सम्पादकीय

पंछियों का संसार और हम: विलुप्त होने की कगार पर कई गिद्ध प्रजातियां

Neha Dani
7 Sep 2022 5:26 AM GMT
पंछियों का संसार और हम: विलुप्त होने की कगार पर कई गिद्ध प्रजातियां
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एक कड़क सर्द दुपहरी को, राजस्थान और मध्य प्रदेश के सीमा के बीच चलने वाली चम्बल नदी के नालों पर, सूर्य के स्वर्ण किरणों से मानो आग सी लगी थी। रेत के किनारे और चट्टान की सतहों पर मगर, घड़ियाल धूप का आनंद ले रहे थे और नद-कछुए चंबल की सुरक्षा में आलसपूर्ण तैराकी कर रहे थे। तभी सफारी नाव के पहुँचने से उनकी निर्धारित सुरक्षित सीमा कि दूरी भांग सी हो गई। इन्हीं नालों के किनारे एक रेशमी-सूती के ऊँचे पत्ते झड़े हुए पेड़ पर, मिस्र देशीय गिद्धों का एक समूह बैठा था। उनमें से एक नर और एक किशोर गिद्ध एकाएक उड़ निकले और चम्बल और उसके नालों पर एक के बाद एक बढ़ते हुए संकिंद्रिक चक्रों में उड़ान भरने लगे।




कदाचित, अत्यंत सर्द रात्रि से पहले, यह उनके लिए भोजन कर निश्चिंत होने का समय था। लगता था जैसे, आकाश से उनकी तीक्ष्ण निगाहें भोजन के लिए नीचे बीहड़ बेरंग नालों को तलाश रही हों। तय रूप से गिद्धों का आहार मृत जानवरों का मांस होता है, और ऐसे समय में यह सरलता से माना जा सकता है कि मृत मवेशी इन गिद्धों के लिए एक सहज भोजन का उपाय होंगे। किन्तु सन 1990 से ही, इस इलाके में गिद्ध होना आसान नहीं रहा है। एक अबोध गिद्ध के लिए, इस इलाके में खाया गया पशु अवशेष, उसका अंतिम भोजन साबित हो सकता है।
गिद्धों की स्थिति और मूल्य
रामायण के प्रसिद्ध पात्र जटायु के समय से ही, गिद्धों ने भारतीय लोकनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान पाया है। यद्यपि देश-स्तरीय दीर्घकालिक जनसंख्या अनुमान शायद ही उपलब्ध हों, भारत में 1990 के दशक की शुरुआत तक लाखों गिद्ध थे।

भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती हैं- सफेद दुम वाले जिप्स बेंगालेंसिस, लंबे चोंच वाले जी. इंडिकस, पतले चोंच वाले जी. टेनुइरोस्ट्रिस, लाल सिर वाले सरकोजिप्स कैल्वस, मिस्र देशीय गिद्ध नियोफ्रॉन पर्कनोप्टेरस, हिमालयन ग्रिफॉन जिप्स हिमालयेंसिस, सिनेरस गिद्ध एजिपियस मोनाचस, दाढ़ी वाले गिद्ध जिपेटस बारबेटस और यूरेशियन ग्रिफॉन जिप्स फुल्वस। इन नौ प्रजातियों में से, विश्व स्तर पर सफेद दुम वाले जिप्स बेंगालेंसिस को सबसे सामान्य बड़ा रैप्टर माना जाता था।


मवेशियों के मृत शव का सेवन करने के कारण गिद्ध हमारे परिवेश को स्वच्छ रखने का एक अमूल्य पारिस्थितिकी तंत्र रहे हैं। इसी के साथ मनुष्य जाति को महामारी और नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों पर नियंत्रण पाने में भी सहायता मिल जाती है। यूरोपीय संदर्भ में यह पाया गया है कि, गिद्ध सड़े हुए मृत जानवरों के शरीर का भक्षण करने के माध्यम से सालाना लगभग 1,600,000 यूरो (लगभग INR 13.40 करोड़) तक की सेवाएं प्रदान करते हैं।

भोजन के लिए गिद्ध, जंगली/आवारा कुत्तों से भी प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिससे कुत्तों की आबादी पर अनायास ही नियंत्रण रखने में योगदान मिल जाता है। भारत में, 1990 के दशक के मध्य से ही गिद्धों की आबादी में गिरावट के साथ-साथ, जंगली कुत्तों की आबादी में भारी वृद्धि देखी गई है, जिसने संभावित रूप से अधिक लोगों को कुत्ते के काटने और रेबीज के खतरे में डाल दिया गया।
2008 में एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया कि गिद्धों की आबादी में एक इकाई की वृद्धि, कुत्तों की आबादी में लगभग सात इकाइयों की गिरावट का परिणाम देती है। इसी अध्ययन ने विश्लेषण किया कि भारत में करीब दस लाख कुत्तों के काटने से, क्रमशः 538.1 मिलियन रुपये सब्सिडी वाले और 3,956 मिलियन रुपये बिना सब्सिडी वाले रेबीज वैक्सीन की ज़रूरत होती है।



भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों की आबादी में बड़ी गिरावट को देखते हुए, भारत सरकार ने 2006 में डाइक्लोफेनाक पर प्रतिबंधन लगा दिया था।
भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों की आबादी में बड़ी गिरावट को देखते हुए, भारत सरकार ने 2006 में डाइक्लोफेनाक पर प्रतिबंधन लगा दिया था। - फोटो : अभिषेक घोषाल
विलुप्त होने के कगार पर कई प्रजातियां
1990 के दशक के मध्य से 2007 के दौरान, 99.9% सफेद दुम वाले गिद्ध गायब हो गए और अब भारत में उनकी संख्या केवल 6,000 रह गई है। इस गंभीर रूप से लुप्तप्राय गिद्ध को अब "क्रिटिकली ऐनदेनजर्द" प्राणी के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसी तरह की बदकिस्मती का सामना लम्बे बिल वाले गिद्धों को भी करना पड़ा, जिसकी आबादी में लगभग 97% की भारी गिरावट देखी गई। अब अनुमानित है कि केवल 30,000 लम्बे बिल वाले गिद्ध शेष हैं। इस कारण इन्हें भी "क्रिटिकली ऐनदेनजर्द" प्राणियों की गिनती में रखा गया है।

यही कहानी पतले बिल वाले गिद्धों के संग भी घटित हुई और अब इनके केवल 1200 की संख्या का अनुमान है, अतः इन्हें भी "क्रिटिकली ऐनदेनजर्द" कि श्रेणी में गिना जाने लगा। शेष छह भारतीय प्रजातियों के गिद्धों के लिए कोई भी विश्वसनीय जनसंख्या अनुमान उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि, वैश्विक अनुमान कि मानें तो, उनमें से कम से कम चार के लिए एक गंभीर परिदृश्य संभव है।
पीड़ाहारी दवाओं के प्राणहारी दुष्प्रभाव
भारत दुनिया में मवेशियों की आबादी वाला सबसे बड़ा देश है। भारत के पशुधन का एक बड़ा हिस्सा - गाय, भैंस आदि हैं। मवेशी दूध, मांस, चमड़ा का साधन होने के साथ-साथ प्रारूप के रूप में भी उपयोगी हैं। 1990 के दशक के मध्य से, डाइक्लोफेनाक नामक एक गैर-स्टेरायडल एंटी-इंफ्लामेटरी दवा (एन एस ए आई डी) मवेशियों के इलाज के लिए उपयोग में ली जाने लगी। खतरे कि शुरुआत तब होती है जब उपचार के दौरान ही मवेशी मर जाते हैं और गिद्ध उसी मृत मवेशी के शव का भक्षण करते हैं। 2004-2005 तक, कई वैज्ञानिक प्रकाशनों ने माना कि डाइक्लोफेनाक गिद्धों की मृत्यु और उनकी जनसंख्या में गिरावट का मुख्य कारण रहा है।

मरे हुए मवेशियों के ऊतकों में बचा हुआ डाइक्लोफेनाक जब गिद्ध, मांस के साथ खा लेते हैं, तब वह जहर का काम करता है। कम खुराक पर भी यह दवा गिद्धों में गुर्दे की गंभीर क्षति का कारण बनती है। पोस्टमॉर्टम में पाया गया कि इस दवा की वजह से गिद्धों को आंत के गाउट (ऊतकों में यूरिक एसिड का जमा होना) और किडनी में नेक्रोसिस हो जाता है। जाने अनजाने में लाखों गिद्धों कि मौत हुई है, या यूं कहें कि उनकी हत्या हुई है, भले ही भूल पूर्वक और अनजाने में।
हत्यारों संग लुका-छुपी

भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों की आबादी में बड़ी गिरावट को देखते हुए, भारत सरकार ने 2006 में डाइक्लोफेनाक पर प्रतिबंधन लगा दिया था। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की सिफारिश पर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डी सी जी आई) ने डाइक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग को बंद कर दिया।

समानांतर रूप से, गिद्ध संरक्षण कार्य योजना (ए पी वी सी) के माध्यम से, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बी एन एच एस) और रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स (आर एस पी बी) द्वारा समर्थित पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने गिद्धों को विलुप्त होने से बचने के लिए एक महत्वाकांक्षी गिद्ध संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम की स्थापना की, जिसमें भारतीय उपमहाद्वीप के चुनिंदा जिप्स गिद्धों की संख्या को पुनर्जीवित किया जा सके।

डाइक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगने के बावजूद, इस जहरीली दवा से दूषित मवेशी शवों से पर्यावरण मुक्त नहीं हो पाया। पुनः, नौ वर्षों के बाद, 2015 में, डाइक्लोफेनाक के बहु-खुराक वाले मानव-उपयोग शीशियों पर 3ml की उच्चतम सीमा निर्धारित कर दी गई, जिससे कि पशु चिकित्सा उद्देश्यों के लिए इनके दुरुपयोग को हतोत्साहित किया जा सके। साल 2015 के बाद से, सर्वेक्षणों में पाया गया कि पर्यावरण में डाइक्लोफेनाक की उपस्थिति में धीरे-धीरे गिरावट देखी गई है, जो एक अच्छी खबर है।

पूरे दक्षिण एशिया में पशु चिकित्सा उपयोग में कम से कम 14 अन्य एनएसएआईडी हैं जिनमें से, एसिक्लोफेनाक विशेष रूप से चिंता का विषय है, क्योंकि यह डाइक्लोफेनाक की एक समर्थक दवा है। मवेशियों को एसिक्लोफेनाक से उपचारित करने के बाद, यह मवेशियों के शरीर में उपचार के कुछ ही घंटों के भीतर लगभग पूरी तरह से डाइक्लोफेनाक में परिवर्तित हो जाता है। और गिद्धों के मृत्यु प्राप्त होने कि प्रक्रिया जारी रह जाती है।

निमेसुलाइड, केटोप्रोफेन, कारप्रोफेन और फ्लुनिक्सिन नमक दूसरे अन्य एन एस ए आई डी ड्रग्स के साथ भी यही समस्या है। फ़िलहाल केवल दो दवाओं, मेलोक्सिकैम और टॉल्फेनैमिक एसिड के मूल्यांकन में उन्हें गिद्धों के लिए सुरक्षित पाया गया है।
गिद्धों की आबादी की स्थिरता और उनके सुधरने की राह में, हमारे देश के लिए एक बाधा बनी रह सकती हैं।
अनिवार्य सुरक्षा परीक्षण
हमारे लिए यह मानना महत्वपूर्ण है कि कुछ दवाएं, चाहे वह मानव या पशु चिकित्सा उपयोग के लिए हों, अपने चिकित्सकीय रूप से स्वीकार्य प्रभाव के साथ कुछ दुष्प्रभाव भी देती हैं। अक्सर यह तथ्य अनदेखा कर दिया जाता है कि यही दवाएं, विशेष रूप से जब अनुशंसित खुराक से अधिक व्यापक रूप से प्रशासित होती हैं, तब द्वितीय या तृतीयक ट्राफिक स्तरों पर गंभीर स्वास्थ्य प्रभाव (या बदतर) दे सकती हैं।
पशु चिकित्सा एनएसएआईडी के मामले में शुरुआत में, वन्यजीवों की प्रजातियों, विशेष रूप से मृत पशु मांस खाने वाली प्रजातियों पर किसी भी संभावित प्रभाव के लिए सुरक्षा-परीक्षण दवाओं का पहलू काफी हद तक सीमित ही था। 1990 के दशक के मध्य से डाइक्लोफेनाक के कारण गिद्धों की आबादी के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद भी, मृत पशु मांस खाने वाली प्रजातियों पर वैकल्पिक दवाओं के सुरक्षा-परीक्षण को अभी भी प्राथमिकता के रूप में माना जाना शेष है। बाजार में स्वतंत्र रूप से उपलब्ध पशु चिकित्सा एनएसएआईडी में से केवल कुछ की गिद्ध-विषाक्त (जैसे, एसिक्लोफेनाक, केटोप्रोफेन और निमेसुलाइड) होने की पुष्टि की गई है।

भले ही इनमें से एक या अधिक दवाओं पर निकट भविष्य में प्रतिबंध लगा दिया जाए, अन्य दवाएँ जैसे कि फ्लूनिक्सिन, कैप्रोफेन, इबुप्रोफेन, फेनिलबुटाज़ोन, आदि, गिद्धों की आबादी की स्थिरता और उनके सुधरने की राह में, हमारे देश के लिए एक बाधा बनी रह सकती हैं। इसका सीधा असर यह भी है कि, मृत जानवरों के अवशेषों की साफ़ सफाई का आर्थिक बोझ समाज और सरकार को ही धोना पड़ता है और आगे भी पड़ेगा। साथ ही साथ, कुत्तों की बढ़ती आबादी का प्रतिबंधन, कुत्तों का मनुष्यों पर आघात और उससे फैलती रेबीज जैसी बिमारियों का भी आर्थिक भार बढ़ेगा।
इस स्थिति के समाधान हेतु, भारत के नए एपीवीसी में उल्लेख किया गया है कि-
मौजूदा (वे दवाएं जिनका अभी तक सुरक्षा परीक्षण होना बाकी है) और आने वाली पशु चिकित्सा दवाओं का सुरक्षा परीक्षण कम से कम मृत पशुओं का मांस खाने वाले जानवरों के लिए संस्थागत रूप से करने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार, अनुसंधान संस्थानों और पशु चिकित्सा दवा उद्योग में संबंधित अधिकारियों को पशु चिकित्सा एनएसएआईडी के सुरक्षा परीक्षण के दायरे में मृत पशुओं का मास खाने वाले जानवरों को शामिल करने के लिए हाथ मिलाना चाहिए।

संभवतः, तब भविष्य में आने वाले पशु चिकित्सा दवाओं से मृत पशुओं का मास खाने वाले जानवरों की भूल से होने वाली क्षति को रोका जा सकेगा।
प्रजनन केंद्रों और उन क्षेत्रों के आसपास गिद्धों की रिहाई के लिए गिद्ध सुरक्षित क्षेत्रों की पहचान की गई है जहां अभी भी गिद्धों की आबादी मौजूद है।
विलुप्त होने के खिलाफ लड़ाई जारी है-

2006 में डिक्लोफेनाक पर प्रतिबंध, 2008 में राजपत्रित, भारतीय उपमहाद्वीप में गिद्धों के भविष्य की सुरक्षा की दिशा में भारत सरकार द्वारा उठाया गए निर्णायक कदम, मील का पत्थर थे। साथ ही, विलुप्त होने का सामना कर रहे गिद्धों की प्रजातियों के कैप्टिव ब्रीडिंग की शुरुआत बीएनएचएस द्वारा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और हरियाणा राज्य सरकार के समर्थन से की गई थी।

पिंजौर, हरियाणा में जटायु गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र से शुरू होकर, तीन और केंद्र राजाभटखावा (पश्चिम बंगाल), गुवाहाटी (असम) और भोपाल (मध्य प्रदेश) में स्थापित किए गए। केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (सीजेडए) ने इन पहलों को सुगम बनाया। तीन गंभीर रूप से लुप्तप्राय "क्रिटिकली एनदेनजर्द" गिद्धों की प्रजातियों का सफल कैप्टिव ब्रीडिंग पहली बार संभव किया गया है, जिसमें प्रजनन केंद्रों में 700 से अधिक कैप्टिव गिद्ध हैं।

प्रजनन केंद्रों और उन क्षेत्रों के आसपास गिद्धों की रिहाई के लिए गिद्ध सुरक्षित क्षेत्रों की पहचान की गई है जहां अभी भी गिद्धों की आबादी मौजूद है। इन क्षेत्रों की निगरानी उन्हें गिद्ध-विषाक्त एनएसएआईडी से मुक्त रखने के लिए की जाती है, जहाँ गिद्धों की आबादी स्थिर होती है, घटती नहीं है।

उपरोक्त कथनी के बावजूद, कैप्टिव ब्रीडिंग से पैदा हुए गिद्धों को फ़िलहाल जंगल में छोड़ना सुरक्षित नहीं हैं। यह पर्यावरण में गिद्ध-विषाक्त एनएसएआईडी के उच्च प्रसार के कारण है। जब तक गिद्धों के खाद्य स्रोत जहरीली दवाओं से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक बंदी नस्ल के गिद्धों को वापस जंगल में छोड़ने का मतलब मृत्यु दर का उच्च जोखिम होगा। इसलिए यह जरूरी है कि संबंधित सरकारी प्राधिकरण और राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर दवा निर्माता गिद्ध-विषाक्त एनएसएआईडी के साथ अधिक संवेदनशील और सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाएँ और पुनर्विचार करें।

डाइक्लोफेनाक के समान, शेष गिद्ध-विषाक्त एनएसएआईडी पर पूर्ण प्रतिबंध अगला तार्किक कदम होना चाहिए, साथ ही मानव योगों के दुरुपयोग से बचने के लिए शीशी के आकार के प्रतिबंध को 3ml आकार से अधिक नहीं होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर-
बांग्लादेश सरकार ने गिद्ध-विषाक्तता के कारण 2021 में केटोप्रोफेन पर पहले ही प्रतिबंध लगा दिया है। 2015 में, तमिलनाडु सरकार के पशुपालन और पशु चिकित्सा सेवा निदेशालय ने नीलगिरी, इरोड और कोयंबटूर जिलों में केटोप्रोफेन के उपयोग को रोक दिया।


एक विकल्प के रूप में, बाजार में मौजूदा एनएसएआईडी में से, मेलॉक्सिकैम और टॉल्फेनैमिक एसिड फॉर्मूलेशन को व्यापक रूप से बढ़ावा देने और पशु चिकित्सकों द्वारा पशु उपचार उद्देश्यों के लिए उपयोग करने की आवश्यकता है। इन दवाओं का मूल्यांकन गिद्ध-सुरक्षित होने के लिए किया गया है और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीति दस्तावेजों में अनुशंसित हैं। जैसे कि भारत सरकार के ए पी वी सी (2020-2025) और अफ्रीकी-यूरेशियन गिद्धों के संरक्षण के लिए प्रवासी प्रजातियों की बहु-प्रजाति कार्य योजना पर सम्मेलन (कन्वेंशन ऑन माइग्रेटरी स्पीशीज मल्टी स्पीशीज एक्शन प्लान टू कंज़र्व अफ्रीकन-यूरेशियन वुल्चर्स)।

यह अत्यधिक जरूरी है की हम याद रखें कि, स्वस्थ मवेशी हमारे लिए जितने जरूरी हैं, उतना ही जरूरी है कि गिद्ध भी स्वस्थ रहें, ताकि मृत मवेशियों के शवों की सफाई होती रहे। हम अपने मवेशियों की चिकित्सा जिस प्रकार करने का निर्णंय लेते हैं, वह ऐसा होना चाहिए कि चम्बल के नालों पर उड़ान भरते मिस्र देशीय गिद्ध और अन्य सभी गिद्ध, जिनके लिए मवेशी का मृत शव भोजन है, कभी उसके चिकित्सा दवा से विषाक्त न हो जाएं।
नोट: यह लेख चार लेखकों द्वारा तैयार किया गया है।
अभिषेक घोषाल, संरक्षण वैज्ञानिक और गिद्ध संरक्षण नीति के प्रमुख, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस)
विभु प्रकाश, प्रमुख वैज्ञानिक और गिद्ध कार्यक्रम के प्रमुख, बीएनएचएस
क्रिस्टोफर बोडेन, ग्लोबली थ्रेटड स्पीशीज़ ऑफिसर, रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स (आरएसपीबी); कार्यक्रम प्रबंधक, सेविंग एशिया'स वुल्चर्स फ्रॉम एक्सटिंक्शन (एस ए वी ई) और सह-अध्यक्ष, आईयूसीएन गिद्ध विशेषज्ञ समूह
बिवाश पांडव, निदेशक, बीएनएचएस
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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

सोर्स: अमर उजाला

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