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देशभर में शहरों का बहुत बड़ा भूभाग आज अतिक्रमण का शिकार है
कैलाश बिश्नोई।
देशभर में शहरों का बहुत बड़ा भूभाग आज अतिक्रमण का शिकार है। केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार देश में 32.77 लाख एकड़ वन भूमि पर अतिक्रमण हो चुका है। रक्षा क्षेत्र के लिए आवंटित 9,375 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा है। रेलवे की लगभग दो हजार एकड़ जमीन पर अतिक्रमण हो चुका है। कई अन्य सरकारी विभागों की जमीनों पर भी अतिक्रमण है। इसके चलते शहरों में झुग्गी बस्तियां बढ़ती जा रही हैं। नतीजा यह है कि हमारे देश के छोटे-बड़े शहर ट्रैफिक जाम, प्रदूषण और जीवन को कष्टकारी बनाने वाली अन्य अव्यवस्थाओं से घिरते जा रहे हैं। आज देश के कई शहर बेतरतीब विकास का शर्मनाक नमूना बन गए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि शहरों में झुग्गी बस्तियों का निर्माण शहरीकरण की नीतियों में विसंगतियों का परिणाम है।
झुग्गी बस्तियों का मुद्दा : भारत में पिछले दो-तीन दशकों में शहरीकरण की गति बहुत तेज रही है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, वर्तमान में हर तीन भारतीय में से एक व्यक्ति शहरों या कस्बों में रहने लगा है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की 50 प्रतिशत आबादी कस्बों व नगरों में रहने लगेगी। तेजी से बढ़ते शहरीकरण के साथ शहरों में झुग्गी-बस्तियों की समस्या गंभीर होती जा रही है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारतीय शहरों में लगभग नौ लाख बेघर लोग रहते हैं, जबकि लगभग 6.5 करोड़ लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगभग 65 प्रतिशत भारतीय शहरों के आसपास झुग्गियां और स्लम क्षेत्र मौजूद हैं, जहां लोग काफी घनी बस्तियों में रहते हैं
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अवस्थित बस्तियां इसके कुल क्षेत्रफल के मात्र 0.6 प्रतिशत हिस्से (दिल्ली मास्टर प्लान, 2021 में आवासीय भूमि का 3.4 प्रतिशत) में फैली हुई हैं। हालांकि इतने छोटे क्षेत्रफल में एक अनुमान के अनुसार दिल्ली की लगभग 20 प्रतिशत आबादी दशकों से निवास कर रही है। यह चिंता की बात है कि अक्सर शहरी क्षेत्र में वहनीय आवासों के अभाव में एक बड़ी आबादी को गैर-कानूनी रूप से स्थापित झुग्गी बस्तियों या असुरक्षित क्षेत्रों में रहना पड़ता है, जहां स्वच्छ जल, वायु आदि जैसी मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं।
झुग्गी-बस्तियां भीड़-भाड़ वाली, निम्न आय वाले लोगों की बस्तियां होती हैं, जो अक्सर अनियोजित तरीके से बसी होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप संकीर्ण गली-मोहल्लों में झुग्गियों का फैलाव होता है। इन बस्तियों में रहने वाले लोगों के घरों की हालत काफी ज्यादा खराब होती है। इन घरों की गुणवत्ता काफी निम्न प्रकार की होती है। प्रति व्यक्ति रहने के लिए स्थान बहुत कम होता है। यहां के लोगों को अक्सर स्वच्छता की समस्या से जूझना पड़ता है और असुरक्षित आवासीय स्थिति का सामना करना पड़ता है। शहरों में मलिन बस्तियों की बढ़ती संख्या जलवायु परिवर्तन पर घातक प्रभाव डालती है। साथ ही बढ़ते प्रवासन का एक महत्वपूर्ण कारक भी है। झुग्गी बस्तियों के अलावा शहरों में इसके बड़ी तादाद में लोग पुलों के नीचे, सड़कों पर और जहां-तहां जीवनयापन को मजबूर होते हैं। विडंबना की बात यह है कि वर्तमान में शहरी बेघरों की संख्या गांवों के बेघरों से भी अधिक है
बात देश की राजधानी दिल्ली की करें तो सेंटर फांर रीजनल एंड अर्बन एक्सीलेंस की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 880 से ज्यादा छोटे-बड़े स्लम एरिया हैं, जिनकी जनसंख्या करीब 20 लाख है। दिल्ली में लगभग 90 प्रतिशत झुग्गियां अनियमित कालोनी के रूप में सरकारी जमीन पर है। इतना ही नहीं, 69वें नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार दिल्ली की कुल झुग्गी बस्तियों में से 28 प्रतिशत रेलवे की भूमि पर हैं।
कम आय बड़ा कारण : कम आय और गरीबी इन दोनों के कारण ही ज्यादातर मलिन बस्तियों या झुग्गी झोपडिय़ों का विस्तार हुआ है। इन लोगों के पास इतने संसाधन नहीं होते कि मलिन बस्तियों के बाहर घर लेकर रह सकें। सस्ता शहरी आवास और अपर्याप्त आपूर्ति की बढ़ती मांग के बीच अंतर ने मलिन बस्तियों के गठन को प्रोत्साहित किया है। जब भी शहरी घरों की मांग बढ़ती है तो उसे औपचारिक क्षेत्रों के द्वारा पूरा नहीं किया जाता है। इससे बढ़ती जनसंख्या को झुग्गी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में यह उल्लेख है कि इन शहरी झुग्गियों में रहने वाली आबादी हर स्वास्थ्य मानक में अन्य देशवासियों से कहीं पीछे है। अध्ययनों से पता चलता है कि गरीब एवं मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग कर्ज और सामाजिक-आर्थिक ठहराव के दुष्चक्र में फंसे रहते हैं। इस प्रकार इनके जीवन स्तर में कभी सुधार नहीं हो पाता। इनमें रहने वाले बड़ी संख्या में परिवार ऋण के भार से दबे होते हैं।
आगे की राह : भारत में एक व्यापक नीति का अभाव है जो मलिन बस्तियों को परिभाषित करती हो तथा स्लम-मुक्त शहरों के निर्माण करने का प्रविधान करती हो। ऐसे में झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्रों के हालात सुधारने के लिए निचले स्तर पर सर्वेक्षण करके यथानुरूप नीतियां बनाने की आवश्यकता है। सबसे पहले तो अस्थायी गरीब बस्तियों में रहने वालों का सही आंकड़ा ज्ञात किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन बस्तियों की परिभाषा ही स्पष्ट नहीं है, जो बहुतों को गिनती में नहीं लेती। अगर शहरी विकास मंत्रालय, राज्य सरकारें और संबद्ध विभाग मिलकर काम करें और झुग्गी बस्तियों से जुड़ी कोई स्पष्ट नीति तैयार करें तो लोगों की समस्या को दूर किया जा सकता है। आज यह समस्या केवल एक शहर की नहीं है, बल्कि देश के लगभग हर शहर की है।
हमारे नीति-नियंताओं और खासकर शहरों के योजनाकारों को यह भी समझना होगा कि झुग्गी बस्तियों को हटाना मात्र समस्या का सही समाधान नहीं है। सही समाधान है कामगार तबके के लिए शहरों के अंदरूनी हिस्सों में व्यवस्थित और साफ-सुथरे बहुमंजिला आवास का निर्माण करना। कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार को प्राइवेट बिल्डर्स और रियल एस्टेट डेवलपर्स के साथ-साथ सरकारी एजेंसियों, जैसे विकास प्राधिकरणों और आवास बोर्डों द्वारा निर्मित आवासों में गरीब लोगों के लिए किफायती आवासों की संख्या का हिस्सा या प्रतिशतता अवश्य निर्धारित करनी चाहिए। सरकार का लक्ष्य केवल झुग्गी वासियों के लिए घर बनाने पर न होते हुए, लोगों के लिए आजीविका विकल्प, सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने पर भी केंद्रित होना चाहिए। इन तमाम उपायों को अमल में लाने पर ही इस समस्या से निपटा जा सकता है।
आर्थिक विकास के इंजन हैं महानगर % संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 में भारत की शहरी आबादी दुनिया में सर्वाधिक होगी, जो वर्तमान 41 करोड़ से बढ़कर आबादी 81 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में शहरीकरण का लाभ उठाने के मद्देनजर जरूरी है कि शहर सुनियोजित रूप से विकसित हों, उनमें जल और बिजली आपूर्ति, साफ-सफाई और ठोस कचरा प्रबंधन प्रणाली बेहतर हो, सुचारु और तीव्र आवागमन, पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन तथा ई-गवर्नेंस और इसमें नागरिकों की भागीदारी हो।
भारत के आर्थिक विकास में शहरों की प्रमुख भूमिका रही है। भारत के शहर देश के आर्थिक 'पावरहाउसÓ माने जाते हैं और बेहतर जीवन की चाह रखने वाली एक बड़ी ग्रामीण आबादी के लिए चुंबक की तरह कार्य करते हैं। शहर देश की केवल तीन प्रतिशत भूमि की हिस्सेदारी रखते हैं, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 70 प्रतिशत से अधिक का योगदान करते हैं जो उनकी उच्चस्तरीय आर्थिक उत्पादकता को रेखांकित करता है। शहर देश के विकास का इंजन हैं। शहर निरंतर विकास प्रक्रिया से गुजरते रहते हैं, वे न केवल आर्थिक विकास के चालक हैं, बल्कि वैश्विक ज्ञान के आदान-प्रदान और नवाचार अवसरों के लिए चुंबक की तरह भी होते हैं। उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति में सक्षम बनाने के लिए, शहरों के नियोजन को (जिसमें भूमि-उपयोग, आवास, परिवहन जैसे विभिन्न घटक शामिल हैं) को नया रूप देना महत्वपूर्ण है।
आजादी के 74 वर्षों बाद भी शहरों में बिजली, पानी, यातायात और आवास ही मुख्य समस्या हैं। इसका मुख्य कारण है केद्रीकृत नियोजन पर जोर और स्थानीयता के सिद्धांत को नहीं अपनाना। यह सिद्धांत कहता है कि समस्याओं का समाधान जितना संभव हो स्थानीय स्तर पर ही होना चाहिए। पानी के स्रोतों का उपयोग करने का अधिकार मिलने पर जनता न केवल उसे बेहतर ढंग से उपयोग में ला सकती है, बल्कि भविष्य की जरूरतों के अनुसार उसका उचित संरक्षण भी करेगी। शहरों में परिवहन सेवाएं पूरी कनेक्टिविटी नहीं दे पाई हैं, क्योंकि योजना निर्माता साइकिल रिक्शा, आटो, ई-रिक्शा आदी को उचित ढंग से योजनाओं में जगह नहीं दे पाए हैं। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि हम कुछ बड़े शहरों का विकास करने के बजाए कई छोटे शहरों का विकास करें। सैटेलाइट शहर अर्थात शहरों के पास उपनगरों का विकास इसी का एक तरीका है। वर्तमान केंद्र सरकार जिन 100 स्मार्ट शहरों की बात कर रही है उसके पीछे भी संभवत: यही भावना है।
भारतीय महानगरों की एक हकीकत यह भी है कि एक तरफ यहां गगनचुंबी इमारतें हैं तो उनके सामने ही झुग्गी बस्तियां भी हैं, जो शहरीकरण की एकदम अलग तस्वीर पेश करती हैं। भारत में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है, परंतु इसके लिए पर्याप्त रूप से नीतियां नहीं बनाई गई हैं। प्रतिदिन हजारों लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं। इनमें से अधिकतर शहरों की मलिन बस्तियों में रहते हैं। देश में झुग्गी-बस्तियों की विकराल होती समस्या का सबसे बड़ा कारण देश में प्रभावी नगर नियोजन का अभाव है। शहरी नियोजन शहरों, नागरिकों और पर्यावरण के एकीकृत विकास की नींव होता है। दुर्भाग्य से इस पर अब तक उचित ध्यान नहीं दिया गया है।
मौजूदा शहरी नियोजन और शासन ढांचा जटिल है, जो अक्सर अस्पष्टता और जवाबदेही की कमी की ओर ले जाता है। शहरी नियोजन के लिए अधिकांश राज्य केंद्र सरकार के 1960 के माडल टाउन एंड कंट्री प्लानिंग कानून पर निर्भर हैं, जो स्वयं 1947 के ब्रिटिश टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट से लिया गया है, जबकि ब्रिटेन में भी इसे पूरी तरह से बदल दिया गया है। देश की वर्तमान शहरी नियोजन व्यवस्था के साथ महत्वपूर्ण चिंता यह भी है कि यह भूमि उपयोग के पुराने तरीकों पर आधारित है। हमें इससे आगे बढ़ते हुए ऐसी योजना और प्रक्रिया अपनानी होगी जो लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप हो।
Rani Sahu
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