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उदयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत जोड़ो पद यात्रा का ऐलान किया है
राजेश बादल
उदयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत जोड़ो पद यात्रा का ऐलान किया है। भारत में पदयात्राओं के जरिए अपने आप को संप्रेषित करने वाले महात्मा गांधी के जन्म दिवस से यह यात्रा प्रारंभ होगी। पार्टी को उम्मीद है कि इस यात्रा से भारत के सामाजिक ढांचे में बिखराव को रोकने और सांप्रदायिक सदभाव बढ़ाने में सहायता मिलेगी।
दरअसल, एलान के मुताबिक इस यात्रा का मकसद सियासी नहीं लगता, लेकिन सियासत करने वाली पार्टी को इसका लाभ मिलता है तो मौजूदा राजनीतिक माहौल में उससे परहेज भी क्यों किया जाना चाहिए? वैसे भारत में सामान्य यात्राएं और पैदल यात्राएं अक्सर क़ामयाब होती रही हैं बशर्ते उनका उद्देश्य सामाजिक या राष्ट्रीय हित में रहा हो।
महात्मा गांधी की पंद्रह साला यात्राएं
महात्मा गांधी ने अपनी जिंदगी में करीब पंद्रह साल तक यात्राएं कीं। इनमें पैदल के अलावा रेल, बस, मोटर - कार, साइकल और पालकी से की गई यात्राएं शामिल हैं। अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह मानकर उन्होंने 1915 में पहली यात्रा भारत को समझने के लिए की थी।
बापू की यह सारी ही यात्राएं साल भर चली थी और ज्यादातर रेल के तीसरे दर्जे में की गई थी। इसके बाद तो उनकी यात्राओं का जो सिलसिला शुरू हुआ तो आख़िरी सांस तक चलता रहा। चंपारण सत्याग्रह और उसके बाद नमक पर टैक्स के विरोध में साबरमती आश्रम से दांडी तक करीब 358 किलोमीटर की पद यात्रा आज भी ऐतिहासिक मानी जाती है।
विनोबा भावे की भूदान यात्रा
गांधी जी के बाद उनके शिष्य और सर्वोदय आंदोलन के अगुआ संत विनोबा भावे की पद यात्राएं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जारी रहीं। इनमें सर्वाधिक चर्चित 1951 की भूदान यात्रा थी। इस यात्रा में देशभर के लाखों गरीबों और भूमिहीनों को ज़मीन मुहैया कराई गई थी। अनूठी बात यह है कि उस वंचित वर्ग के लिए ज़मीन देने का काम समाज की ओर से किया गया था।
तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव से यह भूदान यात्रा शुरू हुई थी और तेरह साल में विनोबा जी ने हजारों किलोमीटर ( 58741 ) अपने पैरों से नाप लिए थे। तब इस आंदोलन को भूदान यज्ञ भी कहा गया था। इसमें लगभग 44 लाख एकड़ भूमि हासिल की गई और 13 लाख एकड़ से अधिक ग़रीबों और भूमिहीनों में बांट दी गई थी।
खास बात यह है कि संसार भर में उस समय इसे अनोखी घटना माना गया था और विनोबा भावे को एक चमत्कारी पुरुष। आज तो हम एक एक इंच भूमि पर खूनी संघर्ष होते देखते हैं। ऐसे में भूदान आंदोलन पर नई नस्लों को कितना यकीन होगा।
सुनीलदत्त की शांति यात्राएं
विनोबा जी के बाद जिस राजनेता ने अपनी पद यात्राओं से मुल्क में शान्ति और सदभाव कायम करने का प्रयास किया, उसे हम इस योगदान के लिए याद नहीं करते। फिल्म अभिनेता और फिर राजनेता बने सुनील दत्त की पदयात्राएं आज के सियासतदानों के लिए मिसाल हैं। जब पंजाब में आतंकवाद एक गंभीर समस्या बन गया था तो सुनील दत्त ने शान्ति के लिए मुंबई से अमृतसर तक क़रीब 2000 किलोमीटर पदयात्रा की थी। पैंतीस साल पहले हुई इस पदयात्रा के बारे में कितने लोग जानते हैं?
सुनील दत्त ने इसके बाद 1988 में विश्व शांति और परमाणु हथियारों के ख़िलाफ़ एक मुहीम छेड़ी और पांच सौ किलोमीटर की पदयात्रा की। तीन साल 1990 में बिहार के भागलपुर में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति बनी। हिंसक वारदातें हुईं। इसके बाद सुनील दत्त ने वहां भी साम्प्रदायिक सदभाव के लिए पदयात्रा की।
सुनील दत्त की अगली पद यात्रा फैज़ाबाद से अयोध्या तक धार्मिक सदभाव के लिए हुई थी। उन्हीं दिनों कांग्रेस ने सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए पार्टी में सदभावना के सिपाही नामका प्रकोष्ठ बनाया था। अफ़सोस..! सुनीलदत्त के नहीं रहने पर यह प्रकोष्ठ दम तोड़ गया। लेकिन हिन्दुस्तान को जोड़ने वालीं पद यात्राओं में सुनीलदत्त की यात्राएं भुलाई नहीं जा सकतीं।
चंद्रशेखर की अधिकार यात्रा
लेकिन सुनीलदत्त से पहले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की 1983 में की गई पदयात्रा को भी नहीं भुलाया जा सकता। वह कन्याकुमारी से दिल्ली तक की पदयात्रा थी। उस यात्रा में करीब सौ किलोमीटर तक पत्रकार के रूप में पदयात्रा के कवरेज का अवसर मुझे भी मिला था। उन दिनों मैं इंदौर से प्रकाशित नईदुनिया में सह-संपादक था। वह एक विलक्षण यात्रा थी।
चंद्रशेखर की इस यात्रा के सिर्फ़ पांच बुनियादी मसले थे। देश के हर नागरिक को पीने का पानी मिले, कुपोषण दूर हो जाए,प्रत्येक बच्चे को पढ़ने का समान अवसर मिले। हर नागरिक को स्वास्थ्य और इलाज की बेहतर सुविधाएं मिलें और प्रत्येक भारतवासी को सम्मान से जीने का अधिकार मिले। ये सब आसमानी चाहतें नहीं थीं,बल्कि संवैधानिक गारंटी थी,जो संविधान निर्माताओं ने इस देश को दी थी।
आडवाणी की रथ यात्राएं
एक बार सियासी यात्राओं के बारे में जानना भी दिलचस्प होगा। हालांकि इनमें कुछ पदयात्राएं और कुछ वाहन यात्राएं हैं। सर्वाधिक चर्चित और जनमत बटोरने वाली यात्रा तो 1990 में बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या यात्रा थी। श्री आडवाणी अपने विशेष रथ में निकले थे और चालीस दिनों में 23 प्रदेशों तथा चार केंद्र शासित राज्यों में घूमे थे।
अयोध्या में राममंदिर निर्माण के मुद्दे को पहली बार गंभीरता से भारतीय जनता पार्टी ने उठाया, जिसने बाद में सियासी माहौल बदल कर रख दिया। यात्रा के दरम्यान आडवाणी जी को बिहार में गिरफ़्तार कर लिया गया था। इस यात्रा ने अगले साल लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ा लाभ पहुंचाया था। इसके बाद 1997 में लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वर्ण जयंती रथयात्रा की थी। यह भी चुनावी यात्रा ही थी। इसके बाद 2004 में उनकी एक और भारत उदय यात्रा हुई।
यह भी चुनावी यात्रा थी। दो साल बाद 2006 में उन्होंने भारत सुरक्षा रथ यात्रा और 2009 में चुनावी जनादेश यात्रा निकाली। बताने की ज़रुरत नहीं कि इनके मिश्रित परिणाम मिले थे। लाल कृष्ण आडवाणी के अलावा पार्टी के एक पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी ने भी 1991 -1992 में एक बड़ी यात्रा की थी।
इसे एकता यात्रा नाम दिया गया था और यह कन्याकुमारी से कश्मीर तक आयोजित थी। कश्मीर में आतंकवाद उन दिनों सर उठा रहा था। उन दिनों श्रीनगर के लाल चौक में तिरंगा फहराने के ऐलान का प्रतीकात्मक महत्त्व था।
सियासी यात्राएं और नेता
इसी दौर में दोनों राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दल भी पद यात्राओं से अछूते नहीं रहे। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चंद्रबाबू नायडू ने 1989 में पद यात्रा की थी।
इसके पश्चात् 2013 में उन्होंने 1700 किलोमीटर की पदयात्रा की। यह यात्रा चुनावी थी। वहां के एक और मुख्यमंत्री रहे वाई एस राज शेखर रेड्डी ने 2003 में दो महीने की पद यात्रा की थी। उन्होंने करीब 11 जिलों में 1500 किलोमीटर पद यात्रा की और अगले ही बरस उनकी पार्टी सत्ता में थी। उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी ने 2017 में अपने पिता की शैली में एक पद यात्रा की और 341 दिनों में 3648 किलोमीटर की दूरी तय की। इसका लाभ उन्हें मिला और 2019 में उनकी पार्टी ने शानदार जीत हासिल की।
एक आध्यात्मिक-धार्मिक नर्मदा यात्रा कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने की ,लेकिन वह विशुद्ध धार्मिक परिक्रमा थी। अपने दूसरे विवाह के बाद पत्नी के साथ उनकी यह पारिवारिक परिक्रमा भी थी और इसमें उनके साथ अन्य दलों के लोगों ने भी सहयोग दिया था। अब राहुल गांधी के ऐलान से ठीक पहले बिहार में प्रशांत किशोर ने भी बिहार से पदयात्रा के ज़रिए अपने राजनीतिक भविष्य का आग़ाज करने का निर्णय लिया है।
सियासत में पद यात्राओं का जहां विशुद्ध चुनावी जीत का स्वार्थ होता है, वहीं गैर सियासी यात्राएं देश की लोकतान्त्रिक सेहत के लिए हमेशा लाभप्रद रहती हैं। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा पार्टी के अपने अस्तित्व और जनाधार की भी परीक्षा होगी।
Rani Sahu
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