सम्पादकीय

भारत के विकसित राष्ट्र बनने की राह, अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के प्रति भी सजग हों लोग

Rani Sahu
20 Aug 2022 6:55 PM GMT
भारत के विकसित राष्ट्र बनने की राह, अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के प्रति भी सजग हों लोग
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Modi) के 76वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले के संबोधन से देश को न केवल यह संदेश गया कि सरकार अगले 25 साल में भारत को विकसित देशों की श्रेणी में लाने के लक्ष्य के प्रति समर्पित है
सोर्स - जागरण
संजय गुप्त : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Modi) के 76वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले के संबोधन से देश को न केवल यह संदेश गया कि सरकार अगले 25 साल में भारत को विकसित देशों की श्रेणी में लाने के लक्ष्य के प्रति समर्पित है, बल्कि यह भी कि उनके पास इस सपने को साकार करने की इच्छाशक्ति भी है। इसका प्रमाण देशवासियों को पांच प्रण (Panch Pran) लेने के लिए प्रेरित करने से मिला। वैसे तो प्रधानमंत्री पहले भी भारत की प्रगति के प्रति अपने संकल्प को रेखांकित करते रहे हैं, लेकिन आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि हर किसी को भारत की विकास यात्रा में योगदान देने के लिए आगे आना चाहिए।
प्रधानमंत्री ने न केवल देश के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को जनता के समक्ष रखा, बल्कि भ्रष्टाचार और परिवारवाद से निर्णायक लड़ाई की नए सिरे से घोषणा भी की। अनेक चुनौतियों के बावजूद भारत की 75 वर्षों की यात्रा तमाम सुनहरे अध्यायों से भरी हुई है। जब देश को स्वतंत्रता मिली, तब कई लोगों ने कहा था कि भारत बिखरकर अंधकार युग में चला जाएगा। भारत ने इन सबको गलत साबित किया। यह भारतीयों की मेधाशक्ति, क्षमता, आगे बढ़ने की लगन और राष्ट्र निर्माताओं के नेतृत्व का ही परिणाम है कि आज भारत न केवल वैश्विक स्तर पर सम्मान के साथ देखा जा रहा है, बल्कि वह दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में भी शामिल हो चुका है।
विकसित देश बनने के सपने को साकार करने के लिए प्रधानमंत्री ने जो चुनौतियां गिनाईं, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन अब यह भी आवश्यक है कि इसका कोई विस्तृत खाका प्रस्तुत किया जाए कि 130 करोड़ से अधिक आबादी वाला देश किस तरह अगले 25 वर्षों में विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा हो सकता है और उसमें आम जनता की भूमिका क्या होगी? अगले 25 वर्षों में देश को विकसित देश बनाना एक कठिन कार्य है, लेकिन असंभव नहीं।
आज अगर आबादी के दृष्टिकोण से भारत किसी देश से अपनी तुलना कर सकता है तो वह चीन है। चीन की आबादी भारत से भी अधिक है, लेकिन पिछले तीन दशकों में उसने इतनी प्रगति की है कि वह कई मायने में विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है। भारत चीन के तानाशाही वाले रास्ते पर नहीं चल सकता। भारत तो राष्ट्रवाद के साथ ऐसा कोई वातावरण निर्मित करके ही प्रगति कर सकता है, जिसमें हर कोई अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के प्रति भी सजग हो।
आजादी के अमृत महोत्सव (Amrit Mahotsav) पर हर घर तिरंगा अभियान लोगों में देशप्रेम जगाने की ऐसी ही एक कोशिश थी। इस तरह के अभियानों का अपना महत्व है, लेकिन उनका असर सीमित अवधि तक ही रहता है। स्वच्छ भारत अभियान इसका उदाहरण है। पांच वर्ष पहले जब प्रधानमंत्री की ओर से इसकी शुरुआत की गई तो इसे देश के कायाकल्प की बड़ी पहल के रूप में देखा गया था, लेकिन आज यह अभियान इसलिए अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ रहा है, क्योंकि औसत लोगों ने इसे सरकारी कार्यक्रम मान लिया है और अपनी खुद की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया है।
भारत प्रगति की राह में तेजी से आगे बढ़े और विकसित देश बनने का सपना पूरा करे, इसके लिए शहरों की दशा सुधारना सबसे अधिक आवश्यक है। आज हमारे अधिकांश शहर बदहाली की कहानी कहते हैं। अनियोजित विकास के कारण उनमें सुविधाओं का स्तर विकसित देशों जैसा नहीं। इसका कारण यह है कि भ्रष्ट तंत्र ने शहरों में बुनियादी ढांचे के विकास के नाम पर मनमानी ही अधिक की है। शहरों के विकास के साथ ही शिक्षा के ढांचे पर भी नए सिरे से निगाह डालनी होगी। नई शिक्षा नीति तैयार होने में आवश्यकता से अधिक देरी हुई। अब इसके क्रियान्वयन में विलंब की गुंजाइश नहीं। भारत को शिक्षा पर न केवल खर्च बढ़ाना होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सभी की पहुंच हो। भारत की प्रगति के लिए यह भी आवश्यक है कि देश अपनी उन कमजोरियों को दूर करे, जो समाज की एकजुटता में बाधक हैं। जब तक देश में सामाजिक सद्भाव प्रबल नहीं होगा, तब तक राष्ट्र का समग्र उत्थान नहीं होगा।
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में भ्रष्टाचार की समस्या पर फिर से देश का ध्यान आकर्षित कराते हुए उन दलों और नेताओं को चेताया, जो भ्रष्ट आचरण के आरोपों से घिरे हैं और ईडी अथवा सीबीआइ की कार्रवाई का सामना कर रहे हैं। भ्रष्टाचार भारत की प्रगति में एक बड़ा अवरोध है, लेकिन यह केवल ईडी अथवा सीबीआइ की कार्रवाई से खत्म होने वाला नहीं है, क्योंकि वह कहीं गहरे तक व्याप्त है। केंद्र और राज्य सरकारें विकास और जनकल्याण की जिन योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च करती हैं, उन पर अमल की जिम्मेदारी नौकरशाही की होती है, जो जवाबदेही के अभाव से ग्रस्त है और इसीलिए भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग पा रही है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नौकरशाही में जो सुधार 20-30 साल पहले हो जाने चाहिए थे, वे अब तक नहीं हो सके हैं। एक समय यह कहा जाता था कि एक रुपये में 85 पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। हाल के वर्षों में स्थिति सुधरी अवश्य है और गरीबों के खातों में डीबीटी के जरिये सीधे पैसा जा रहा है, लेकिन अभी भी भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के ठिकानों से जिस तरह नोटों के बंडल और अकूत संपत्ति के दस्तावेज मिलने का सिलसिला कायम है, वह यही बताता है कि भ्रष्ट तत्वों के दुस्साहस में कहीं कोई कमी नहीं आई है।
भारत की प्रगति में एक बाधा यह भी है कि सरकार उन तमाम कार्यों से मुक्त नहीं हो पा रही, जो उसे नहीं करने चाहिए। निजीकरण वक्त की जरूरत है, लेकिन स्वार्थों वाली राजनीति के कारण उसके प्रति आम राय कायम करना कठिन है। तमाम ऐसे दल हैं जो जानबूझकर यह सोच कायम रखना चाहते हैं कि हर काम सरकार का है। ऐसे दल यह समझने से इन्कार कर रहे हैं कि आधुनिक युग में किसी सेवा की गुणवत्ता सबसे महत्वपूर्ण होती है और यह प्रतिस्पर्धा से ही संभव है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि भ्रष्टाचार का एक बड़ा हिस्सा चुनावों में खर्च होता है। चुनावी फंडिंग को पारदर्शी बनाने के लिए कुछ कदम उठाए तो गए हैं, लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हैं। भ्रष्टाचार सही तरह से तभी नियंत्रित होगा, जब चुनाव में खर्च होने वाले धन को लेकर पारदर्शिता सुनिश्चित की जाएगी और आम जनता भी भ्रष्टाचार के प्रति सजग होगी। वास्तव में भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए सरकार के साथ समाज को भी सक्रिय होना होगा।
Rani Sahu

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