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एक ठहराव के बाद भारत और चीन फिर से सैन्य स्तर की बातचीत शुरू करने जा रहे हैं
जयदेव रानाडे,
एक ठहराव के बाद भारत और चीन फिर से सैन्य स्तर की बातचीत शुरू करने जा रहे हैं। 16वीं दौर की यह वार्ता सीमा-विवाद के संदर्भ में हो रही है। मगर इस तरह की बैठक क्या वाकई सार्थक हो सकेगी, यह अभी ठीक-ठीक कहना मुश्किल है। हालांकि, जब से यह बातचीत शुरू हुई है, शुरुआती उपलब्धियों को छोड़कर हमारे हाथ कुछ खास नहीं आया है। शुरुआत में भी दोनों देशों ने महज एक-दो ठिकानों से अपने सैनिकों को पीछे हटाने पर सहमति जताई थी।
चीन पुरानी स्थिति में लौटना नहीं चाहता है। उसके विदेश मंत्री वांग यी ने फिर से लद्दाख को अपना हिस्सा बताया है। चीन के वेस्टर्न थियेटर कमांड के प्रवक्ता ने भी गलवान हिंसक झड़प के बाद लद्दाख को लेकर यही राग अलापा था। जाहिर है, चीन बातचीत के बहाने बेवजह इस मुद्दे को लंबे समय तक खींचना चाहता है, ताकि सीमा पर उसकी स्थिति मजबूत बन सके। यही वजह है कि चीनी सरकार के नुमाइंदे अब यह सलाह देने लगे हैं कि सीमा विवाद को किनारे रखकर भारत को अन्य संबंधों को आगे बढ़ाना चाहिए। हालांकि, भारत सरकार का मत बिल्कुल साफ है। वह सीमा विवाद सुलझाने को लेकर उतनी ही गंभीर है, जितना अन्य संबंध बनाने को लेकर।
सैन्य स्तर की ऐसी वार्ता से किसी बड़ी उपलब्धि की संभावना इसलिए नहीं है, क्योंकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को इससे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। इस साल के आखिर में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी 20वीं राष्ट्रीय कांग्रेस मनाने जा रही है। चूंकि शी जिनपिंग तीसरा कार्यकाल चाहते हैं, इसलिए उनकी इस पर खास नजर है। मगर मुश्किल यह है कि चीन अभी तमाम तरह की आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहा है। वहां आर्थिक समस्याएं बढ़ गई हैं, रहन-सहन पर लोग ज्यादा खर्च करने लगे हैं, कंपनियां बंद हो रही हैं और 'जीरो कोविड पॉलिसी' व अत्यधिक बंदिशों के कारण जनता में सरकार के खिलाफ नाराजगी गहरा रही है। लिहाजा शी जिनपिंग अभी ऐसा कुछ शायद ही करेंगे, जिससे यह संदेश जाए कि वह कमजोर पड़ते जा रहे हैं। बजाय इसके वह यही साबित करने का प्रयास करेंगे कि आज भी उनकी तूती बोलती है और चीन को नए मुकाम पर ले जाने को वह संकल्पित हैं।
मगर, एक सच यह भी है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और जनता के बीच जो संबंध बनता है, वह लोगों के बेहतर रहन-सहन से गुंथा हुआ है। और, यूक्रेन युद्ध के लिए भी लोग परोक्ष रूप से जिनपिंग को दोषी मानने लगे हैं। इसीलिए, वहां तमाम तरह के जोखिम उठाकर भी सोशल मीडिया पर सरकार की मुखालफत करने वालों की कमी नहीं दिखती। ऐसे में, जिनपिंग के लिए यदि कुछ करने को बचता है, तो वह भारत के खिलाफ विषवमन, ताइवान में दखल और साउथ चाइना में विस्तार ही है। ऐसे में, सीमा विवाद पर सार्थक बातचीत राष्ट्रीय कांग्रेस तक शायद ही सकारात्मक गति पकड़ सके।
हालांकि, इस विवाद की एकमात्र वजह शी जिनपिंग की अति-महत्वाकांक्षा नहीं है। चीन की विस्तारवादी नीति क्रमवार चलती रही है। उसने 2013 में 'बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव' (बीआरआई) की घोषणा की, तो अप्रैल 2015 में चीन-आर्थिक पाकिस्तान गलियारे का एलान। यह हमारे लिए चौंकाने वाला कदम था। इस घोषणा के कई अर्थ निकाले गए। पहला, अभी तक पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और कश्मीर को लेकर चीन निरपेक्ष जान पड़ता था, लेकिन उसकी नई योजना से यह साफ हो गया कि वह पाकिस्तान के पक्ष में झुका हुआ है। दूसरी बात, इस परियोजना में सड़क, रेल और बंदरगाह के विकास की बात थी, जो उसके सैन्य हितों के मुताबिक तय किया गया था। शिनजियांग के काशगर से लेकर ग्वादर तक फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाने की चर्चा भी इसमें की गई, और वेस्टर्न थियेटर कमांड को अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा व चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की संपत्ति की सुरक्षा का जिम्मा सौंपा गया। ये सब साफ संकेत थे कि चीन एक खास मंशा के तहत आगे बढ़ रहा है, लेकिन हम इसे भांप न सके। वुहान और मामल्लापुरम में जो दोनों देशों के शासनाध्यक्षों (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग) की बैठकें हुईं, वे हमारी आंखों में धूल झोंकने वाली थीं। ऐसे में, अब चीन की सेना शायद ही पीछे हटने को तैयार हो। पिछले दो साल से वह इस नई स्थिति में है, तो पुरानी जगह पर लौटने से वह ना-नुकुर कर सकती है।
हालांकि, हमारी तैयारी भी कमजोर नहीं है। गरमी में पहाड़ी इलाकों की सीमाएं जरूर संवेदनशील बन जाती हैं, लेकिन हमारी सरकार की इस पर नजर बनी हुई है। हमने भी चीन की तरह वहां करीब 60 हजार सैनिक तैनात कर रखे हैं। सामरिक सुरक्षा के लिहाज से बुनियादी ढांचे के निर्माण का काम भी तेजी से किया जा रहा है। हालांकि, भौगोलिक परिस्थितियों के कारण चीन की तुलना में हमारी राह ज्यादा कठिन है। फिर भी, इन कामों को हमें जल्द पूरा करना होगा, क्योंकि चीन की तैयारी का अंदाजा हाल ही में वहां की संसद से पारित 14वीं पंचवर्षीय योजना से लगता है। इसमें तिब्बत से रेल लिंक, रोड हाइवेज को उन्नत बनाना, 30 हवाई अड्डों के निर्माण सहित कई परियोजनाओं का जिक्र है। लिहाजा हमें कुछ अतिरिक्त कदम उठाने ही होंगे, अन्यथा आने वाले समय में हमारे लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
चिंता की बात यह भी है कि व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में है। हमारे उद्यमी आत्मनिर्भरता को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाए हैं। अगर हम कारोबारी गतिविधि को कुछ अपने पक्ष में कर सकें, तो चीन को बड़ी चोट पहुंचा सकेंगे। टिक टॉक पर ही प्रतिबंध लग जाने से उसे करीब नौ अरब डॉलर का सीधा नुकसान हुआ था। अगर इस तरह के और कदम उठाए जाएंगे, तो हम उस पर ज्यादा प्रभावी साबित हो सकेंगे। यह समझना चाहिए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है, जहां तमाम तरह की संभावनाएं मौजूद हैं। दुनिया भर की कंपनियां यहां आने को उत्सुक हैं। यह बाजार अमेरिका और पश्चिम के लिए काफी मुफीद हो सकता है। इसलिए चीन के खिलाफ लीक से हटकर कदम उठाने के हमारे पास कई रास्ते हैं। यदि ऐसा न हो सका, तो सैन्य स्तर की इस तरह की बातचीत बहुत दूर तक जाती नहीं दिखती।
सोर्स- Hindustan Opinion
Rani Sahu
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