्साह का सृजन होने लगा है। अचानक एक दिन मुर्गी का आत्मविश्वास इस कद्र जाग गया कि वह अपने फूटे अंडे में 'शेरू' ढूंढने लगी। यानी उसे यह विश्वास था कि अब उसके अंडे से ही शेर पैदा होंगे। दरअसल उसे यह भनक सोशल मीडिया से लगी थी, जहां हर दिन अंडे फोड़कर कोई न कोई शेर सिंह बनने की कोशिश करता है। उसे मुर्गे ने समझाया कि आज तक हमारी औलाद 'मुर्गा सिंह' तक नहीं हो सकी, तो क्या अब शेर सिंह मुर्गी के अंडे से पैदा होंगे। मुर्गी मानने वालों में से नहीं थी। उसने भारतीय लोकतंत्र से यही सीखा था कि मान गए, तो कुछ नहीं मिलेगा और नहीं मानें तो हर कुछ मिलेगा। अब यह मुर्गी की प्रतिष्ठा और जिद्द थी कि सारे प्राणी मानें कि उसके अंडे से ही शेर निकल सकता है। उसने अंतरराष्ट्रीय खबरें तक सुन रखी थीं, जहां उसे हर राष्ट्राध्यक्ष किसी मुर्गी से अधिक नहीं लग रहा था। उसके लिए रूस व यूक्रेन युद्ध भी अंडे फूटने जैसा था। वह कभी पुतिन के पक्ष में फटा अंडा देखती, तो कभी यूक्रेन के अंडों को निहारती। यह युद्ध दरअसल होता ही फूटे अंडे से शेर को निकालने जैसा।