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जब से आदमी इस धरती पर रहने लगा है, तब से ही शिक्षा की जरूरत महसूस होती आई है, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ शिक्षा के स्वरूप में भी बदलाव आया है। प्राचीन काल में विद्यार्थियों को शिक्षा गुरु आश्रमों में ही दी जाती थी और उन आश्रमों में ज्यादा विद्यार्थी राज परिवारों के ही शिक्षा ग्रहण करते थे। मौजूदा दौर की हम बात करें तो पिछले 10-15 सालों में पठन-पाठन के स्तर में बहुत गिरावट देखने को मिली है। सरकार की नीतियों ने शिक्षा का भी व्यापारीकरण कर दिया है जो कि अति चिंताजनक विषय है। हिमाचल में पांचवीं और आठवीं कक्षा की वार्षिक परीक्षा को प्रदेश शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित नहीं किए जाने का फैसला भी शिक्षा व्यवस्था की खामी के तौर पर देखा जाना चाहिए। इसके साथ ही पहली से आठवीं कक्षा तक विद्यार्थियों को हर सूरत में वार्षिक परीक्षा में पास करने की बेतुकी प्रथा चला दी गई है, फिर चाहे कोई विद्यार्थी किसी विषय में कितना भी कमजोर क्यों न हो। इससे निश्चित रूप से बच्चों में भय की भावना खत्म हुई है जिससे गुणात्मक और नैतिक शिक्षा का स्तर बहुत ही कम हो गया है। साथ ही बच्चों को अपनी कमजोरी सुधारने का मौका भी नहीं मिल पाता है। इन हालात को देखते हुए सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले पहली से आठवीं कक्षा के विद्यार्थी ऐसा महसूस करते हैं कि वे स्कूल की बजाय किसी बड़े गांव के मेले में आए हों, जहां जब मर्जी से आएं और जब चाहें, अपनी मर्जी से घर वापस चले जाएं। यहां पर यह भी बताना अति जरूरी है कि सकरारी स्कूलों के अध्यापकों को बहुत अच्छे वेतन-भत्ते दिए जा रहे हैं।
इसके साथ ही सरकारी स्कूलों में पहली से आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों को किताबें और वर्दियां भी दी जा रही हैं और दोपहर का भोजन भी दिया जा रहा है। लेकिन बड़े दु:ख की बात है कि सरकार की तरफ से सब कुछ बच्चों को मुफ्त देने के बावजूद अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने की बजाय प्राइवेट स्कूलों में क्यों पढ़ा रहे हैं। इसका मुख्य कारण हमारी प्राथमिक शिक्षा का गिरता हुआ स्तर है। प्रदेश सरकार ने हरेक बड़े गांव में प्राथमिक स्कूल खोल दिए हैं, लेकिन प्रदेश में 3148 प्राथमिक स्कूल सिंगल अध्यापक के सहारे चल रहे हैं, जबकि पांच कक्षाओं में कम से कम चार या पांच अध्यापक होने चाहिए, क्योंकि प्राइमरी शिक्षा छात्रों के लिए नींव का काम करती है। अगर बच्चों को प्राइमरी शिक्षा सही मिल जाए तो उन्हें आगे की पढ़ाई में आसानी होती है। आज समाज में हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति सरकारी नौकरी चाहता है, लेकिन जब पढ़े-लिखे लोगों को सरकारी नौकरी मिल जाती है तो वे अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। इस समय प्रदेश में कार्यरत ज्यादातर सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसके लिए प्रदेश सरकार को कानून बनाना चाहिए कि जब किसी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी की नियुक्ति हो तो उनके नियुक्ति पत्र में यह शर्त लगानी चाहिए कि उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ेंगे या फिर उनकी तनख्वाह से 10 प्रतिशत हिस्सा सरकार काट कर सरकारी खजाने में जमा करवाएगी। यहां पर यह वर्णनीय है कि लगभग 1979-1980 से पहले स्कूल शिक्षा का एक ही निदेशालय होता था जो बाद में दो निदेशालय प्रारंभिक और उच्चतर शिक्षा के लिए बना दिए गए। जो अध्यापक जेबीटी के तौर पर प्राइमरी स्कूलों में नियुक्त होते हैं, बाद में वे अध्यापक अपनी योग्यता बढ़ा कर यानी बीए, बीएड करके उनकी तरक्की बतौर मास्टर और मुख्य अध्यापक मिडल, हाई और सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में हो जाती है। इसीलिए प्रदेश सरकार को स्कूल शिक्षा के सुधार के लिए एक ही निदेशालय फिर से बना देना चाहिए।
स्कूलों में विद्यार्थियों की पढ़ाई के सुधार के लिए मोबाइल फोन लाने पर पाबंदी लगानी चाहिए। इसके साथ ही जो विद्यार्थी पढ़ाई में कमजोर हों, उन्हें सुबह-शाम मुफ्त में पढ़ाई करवानी चाहिए। 1960 से लेकर 2000 तक के दशकों में सरकारी स्कूलों के अध्यापक सुबह स्कूल खुलने से पहले और शाम को पूरी छुट्टी के बाद विद्यार्थियों को मुफ्त में पढ़ाते थे। एक मुख्य कमी जो प्रदेश सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की भर्ती की है कि आज तक प्रदेश में ज्यादातर सरकारों ने प्रदेश के पढ़े-लिखे बेरोजगार अध्यापकों के साथ अन्याय किया है। कई बार इन अध्यापकों को नौकरी देने के स्थान पर वालंटियर टीचर, विद्या उपासक, पीटीए टीचर तथा एसएमसी टीचर प्रदेश की पिछली सरकारों ने समय-समय पर भर्ती कर दिए, जबकि इस समय प्रदेश में लगभग दो लाख बीएड बेरोजगार नौजवान हैं और साथ ही हजारों की तादाद में जेबीटी, पीटीआई, ड्राइंग टीचर और नर्सरी टीचर आदि प्रशिक्षित बेरोजगार पिछले 20-25 सालों से सरकारी नौकरी के इंतजार में राह ताक रहे हैं। इसके लिए प्रदेश सरकार बिना देरी से इन बेरोजगार अध्यापकों की भर्ती 50 प्रतिशत बैचवाइज तथा 50 प्रतिशत हिमाचल प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा करवाने की कृपा करे ताकि इन बेरोजगार अध्यापकों को उनका सही हक मिल सके और उनमें पाई जाने वाली बेचैनी भी कुछ हद तक कम हो सके। मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू तथा शिक्षा मंत्री रोहित ठाकुर को इन सुझावों के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना चाहिए।
रणजीत सिंह राणा
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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