सम्पादकीय

संवरना चाहिए गुणवत्तापूर्ण अध्यापक शिक्षा का स्वरूप, मील का पत्थर होगी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020

Gulabi Jagat
26 Aug 2022 5:23 PM GMT
संवरना चाहिए गुणवत्तापूर्ण अध्यापक शिक्षा का स्वरूप, मील का पत्थर होगी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020
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पंकज आरोड़ा। अगले वर्ष से देश में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की अपेक्षाओं के अनुरूप एक गुणवत्तापूर्ण अध्यापक शिक्षा का पाठ्यक्रम लागू करने की घोषणा की गई है। अब एनसीटीई यानी राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद की यह जिम्मेदारी है कि वह एक गुणवत्तापूर्ण अध्यापक शिक्षा का पाठ्यक्रम देश के समक्ष प्रस्तुत करे। ध्यान रहे कि यह अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने वाली नियामक संस्था है। उम्मीद है कि यह संस्था नई शिक्षा नीति की अपेक्षाओं के संग न्याय करेगी।
अध्यापक शिक्षा क्या है? क्या अध्यापक जन्मजात होते हैं या उन्हें किसी प्रशिक्षण के माध्यम से तैयार किया जाता है? वैदिक काल में अध्यापकों की शिक्षा एवं प्रशिक्षण से संबंधित कोई औपचारिक व्यवस्था नहीं हुआ करती थी, परंतु आज भारत में जो अध्यापक शिक्षा का रूप है, हम उसकी जड़ें वैदिक काल से आकार लेते हुए देख सकते हैं। उस समय समाज में अध्यापक रूपी 'गुरु' का स्थान सर्वोच्च माना जाता था। वैदिक काल में शिक्षण का संबंध वेदों के शिक्षण से था और शिक्षा की पूरी प्रणाली मौखिक हुआ करती थी।
एक शिष्य को भावी अध्यापक के रूप में विकसित करने के लिए चयन और तैयारी बहुत गंभीरता के साथ की जाती थी। वैदिक काल में अध्यापक और शिष्यों का संबंध पिता-पुत्र के समतुल्य माना जाता था, जहां दोनों एक-दूसरे के प्रति सम्मान और देख-भाल का भाव रखते थे। चूंकि यहां अध्यापक शिक्षा की कोई औपचारिक व्यवस्था मौजूद नहीं थी तो शिष्य उन्हीं पद्धतियों का उपयोग करते थे, जो उन्हें अध्यापक द्वारा सिखाए जाते थे। हालांकि वे समय के साथ उन पद्धतियों को समयानुकूल ढाला करते थे।
शिक्षण कौशल सीखने के लिए जिन अन्य पद्धतियों को अभ्यास में लाया गया, वे अनुकरणीय थीं। इस व्यवस्था में अध्यापकों को जिस तरीके से तैयार किया जाता था, हम उसे वर्तमान के मेंटरिंग माडल के रूप में देख सकते हैं। वैदिक काल में शिक्षकों की अनुपस्थिति के दौरान सामान्य रूप से कक्षा में अध्यापन के लिए बौद्धिक रूप से तेज एवं कुशाग्र छात्रों को कर्तव्य सौंपे जाते थे, ताकि अध्यापक की अनुपस्थिति में वे अपनी क्षमताओं और सीखी गई पद्धतियों को प्रयोग में ला सकें।
वैदिक युग के अंत तक आते-आते अध्यापकों को तैयार करने की इस प्रणाली में वैदिक साहित्य से अधिक समावेशी पाठ्यक्रम ने स्थान ले लिया, जिसमें दर्शन, धर्मशास्त्र, महाकाव्य (रामायण और महाभारत), व्याकरण, खगोलविद्या, मूर्तिकला, वैद्यक, पोतनिर्माण कला शामिल किए गए। हालांकि तब भी शिष्यों को अध्यापक के रूप में ढालने के लिए कोई औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी। जो शिष्य इन विषयों/कौशलों में निपुणता प्राप्त कर लेते थे, उनके लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं मानी जाती थी।
प्राचीन काल से मध्य काल तक कमोबेश यही माडल प्रचलित रहा। ब्रिटिश काल में अध्यापकों के शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए अनेक उपाय किए गए। इस क्रम में कई सारे आयोगों, समितियों के रिपोर्ट को आधार बनाया गया, जिसमें 1854 के वुड्स नीतिपत्र का उल्लेखनीय योगदान रहा, जिसने शिक्षकों को तैयार करने के लिए एक औपचारिक व्यवस्था को जन्म दिया। भारत में 1932 तक 18 विश्वविद्यालयों में से 13 में शिक्षा विभाग स्थापित किए गए। यहां से देश में औपचारिक अध्यापक शिक्षा व्यापक रूप लेने लगी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में विभिन्न शिक्षा आयोगों एवं समितियों के सुझावों के जरिये अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में सुधार एवं परिवर्तन किया गया। इसमें सबसे खास योगदान 1964-66 के राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का रहा, जिसे कोठारी आयोग भी कहते हैं। इसकी रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया गया कि सेवाकालीन शिक्षा के दौरान व्यापक इंटर्नशिप कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए। व्यावसायिक शिक्षा में सेवाकालीन कार्यक्रम प्रदान किया जाए। इसके साथ अध्यापक शिक्षा से जुड़े सभी पाठ्यक्रमों की अवधि बढ़ाने पर भी जोर दिया गया। बाद में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) और राष्ट्रीय शिक्षक आयोग (चट्टोपाध्याय आयोग) 1983-85 ने क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में चलाए जा रहे अध्यापक शिक्षा के चार-वर्षीय एकीकृत कार्यक्रम की वकालत की।
अध्यापक शिक्षा के मामले में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 एक मील का पत्थर प्रतीत होती है, जो वर्तमान अध्यापक शिक्षा में सुधार और शिक्षण को आकार देने के लिए सभी आवश्यक कारकों का समावेश करती है। यह अपने बहुआयामी दृष्टिकोण से अध्यापक शिक्षा को पुनर्जीवित करने को समर्पित है। नई शिक्षा नीति ने बहुविषयक संस्थानों में चार-वर्षीय एकीकृत शिक्षक शिक्षा लाने पर पर्याप्त जोर दिया है।
इसमें जिस बहु-विषयात्मक शिक्षा एवं नए स्कूली ढांचे की परिकल्पना की गई है, उसके लिए ऐसे प्रभावी और शोध उन्मुखी अध्यापकों की जरूरत है, जो अपनी विषय-वस्तु के साथ-साथ शिक्षाशास्त्र में भी पारंगत हों। यह शिक्षा नीति भ्रष्ट और गैर-जिम्मेदार अध्यापक शिक्षा संस्थानों के उपचार के लिए सख्त कार्रवाई करने का खाका भी प्रस्तुत करती है। एकीकृत शिक्षक शिक्षा एक ऐसे व्यापक इंटर्नशिप कार्यक्रम को महत्व देती है, जो विद्यार्थी-अध्यापकों को समुदाय की अवधारणाओं से जोड़ सके। विद्यालयों एवं समुदायों में जाकर कार्य करना और समाज उपयोगी एवं राष्ट्र प्रेम की भावना को बढ़ावा देना इस नीति का एक महत्वपूर्ण सुझाव है।
उम्मीद है कि एकीकृत शिक्षक शिक्षा का यह पाठ्यक्रम मूल्य आधारित एवं युगों से विद्यमान भारतीय ज्ञान व्यवस्था, व्यावहारिक अनुप्रयोग, तकनीकी और बदलती सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप भावी पीढ़ी के लिए अध्यापकों को तैयार करने और जिम्मेदार नागरिक तैयार करने में अपनी भूमिका निभाएगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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