- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- समस्या नजरिए में है
x
तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को रद्द करने का एलान करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि
अगर किसी को यह लगता हो कि पीछे हटने के ताजा निर्णय से वर्तमान सरकार की कार्यशैली में कोई बदलाव आएगा, उसकी ये धारणा गलत ही साबित होगी। इसलिए कि समस्या की जड़ें संवाद ना करने की कार्यशैली है, जो ऐसा लगता है कि मौजूदा सत्ताधारियों में कूट-कूट कर भरी हुई है।
तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को रद्द करने का एलान करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अच्छे मकसद बनाए गए इन कानूनों के बारे में वे 'कुछ किसानों को' समझा नहीं पाए। उन्होंने कहा कि उनकी 'तपस्या' अधूरी रह गई। इन वाक्यों से जाहिर है कि प्रधानमंत्री ने भले अपने राजनीतिक या कार्यनीतिक कारणों से कानूनों को वापस लेने का फैसला किया हो, लेकिन उन्होंने इनके विरोध के पीछे के किसानों के तर्क को स्वीकार नहीं किया है। इसलिए अगर किसी को यह लगता हो कि पीछे हटने के ताजा निर्णय से वर्तमान सरकार की कार्यशैली में कोई बदलाव आएगा, उसकी ये धारणा गलत ही साबित होगी। इस बिंदु पर यह गौर करने की आवश्यकता है कि आखिर मौजूदा शासनकाल में असल समस्या कहां है? इसकी जड़ें असल में संवाद ना करने की कार्यशैली है, जो ऐसा लगता है कि मौजूदा सत्ताधारियों में कूट-कूट कर भरी हुई है। वरना, अगर दूसरे पक्ष का नजरिया सुनने की प्रवृत्ति होती, तो मुमकिन है कि इन कृषि कानूनों के मामले में भी कोई बीच का समाधान निकल सकता था।
यही बात सरकार के तमाम दूसरे अहम फैसलों के बारे में भी कही जा सकती है, जिनमें नागरिकता संशोधन कानून या कश्मीर से जुड़ी धारा 370 को खत्म करने जैसे कदम शामिल हैँ। ये तमाम फैसले अगर लोकतांत्रिक नहीं दिखते, तो इसकी बड़ी वजह यह है कि इन्हें लेने के क्रम में नजरिया आम सहमति के साथ चलने का नहीं, बल्कि बहुमत और सत्ता के जोर से उन्हें थोपने का रहा। नजरिया ऐसा है, जैसे कि संसद में भारतीय जनता पार्टी ने अगर बहुमत हासिल कर लिया, तो उसका मतलब है कि देश में कोई और पक्ष या समूह नहीं हैं। अगर कोई ऐसा होने का दावा करता है, तो वह अवैध या देश-विरोधी है। किसान आंदोलन के क्रम में भी साल भर से अधिक समय तक यही नजरिया हावी रहा। आखिरकार उससे हटते हुए फैसला हआ, तो वह बेमन से और अपने पक्ष को ही सही और दूसरे पक्ष की राय को नासमझी मानते हुए। इस क्रम में ना तो कोई संवाद हुआ, ना ही किसी मंच पर सरकार व्यापक विचार-विमर्श में शामिल हुई। इसीलिए किसान आंदोलन भले एक बड़ी लोकतांत्रिक जीत हो, लेकिन उस जीत से देश के लोकतंत्र के लिए संभावनाएं बहुत उज्ज्वल नहीं हुई हैँ।
नया इण्डिया
Next Story