सम्पादकीय

अफगानिस्तान में तालिबान के मजबूत होते 'कदमों' ने बदल डाली है हलकान पाकिस्तान की 'चाल'

Tara Tandi
10 July 2021 11:25 AM GMT
अफगानिस्तान में तालिबान के मजबूत होते कदमों ने बदल डाली है हलकान पाकिस्तान की चाल
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जो पाकिस्तानदुनिया भर में ‘आतंकवाद’ और ‘आतंकवादियों’ की सुरक्षित ‘मांद’, जन्मस्थली, दुनिया के तमाम चुनिंदा आतंकवादी ट्रेनिंग कॉलेजों के रूप में कुख्यात है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | जो पाकिस्तान (Pakistan) दुनिया भर में 'आतंकवाद' (Terrorism) और 'आतंकवादियों' की सुरक्षित 'मांद', जन्मस्थली, दुनिया के तमाम चुनिंदा आतंकवादी ट्रेनिंग कॉलेजों के रूप में कुख्यात है. वक्त ने करवट क्या ली अब वही पाकिस्तान अपने पड़ोसी देश अफगानिस्तान (Afghanistan) में हो रहे राजनीतिक बदलावों कहिये या फिर वहां चल रही उठा-पटक को लेकर हलकान हुआ पड़ा है. जबसे अफगानिस्तान में मौजूदा हुक्मरानों को पीछे करके तालिबान (Taliban) ने अपने पांव आगे बढ़ाए हैं. तभी से पाकिस्तानी हुक्मरानों की पेशानी पर बल पड़ना शुरू हो गया है. आलम यह है कि कल तक खुद को तालिबान का शुभचिंतक बताने वाले जिन पाकिस्तानी हुक्मरानों ने, कभी पाकिस्तान के वित्तीय पोषक रहे अमेरिका (America) जैसे देश को अपने घर में (पाकिस्तान की सर-ज़मीं पर) सेना के बेस बनाने की इजाजत देने से दो टूक इनकार कर दिया. आज वही पाकिस्तान और उसकी वही हुकूमत अब तालिबान के खौफ से हलकान हुए पड़ी है.

पाकिस्तानी हुक्मरानों की पेशानी पर बल पड़ने का आलम यह है कि, वे खुलकर इस बारे में बयानबाजी तक करने लगे हैं. ताकि जब कभी भी अफगानिस्तान में गृह-युद्ध के से हालात अगर बन भी जाए, तो पाकिस्तान अपनी गर्दन सुरक्षित बचाने के रास्ते तो खोज सके. पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (National Security Advisor) मोईद युसूफ के हालिया बयान से तो कुछ ऐसा ही नजर आता है. मोईद युसूफ ने शुक्रवार को ही एक बयान दिया जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान में बिगड़ते हालात पर चिंता जाहिर की है. पाकिस्तानी एनएसए ने खुले शब्दों में स्वीकारा है कि अफगानिस्तान के मौजूदा आंतरिक हालात दुरुस्त नहीं है. वहां जो कुछ नजर आ रहा है वो सब गृह-युद्ध जैसा इशारा कर रहा है. अगर पाकिस्तान में गृह-युद्ध जैसे हालात बन गए, तो उसका सीधा-सीधा विपरीत/प्रतिकूल प्रभाव पाकिस्तान पर पड़ना तय है.
नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली…
आतंकवादियों को पालने-पोसने और पैदा करने के लिए दुनिया-जहान में कुख्यात, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के ओहदे पर बैठे इस आला-हुक्मरान की यह बयानबाजी यूं ही हवा में नहीं उड़ा दी जानी चाहिए. विश्व के राजनीतिक पटल पर नजर डालकर गंभीरता से अगर देखेंगे तो इसके अपने कई अलग मायने हैं. मसलन एक तो यह कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान में मची उथल-पुथल से वाकई चिंतित है. क्योंकि दोनो ही देशों के व्यापारिक संबंध अब तक काफी अच्छे माने जाते थे. दोनो एक दूसरे के लिए व्यवसायिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण थे. तालिबानी हुकूमत ने अगर अफगानिस्तान में अपने पांव मजबूत किए? तो ऐसे में सबसे पहले पाकिस्तान के सामने एक सवाल मुंह बाए खड़ा होगा. वो सवाल होगा कि तालिबानियों के साथ पाकिस्तान नए संबंध कैसे और कितने वक्त में कायम कर पाएगा. जिन तालिबानियों को कुछ वक्त पहले ही पाकिस्तान में शरणार्थी के रूप में घुसने से मना कर दिया था. क्या वे तालिबानी अब पाकिस्तान की बात मानेंगे?
बच्चा पढ़ाए मास्टर को पाठ
वो भी तब जब पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसूफ खुद मानते हैं कि, अफगानिस्तान के हालात काबू में नहीं रह गए हैं. लिहाजा इन हालातों में अब तालिबान को कुछ नहीं सोचना है. सबकुछ सोचना पाकिस्तान को ही है कि, आखिर वो तालिबान के साथ कैसी चाल चलना चाहेगा? हां, तालिबानियों ने अगर अफगानिस्तान में सत्ता संभाली जिसकी पूरी-पूरी संभावनाएं साफ-साफ नजर भी आ रही हैं, तो यह भी तय है कि वो पाकिस्तान के सामने अब गिड़गिड़ाएगा तो कतई नहीं. तालिबान अपनी जरूरत खुलकर पाकिस्तान के सामने रखेगा. तालिबान की जरूरत या मांग को, पाकिस्तान पूरा कर पाता है या नहीं. या फिर वो कैसे तालिबान को खुश रख सकेगा? इन तमाम सवालों के जवाब खोजने की सिरदर्दी भी मौजूदा हालातों में तालिबान की नहीं वरन् पाकिस्तान की ही होगी.
जमाने भर की ठेकेदारी
बात यहीं पर खतम नहीं होती है. विदेश मामलों की सीनेट समिति को जानकारी पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने यह भी दो टूक बता दिया है कि, आने वाले वक्त में किस तरह 'तहरीक-ए-तालिबान' के संभावित हमलों का जोखिम भी मंडरा रहा है? यहां उल्लेखनीय है कि पाकिस्तानी हुकूमत अब तक देश में तालिबानियों की मौजूदगी से साफ तौर पर इनकार ही करती रही है. अब अफगानिस्तान में बदलते राजनीतिक गुणा-गणित ने पाकिस्तान के लिए एक सिरदर्दी भरा सवाल और पैदा कर दिया है. यह सवाल है कि चंद दिनों बाद कोई बड़ी बात नहीं होगी जब तालिबानी पाकिस्तान में "शरणार्थी" के रूप में घुसना चाहें. उस वक्त पाकिस्तान दो-राहे पर खड़ा होगा. अगर वो तालिबान को अपने यहां शरण देता है तो अमेरिका सहित दुनिया के तमाम उन देशों की नजरों में वो (पाकिस्तान) सरेआम नंगा हो जाएगा, इस मुद्दे पर कि तालिबान से तो वो हमेशा अपनी दूरी ही बताता रहा था.
उनकी मजबूरी समझिए
दूसरे, पाकिस्तान ने अमेरिका और दुनिया के अन्य तमाम चुनिंदा देशों को खुश रखने के लिए, अगर तालिबान को शरण देने से अपने यहां इनकार कर दिया, तो उसकी सीधे-सीधे तालिबान से आमने-सामने की दुश्मनी भी ठन जाएगी. तालिबान से दुश्मनी मोल लेकर सुख-चैन से रह पाना पाकिस्तान अपनी कुव्वत के बाहर की बात बहुत पहले से जानता समझता रहा है. मतलब हालात भले ही अफगानिस्तान में बदल रहे हों. तालिबान के पांव भले ही अफगानिस्तान में मजबूती से जमने की ओर बढ़ रहे हों. भले ही गृहयुद्ध जैसे हालात क्यों ना अफगानिस्तान में बन रहे हों. मगर इस सबके बाद भी हालत पाकिस्तानी हुकूमत और उसके हुक्मरानों की खराब है. यह हम नहीं कह रहे खुद पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसूफ जमाने में चीख-चीख कर सुना-बता रहे हैं. जैसा कि उन्होंने एक दिन पहले ही यानि शुक्रवार को भी यह सब अपनी विदेश मामलों की सीनेट के सामने दोहराया-रोया-गाया.
यह पाकिस्तान है साहिब
हां यहां यह सब चर्चा करते वक्त यह भी नहीं भूलना चाहिए कि, पाकिस्तानी हुकूमत और वहां के हुक्मरानों की कथनी-करनी में बड़ा फर्क कहिए या फिर फरेब हमेशा रहा है. लिहाजा पाकिस्तान के एनएसए मोईद युसूफ के इन बयानों को गंभीरता से लेने से पहले सौ बार सोचना होगा. सोचना यह होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं, पाकिस्तान अमेरिका, हिंदुस्तान, चीन सहित दुनिया भर की तमाम बड़ी ताकतों को दिखाने के लिए यह राग अलाप रहा हो कि, पाकिस्तान तो तालिबान का धुर-विरोधी दुश्मन है. इधर जमाने को यह सब दिखाकर किसी और रास्ते से गुपचुप ही सही मगर तालिबान को शरणार्थियों के रूप में अपनी "मांद" में जगह देकर दोनो हाथों में लड्डू रखना चाहता हो. मतलब अमेरिका भारत, चीन से मजबूत देश भी खुश और तालिबानियों से भी अंदरखाने पाकिस्तान का कथित "गठबंधन" का जुगाड़ भी "फिक्स".
अंदरखाने की हकीकत
इन आशंकाओं को मजबूती इससे भी मिलती है कि, लश्कर-ए-तैयबा का जन्मदाता हाफिज सईद, जिसकी गिरफ्तारी पर अमेरिका ने करीब 70 करोड़ रुपए की इनामी दांव पर राशि लगा रखी है. अमेरिका सहित दुनिया की तमाम एजेंसियां जानती हैं कि आतंकवाद और आतंकवादियों का इंजीनियर हाफिज सईद पाकिस्तानी मांद में दुबका बैठा है. इसके बाद भी पाकिस्तान उस पर हाथ नहीं डालता है. हां, जब जब हाफिज सईद को लेकर पाकिस्तानी हुकूमत पर अमेरिका, भारत या फिर कोई भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव पड़ना शुरू होता है. उसी समय पाकिस्तान में शोर मचने लगता है कि हाफिज सईद गिरफ्तार करके जेल में डाला जा रहा है. या फिर कथित रूप से हाफिज सईद के अड्डों के इर्द-गिर्द कोई बम धमाका करा दिया जाता है. ताकि दुनिया की नजर में यह बात फैलाई जा सके कि, पाकिस्तान में भी हाफिज सईद की जान को बहुत खतरा है. जमाने भर को यह दिखाने को कि, पाकिस्तानी हुकूमत अगर हाफिज सईद को शरण दे रही होती तो फिर उस पर बम से हमले नहीं होते. लिहाजा ऐसे में तालिबान को लेकर की जा रही पाकिस्तान की बयानबाजी भी विश्वास के लायक तो नहीं है.
तालिबान के जिक्र का मतलब
हां, अगर पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का तालिबान को लेकर शुक्रवार को दिया गया बयान वास्तव में गंभीर-ईमानदार है, तो फिर यह तय है कि जो पाकिस्तान दुनिया भर में आतंकवादियों की सबसे बड़ी जन्म-स्थली-पनाहगाह है, एक अदद तालिबान उस पाकिस्तान पर भी भारी साबित होने जा रहा है. वो तालिबान जिसके पाकिस्तान में पांव रखने से पहले ही, पाकिस्तानी हुक्मरानों की सांसें रोक दी हैं. उनकी पेशानी पर बल डाल दिए हैं. अगर मोईद युसूफ के बयान में वाकई दम है तो इसे पाकिस्तान का हलकान होना ही कहा जायेगा, एक उस तालिबान के नाम से, जिस तालिबान ने अभी तो पाकिस्तान की सीमा-रेखा की ओर एक नजर तलक नहीं डाली है. और पाकिस्तान के हुक्मरान अपनी विदेशी सीनेट मामलों की कमेटी में भी अफगानिस्तान में तालिबान के मजबूत होते पांवों का जिक्र करने लगे हैं.
वाहियात पाकिस्तानी ज्ञान
पाकिस्तानी अखबर 'डॉन' में प्रकाशित मोईद युसूफ के बयान के मुताबिक, अफगान सरकार अगर वास्तव में शांति ही चाहती है तो, उसको हमारे साथ (पाकिस्तान) के साथ संबंध सुधारने की प्रक्रिया अमल में लानी होगी. मोईद युसूफ के एक और बयान के मुताबिक, "मुझको नहीं लगता है कि अमेरिका, अफगानिस्तान को किसी वित्तीय पैकेज की पेशकश कर रहा है. एक अदद हम ही हैं (पाकिस्तान) जो कि अफगानिस्तान को आज भी बड़े व्यापारिक रास्ते दे रहे हैं." यह तो बात रही पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बयान की. अब एक नजर डालते हैं वहां के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के उस बयान पर भी जो, उन्होंने अपनी विदेशी सीनेट कमेटी के सामने दिया. कुरैशी ने कहा कि, अफगानिस्तान को तालिबान के साथ हुकूमत में साझीदारी रखनी चाहिए. अफगानिस्तान में शांति के लिए यह बहुत जरूरी है.
हालांकि, अफगानिस्तान और तालिबान के बीच मौजूदा वक्त में मचे घमासान के दौर में पाकिस्तानी विदेश मंत्री का यह बयान एकदम बेतुका या फिर बे सिर-पैर का ही माना जा रहा है. उसकी वजह यह है कि, जिन शाह महमूद कुरैशी का देश (पाकिस्तान) खुद ही आतंकवादियों की जन्मस्थली और मांद के रूप में जमाने में बदनाम हो, उस देश का विदेश मंत्री भला दूसरे देश में शांति का रास्ता बताने का ह़क कैसे और कब से रखने लगा? पाकिस्तानी विदेश मंत्री पहले अपने देश में पल-बढ़ रहे आतंकवादियों और उनके अड्डों को तो नेस्तनाबूद करके दिखाएं. तभी तो वे अफगानिस्तान और तालिबान के बीच मधुर संबंध स्थापित कराने की सलाह देने के काबिल खुद को सिद्ध कर पाएंगे.
वे खुद संभल जाएंगे
यहां दिलचस्प यह है कि, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री दोनो ही अफगानिस्तान के हालातों को लेकर चिंतित हैं. और हलकान हैं तालिबान के अफगानिस्तान की जमीन पर मजबूत होते कदमों की खबरों से.और तो और पाकिस्तानी विदेश मंत्री अपनी बयानबाजी में यह राग भी अलाप रहे हैं कि, अफगानिस्तान में हालात बिगड़ते जा रहे हैं. वहां के हालात काबू से बाहर होते जा रहे हैं. बदतर होते हालातों पर अगर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया तो वहां (अफगानिस्तान), स्थिति कभी भी विस्फोट होकर गृहयुद्ध की ओर बढ़ सकती है. गंभीर बात है कि यह राग उस देश के विदेश मंत्री अलाप रहे हैं, या राय-शुमारी उन शाह महमूद कुरैशी की है, जिनके अपने देश की आर्थिक, राजनीतिक, आंतरिक और बाहरी स्तर पर हालत पतली है.


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