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- उधार की खुशियां
लोकेंद्रसिंह कोट: खुशियां क्या हैं, क्या वे सहजता से उपलब्ध हैं? आपकी खुशी का स्तर क्या है और आप खुश होना किसे मानते हैं? सोचने पर लगता है कि हास्य रस का रसास्वादन कर हम जीवन को हल्का-फुल्का पाते हैं। हम किसी की आंतरिक कमजोरी या भूल को मूर्खता मान कर ठहाका लगा कर हंस देते हैं, खुश हो जाते हैं। ये ठहाके हम सभ्यता के विकास के साथ ही लगाते आए हैं। मगर बीते एक-डेढ़ दशक में हमने महसूस किया है कि ये ठहाके, हंसी, खुशी दिन-प्रतिदिन कमजोर हुए हैं और चारदीवारी में कैद होकर रह गए हैं। पड़ताल से पता चलता है कि आज हम सामने वाले की जिस मूर्खता पर हंस रहे होते हैं, किसी दूसरे समय में मजबूरी या स्वार्थवश हम भी वही मूर्खता दोहरा रहे होते हैं।
वैसे भी हमारी हंसी और खुशी अन्य तमाम बातों की तरह खुले समतल से उछल कर सजावटी चीज बन कर रह गई है। हम अपनी असली हंसी-खुशी से वास्तव में इतना दूर हो गए हैं कि सामूहिक हंसने के क्लब चर्चा में आ गए हैं। मात्र हंसने जैसे हल्के-फुल्के काम के लिए हमें जद्दोजहद करनी पड़ रही है, तो हमें अपनी समझ पर फिर से विचार करना होगा। हंसी मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी रही है और इसका विकास मानव इतिहास के साथ ही जुड़ा है। समय, समाज और परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ हंसने-हंसाने, खुश रहने की दशा और दिशा भी बदली है। या तो फूहड़, सड़क छाप बातों से हास्य जुड़ गया है या फिर दो लोगों के मध्य दबे मुंह का हास्य, जो निश्चित रूप से तीसरे की मजबूरी पर आधारित होता है।
हमारे अंचल की एक लोककथा है कि एक सेठ और एक दैनिक मजदूरी करने वाला परिवार अड़ोस-पड़ोस में रहते थे। रोज मजदूरी करने वाला परिवार हमेशा हंसी-खुशी रहता था, जबकि सेठ परिवार हमेशा तनाव, भागम-दौड़ में त्रस्त रहता था। एक दिन सेठ ने निन्यानबे रुपए की एक पोटली बांध कर मजदूर के अहाते में फेंक दी। बस फिर क्या था, मजदूर परिवार भी निन्यानबे को सौ करने के चक्कर में लग गया और थोड़े दिनों बाद ही उसके यहां भी सेठ जैसा तनाव, भाग-दौड़ रहने लगी। हंसी-खुशी बिलकुल गायब थी। यही वह निन्यानबे का फेर है, जो हमसे नकली हंसी हंसवा रहा है।
खुशी के मनोविज्ञान में घुसने से पहले यह समझ लें कि आखिर इस दुनिया में हम जो भी काम करते हैं उसके पीछे एक ही चाहत होती है, खुशी! कितना खुश हम रहते हैं यह अलग बात है। हमारी खुशी तो पड़ोसी की नई कार से ही गायब हो जाती है। तराजू में हर बात तौलने की आदतों में खुशी भी शामिल है। कब यह ऊपर-नीचे हो जाए, पता नहीं चलता। संतुलन में तो यह बिरले के पास ही रहती है।
कल की खुशी की तलाश में आज का हर पल तमाम होता रहा। जिंदगी के सफर में हम खुशी ही तलाशते रहे और जिंदगी तमाम हो गई। एक स्कूल जाने वाले बच्चे से पूछें कि वह कब खुश हो जाएगा, तो वह बोलता है, मैं जब भैया जितना बड़ा हो जाऊंगा। उसे इतना बड़ा बैग नहीं ले जाना पड़ता, बस एक कापी लो और फुर्र। जब वह कालेज में आ जाए तब पूछिए, अब तो तुम खुश हो? वही बच्चा बोलता है, कहां, अभी सही कालेज नहीं मिला। फिर कहता है, बस अच्छे अंकों से पास हो जाऊं और कहीं चयन हो जाए तब मैं खुश हो जाऊंगा।
चलो, अच्छे अंक मिल गए, मल्टीनेशनल में चयन हो गया, अब तो खुश हो? अभी कहां, बस कार, बंगला और जो सपनों में आती है वह मिल जाए, फिर खुश हो जाऊंगा। चलो भई, यह सब भी पूरा हो गया। अब तो खुश हो? अभी कहां! बस दो नन्हे-मुन्ने हो जाएं, एक-दो पदोन्नति, विदेश दौरा मिल जाए तब खुश हो जाऊंगा। चलो, यह सब भी मिल गया। अब तो खुश हो? नहीं, अभी कहां! ये दोनों बच्चे पढ़ने लग जाएं… इनकी नौकरी लग जाए… इनकी शादी हो जाए, व्यवस्थित हो जाएं। चलिए, यह सब हो गया, अब तो खुश हैं? अब कहां, इतनी बीमारियां…। कुल मिलाकर खुशियां तलाश करते-करते जीवन गुजर जाता है, लेकिन खुशियां मिलती नहीं हैं।
कुछ नहीं तो वस्तुओं में हम खुशियां ढूंढ़ते हैं। नया मोबाइल, कार और बंगला खरीदने पर खुशी होती है, लेकिन कितने दिनों तक। फिर हम व्यक्तियों में खुशियां ढूंढ़ते हैं। नए लड़के-लड़की एक दूसरे के बिना नहीं रहने की कसमें खाते हैं, चांद-तारे तोड़ लाने की बात करते हैं, फिर उन्हें यह बोलते देर नहीं लगती कि मेरा संबंध टूट गया है। कहां गई सारी खुशी? कई बार हम परिस्थिति में खुशियां ढूंढ़ते हैं। कश्मीर, मनाली, पेरिस, स्विट्जरलैंड चले जाएंगे तो खुश हो जाएंगे। पर खुशी वहां भी नहीं मिलती। उधार की खुशियां उधार की ही होती हैं।