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सोर्स- जागरण
डा. मुनीश रायजादा : भारतवर्ष आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद 2047 तक विकसित देश बनने के लक्ष्य की ओर देख रहा है। ऐसे में 75 वर्ष की उपलब्धियों पर गर्व करने के साथ लोकतंत्र की स्थिति का आकलन करना भी महत्वपूर्ण है। वर्तमान में जो दिशा हम अपने लोकतंत्र को देंगे, वही अगले 25 वर्षों के लिए मील का पत्थर साबित होगी। हम सब जानते हैं कि भारत ने 1947 में लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली को अपनाया।
हमारा देश संविधान के अनुरूप चलता है। देश में तीन स्तर पर शासन व्यवस्था है, केंद्र, राज्य और ग्राम पंचायत। जिस समय हमारा संविधान बनाया जा रहा था, उस समय संविधान निर्माताओं ने स्थानीय स्तर पर तीसरे स्तर के शासन के लिए महात्मा गांधी के आह्वान को नजरअंदाज करते हुए दो स्तरों, केंद्र और राज्य पर शासन स्थापित करते हुए संघीय ढांचे का निर्माण किया था। 1993 में 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन के तहत पंचायती राज व्यवस्था को शासन के तीसरे स्तर के रूप में कानूनी दर्जा मिला। गांधी जी ने ग्राम गणतंत्र की वकालत बहुत पहले ही की थी।
भारतीय संविधान में राजनीतिक दलों का स्थान या उनकी भूमिका के बारे में हमें स्पष्ट रूप से देखने को नहीं मिलता। ऐसे में यह आश्चर्यजनक ही है कि किस कदर पिछले सात दशकों में हमारा लोकतंत्र राजनीतिक दलों का पर्याय बना चुका है। आज पार्टी तंत्र ने लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया है। पार्टियों में आलाकमान संस्कृति, चंदे की अपारदर्शिता और तिस पर जनता की सोई हुई इच्छाशक्ति ने राजनीतिक दलों को बेलगाम बना दिया है।
आम जन के लिए लोकतंत्र एक बड़ी हद तक केवल चुनावी त्योहार के रूप में सिमट कर रह गया है। आमतौर पर मतदाता के पास दो ही विकल्प होते हैं। मतदान केंद्र पर जाए और अपनी पसंद के उस उम्मीदवार के पक्ष में वोट करे, जो राजनीतिक दलों की ओर से खड़े किए जाते हैं या किसी को वोट न देकर नोटा दबाए। आम जन की लोकतंत्र में भागीदारी की इससे अधिक गुंजाइश नहीं।
राजनीतिक दल जनता का जितना अधिक ध्रुवीकरण करने में सक्षम होते हैं, उतना ही ज्यादा वे फलते–फूलते जाते हैं। हाल के घटनाक्रमों पर निगाह डालिए। बंगाल की जेल में बंद पूर्व शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी के करीबी के घरों से मिले नोटों के बंडल सबने देखे। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जब ऐसे नेताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार करता है तो संबंधित दलों के बयान अनैतिकता की सभी सीमाएं लांघ जाते हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि महाराष्ट्र और बिहार में कैसे जनादेश की अनदेखी हुई। आम जनता के पास लाचारी के साथ ऐसे राजनीतिक उठापटक को देखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लोगों को खेमों में बांटकर अपनी राजनीति चमकाना दलीय राजनीति का अभिन्न अंग है। सत्ता का केंद्रीकरण कर येन केन प्रकारेण सत्ता से चिपके रहना भी दलीय प्रणाली में खूब देखने को मिलता है। सवाल है क्या यही लोकतंत्र की असली अवधारणा है? क्या यही लोकतंत्र हम चाहते हैं? इसका उत्तर स्पष्ट है-नहीं। वर्तमान स्थिति हमारे लोकतंत्र का आदर्श रूप नहीं है।
अगर हम अपने गौरवशाली इतिहास को देखें तो वैदिक काल से ही हमारे गांवों में स्थानीय शासन निहित था। भारत का लोकतांत्रिक माडल ग्रीक और रोमन के लोकतंत्र के माडल से भी पहले का है। हमारे तमाम विचारकों और बुद्धिजीवियों द्वारा लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता जताई जाती रही है, लेकिन उसे नजरअंदाज किया जा रहा है। इस समय भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है-सहभागी लोकतंत्र का एक परिष्कृत माडल अपनाना। एक ऐसा लोकतंत्र जो नीचे से ऊपर की ओर बहता हो, न कि जेपी के शब्दों में उलटे पिरामिड की भांति खड़ा रहे।
आज की पृष्ठभूमि में दलविहीन लोकतंत्र की बात करना जनता को अचंभे में डाल देता है, लेकिन अगर इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो पता चलता है कि एमएन राय, महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने दलविहीन लोकतंत्र की परिकल्पना की थी। एमएन राय ने 1944 में 'लोगों की समितियां' बनाने की अपील की थी। गांधी जी ने सुझाव दिया था कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाए और स्वतंत्र भारत में ग्राम सभाओं के रूप में लोकतंत्र के बीज बोए जाएं। इसके बाद जेपी ने पार्टी आधारित राजनीति को त्याग दिया। उन्होंने अपने विचारों को परिष्कृत किया और 'लोक स्वराज्य' के समर्थन में आए। उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए लोक प्रत्याशी यानी लोगों की समितियों या मतदाता परिषदों के माध्यम से चुने गए उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की वकालत की। वर्तमान में कई विचारक भी ऐसे ही माडल की वकालत करते आ रहे हैं, ताकि उसे जमीनी स्तर पर लोगों की शक्ति मिले।
आज देश को चुनावी, न्यायिक और प्रशासनिक सुधारों की सख्त आवश्यकता है। हमें यह भी समझना होगा कि सात दशकों के अनुभवों ने यह सिद्ध कर दिया है कि निर्वाचित प्रतिनिधि हमें वांछित बदलाव लाकर नहीं देंगे, जबकि हमारे देश को अब आमूलचूल सुधारों की आवश्यकता है, जिसे व्यवस्था परिवर्तन जैसे शब्दों से भी रेखांकित किया जा सकता है। इसलिए हमारे लोकतंत्र को सशक्त करने और वर्तमान व्यवस्था को ठीक करने के लिए लोगों को एकजुट होना पड़ेगा। एक नए और व्यापक स्तर पर अभियान की आवश्यकता है, जो सुधार–केंद्रित एजेंडे को जनता के सामने लेकर आए। जनता को अपने उम्मीदवार खुद चुनने का अधिकार मिलना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले जनता को शिक्षित करना होगा।
Rani Sahu
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