सम्पादकीय

विपक्षी दल जनादेश के संदेश को सही से समझें और अपनी रीति-नीति नए सिरे से तय करें

Rani Sahu
12 March 2022 3:14 PM GMT
विपक्षी दल जनादेश के संदेश को सही से समझें और अपनी रीति-नीति नए सिरे से तय करें
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पांच राज्यों के चुनाव नतीजे कई दृष्टि से ऐतिहासिक होने के साथ ही भविष्य की राजनीति पर गहरा असर डालने वाले भी हैं

संजय गुप्त।

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे कई दृष्टि से ऐतिहासिक होने के साथ ही भविष्य की राजनीति पर गहरा असर डालने वाले भी हैं। इन नतीजों को लेकर ममता बनर्जी समेत अन्य विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया उनके संकुचित दृष्टिकोण को ही बयान कर रही है, जबकि आवश्यक यह है कि वे जनता के मन-मिजाज को समझने के साथ राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर अपना एजेंडा स्पष्ट करें। इसलिए करें, क्योंकि चार राज्यों में भाजपा की जीत में राष्ट्रीय मुद्दों की भी भूमिका रही है। आज का मतदाता क्षेत्रीय मसलों के साथ ही राष्ट्रहित के मुद्दों को भी ध्यान में रखकर वोट देता है। इसी कारण जहां उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने सत्ता में वापसी के साथ 37 साल से चला आ रहा मिथक तोड़ा, वहीं उत्तराखंड में यह धारणा खंडित की कि हर चुनाव में सत्ता बदल जाती है। चार राज्यों में भाजपा की जीत की तरह पंजाब में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी अकल्पनीय प्रदर्शन कर बड़ा संदेश दिया है।

राजनीतिक रूप से सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा ने सपा की चुनौती को जिस तरह मात दी, उसका महत्व इसलिए अधिक है, क्योंकि ऐसा माहौल बनाया जा रहा था कि भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा और कथित किसान आंदोलन, लखीमपुर खीरी और हाथरस जैसे कांड उसे बहुत महंगे पड़ेंगे। ऐसा नहीं हुआ। लखीमपुर खीरी समेत 23 जिलों में विरोधी दलों का खाता भी नहीं खुला। उत्तर प्रदेश में भाजपा को कोविड महामारी से उपजी कठिन चुनौतियों के बीच भी जीत इसलिए मिली, क्योंकि जनता ने पिछले पांच साल सुशासन को महसूस किया और विपक्षी दलों के दावों पर भरोसा नहीं किया। कथित किसान आंदोलन के बहाने भाजपा को किसान विरोधी साबित करने की कोशिश जाट बहुल पश्चिमी यूपी में भी नाकाम रही। इस नाकामी की बड़ी वजह यह रही कि आम किसान यह देख रहा था कि भाजपा किसान सम्मान निधि समेत अन्य योजनाओं से उसकी समस्याएं हल करने की हर संभव कोशिश कर रही है।
सपा ने भाजपा को चुनौती अवश्य दी और अपनी सीटें एवं वोट प्रतिशत भी बढ़ाया, लेकिन वह यादव-मुस्लिम समीकरण बनाकर भी आगे इसलिए नहीं बढ़ सकी, क्योंकि ऐसा कोई खाका पेश करने में नाकाम रही, जिस पर जनता भरोसा कर पाती। मुस्लिमों और यादवों की गोलबंदी सीमित असर तो डाल सकती है, लेकिन वह निर्णायक जनादेश नहीं दिला सकती। सपा को यह भी समझना होगा कि ध्रुवीकरण के जवाब में भी ध्रुवीकरण होता है।
भाजपा ने अपने राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ अपनी राजनीति को जो स्वरूप प्रदान किया है, विपक्ष को उसकी गहराई में जाने की आवश्यकता है। जो लोग भाजपा को हिंदुत्ववादी करार देकर उसे सांप्रदायिक बताते हैं, वे भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को नहीं समझते। भाजपा ने इसी स्वरूप को अपनी राजनीति का एक आधार बनाया है। जो हिंदुत्व भाजपा के डीएनए में है, वह सनातन संस्कृति का संस्कार है। जब कोई इस संस्कार को नकारता है या भारतीयता के पर्याय हिंदुत्व को लांछित करता है तो जनता में उसकी प्रतिक्रिया होती है, जिसका लाभ भाजपा उठाती है। इसी कारण विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी के करिश्मे का कोई तोड़ नहीं खोज पा रहा है। चार राज्यों और खासकर उत्तर प्रदेश में भाजपा ने डबल इंजन सरकार की क्षमता प्रदर्शित कर जीत हासिल की। यह जीत इसलिए आसान हो गई, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सपा शासन में कानून एवं व्यवस्था की बदहाली और जंगलराज वाले खौफ को बयान करने में सफल रहे। यह एक तथ्य है कि योगी सरकार कानून का राज कायम करने में सफल रही।
उत्तराखंड में भाजपा ने कांग्रेस की बदहाली का भी फायदा उठाया। तीन बार मुख्यमंत्री बदले जाने के बावजूद पुष्कर सिंह धामी बिगड़ते हालात संभालने में सफल रहे। कांग्रेस ने अपनी निष्क्रियता और निर्णयहीनता के कारण भाजपा की राह आसान बना दी। अब यह भी साफ हो गया कि गांधी परिवार में न तो कांग्रेस को दिशा देने की राजनीतिक सूझबूझ है और न ही यह समझने की क्षमता कि तमाम समस्याओं की जड़ में खुद उसका रवैया है। एक समस्या यह भी है कि कांग्रेस राष्ट्रीय मसलों पर वैसी ही संकीर्णता दिखाने लगी है, जैसी क्षेत्रीय दल दिखाते हैं। उत्तराखंड में राहुल गांधी ने हरीश रावत पर भरोसा नहीं किया और पंजाब में अमरिंदर सिंह पर। नवजोत सिंह सिद्धू के कहने पर अमरिंदर को मुख्यमंत्री पद से अपमानजनक तरीके से हटाकर कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़़ी मार ली। रही-सही कसर चरणजीत सिंह चन्नी और सिद्धू की लड़ाई ने पूरी कर दी। इसका लाभ आप को मिला, जो पहले से ही पंजाब में अपनी जड़ें जमा रही थी। उसे कांग्रेस की आपसी लड़ाई के साथ ही भरोसा खो चुके अकाली दल के कारण प्रचंड जीत मिली। यह जीत क्षेत्रीय दलों के लिए एक सबक भी है, लेकिन आप के नेताओं को यह ध्यान रखना होगा कि उनके सामने उन समस्याओं से पार पाने की चुनौती भी है, जिनसे आज पंजाब जूझ रहा है। पंजाब सरीखे सीमांत राज्य का शासन चलाने के लिए कहीं अधिक राजनीतिक परिपक्वता की आवश्यकता है।
जब भाजपा चार राज्यों में मिली जीत को 2024 के आम चुनाव में विजय के आधार के रूप में देख रही है, तब एक खास सोच वाले लोग उसकी सफलता को लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती बता रहे हैं। आम तौर पर ये वही लोग हैं जिनका एजेंडा ही हर सूरत में भाजपा का अंध विरोध करना है। उन्हें न तो भारतीयता की समझ है और न ही राष्ट्रवाद की। इसी समझ का अभाव कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों में भी है। मोदी को अलोकतांत्रिक बताने वाले यह देखने से इन्कार करते हैं कि कांग्रेस समेत अन्य दल किस तरह परिवारवाद में डूबे हैं और सामंती तरीके से संचालित हो रहे हैं। आखिर जो दल अपने परिवार हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हों, वे समाज और लोकतंत्र का भला कैसे कर सकते हैं? इसी सवाल पर प्रधानमंत्री ने फिर यह कहा कि परिवारवादी राजनीति ने राज्यों को पीछे धकेला है और चूंकि मतदाता इसे समझ चुके हैं, इसलिए वे ही एक दिन इस राजनीति का सूर्यास्त करेंगे। विपक्षी दलों के लिए यही बेहतर है कि वे जनादेश के संदेश को सही से समझें और अपनी रीति-नीति नए सिरे से निर्धारित करें। ऐसा करके ही वे अपना और देश का भला कर सकेंगे।
Rani Sahu

Rani Sahu

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