सम्पादकीय

शेष हैं दुरुपयोग

Rani Sahu
12 May 2022 7:17 PM GMT
शेष हैं दुरुपयोग
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सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून की धारा 124-ए के अमल पर अंतरिम रोक लगा दी है

सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून की धारा 124-ए के अमल पर अंतरिम रोक लगा दी है, लेकिन अभी यह अध्याय बंद नहीं हुआ है। धारा 124-ए को रद्द नहीं किया गया है। कानून की किताबों में राजद्रोह के प्रावधान अब भी मौजूद हैं। देश की जेलों में 13,000 से ज्यादा कथित 'देशद्रोही' कैद हैं, लेकिन इस फौरी रोक के बावजूद सभी कैदी जमानत के पात्र नहीं होंगे। सर्वोच्च अदालत की न्यायिक पीठ ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया है, क्योंकि राजद्रोह कानून के तहत केस दर्ज करते हुए आरोपित पर अन्य धाराएं भी चस्पा कर दी जाती हैं। कैदी राजद्रोह कानून के तहत जमानत की अपील कर सकता है, लेकिन शेष धाराओं में निचली अदालतें भी कानून के मुताबिक ही जमानत देंगी। एक उम्मीद जगी है कि औसत नागरिक की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा का एक संवैधानिक रास्ता खुला है। समीक्षा के साथ-साथ संशोधनों पर भी विमर्श किया जाएगा। सरकार वैकल्पिक कानून का मसविदा कैसा तैयार करती है, उसके बाद ही नई बहस शुरू होगी और सर्वोच्च अदालत भी उसी के अनुरूप अपना पूर्ण फैसला देगी। उसका इंतज़ार करना पड़ेगा, लेकिन पुलिस की भूमिका को लेकर क्या संशोधन किए जा सकते हैं और सरकार किन स्तरों तक समीक्षा कर सकती है, यह देखना अभी शेष है। हमारे आपराधिक कानून में पुलिस सबसे ताकतवर और निरंकुश इकाई है। भारत में पुलिस और अभियोजन पक्ष लगभग एक ही हैं। विदेशों में ये अलग-अलग विभाग काम संभालते हैं।

हमारे देश में देशद्रोह का कानून भी पुलिस ही लागू करती है, वह ही केस दर्ज करती है। आरोपित को तुरंत जेल के हवाले किया जा सकता है। अभी तक अदालतों में भी जमानत आसान नहीं रही है। जज परहेज करते हैं, क्योंकि मामला राजद्रोह का बनाया जाता है। अदालत के जमानत देने तक आरोपित जेल में ही रहता है। जब केस फर्जी और आरोपित मासूम साबित हो जाता है, तो संबद्ध पुलिस अधिकारी की कोई भी जवाबदेही तय नहीं की जाती और न ही उसे दंडित करने के कानूनी प्रावधान हैं, लिहाजा अब भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या द्रोह के मामलों में अब भी दुरुपयोग की गुंज़ाइश है? हालांकि मौजूदा विमर्श के दौरान यह आग्रह भी सामने आया है कि फर्जी केस बनाने के दोषी पुलिस अधिकारी को उसकी नौकरी और पद से बर्खास्त किया जाना चाहिए। राजद्रोह के अलावा यूएपीए और रासुका सरीखी कानूनी व्यवस्थाएं भी कम कठोर नहीं हैं। पोटा जैसा बर्बर कानून खत्म किया गया था, तो नए नाम के साथ यूएपीए लागू कर दिया गया। घोषणा की गई कि यह कानून आतंकियों, अलगाववादियों, देश-विरोधी ताकतों आदि के लिए है, लेकिन आज भी कई केस ऐसे हैं, जिनमें वैचारिक विरोधियों, छात्र नेताओं, डॉक्टर, पत्रकार आदि के खिलाफ आतंकी कानून की धाराएं लगाई गई हैं। वे या तो जेल में हैं अथवा अदालत के हस्तक्षेप के बाद रिहा हो पाए हैं। आंदोलित महिला छात्रों पर भी यह कानून चस्पा किया जा चुका है।
रासुका लगाना तो बहुत सामान्य कानूनी कार्रवाई है। क्या इसी तरह धारा 124-ए के विकल्प के तौर पर कोई और धारा तय की जा सकती है? या राजद्रोह कानून किसी नए नाम से लागू किया जा सकता है? रासुका और यूएपीए भी राजद्रोह कानून के विकल्प हो सकते हैं। ये हमारी आशंकाएं हैं। चूंकि मामला सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है और प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रमना का मानना है कि राजद्रोह कानून की कठोरता मौजूदा सामाजिक परिवेश के अनुसार नहीं है, लिहाजा सरकार कोई छद्म खेल न खेले, लेकिन संभावनाएं तो हैं। कुख्यात आतंकी रहे यासीन मलिक ने आतंकी गतिविधियों, हमलों और फंडिंग आदि के अपराध कबूल कर लिए हैं, क्या उस पर निश्चित तौर से राजद्रोह का कानून लगेगा अथवा यूएपीए को इस तरह लागू किया जाएगा कि वह सामान्य कैदी की तरह अपनी जेल की सजा काटता रहे? दूसरी तरफ प्रख्यात शायर और फिल्मी गीतकार मज़रूह सुल्तानपुरी समेत वरिष्ठ पत्रकार दिवंगत विनोद दुआ, मृणाल पांडे, ज़फर आगा, राजदीप सरदेसाई सरीखे कलमकारों के उदाहरण हैं, जिन पर देशद्रोह का कानून थोपा गया। क्या वे देशद्रोही हो सकते हैं? इसका स्पष्ट जवाब भी समीक्षा में आना चाहिए।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचली

Rani Sahu

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