सम्पादकीय

सरकार ने एक जिला-एक मेडिकल कालेज के जिस विचार को अपनाया है, उसे अब एक मिशन की तर्ज पर लेना होगा

Rani Sahu
3 March 2022 1:10 PM GMT
सरकार ने एक जिला-एक मेडिकल कालेज के जिस विचार को अपनाया है, उसे अब एक मिशन की तर्ज पर लेना होगा
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रूस-यू्क्रेन युद्ध के साथ ही भारत में चिकित्सा शिक्षा को लेकर एक बड़ी बहस खड़ी हो गई है

डा. अजय खेमरिया।

रूस-यू्क्रेन युद्ध के साथ ही भारत में चिकित्सा शिक्षा को लेकर एक बड़ी बहस खड़ी हो गई है। खासकर महंगी चिकित्सा शिक्षा के साथ आबादी और आवश्यकता के अनुपात में एमबीबीएस की कम सीट संख्या को लेकर। यह सच है कि भारत में एमबीबीएस की डिग्री पाना बेहद कड़ी प्रतिस्पर्धा या संपन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि से ही संभव है, लेकिन यह भी तथ्य है कि आजादी के बाद देश के चिकित्सा शिक्षा ढांचे को कभी गंभीरता से सुगठित करने के प्रयास ही नहीं हुए। 1947 के बाद देश की आबादी तो सात गुना बढ़ी, लेकिन मेडिकल कालेज नहीं। हालांकि मोदी सरकार के आने के बाद चिकित्सा शिक्षा के ढांचे और नियमन को सशक्त बनाने पर काम आरंभ हुआ है। 1940 से 2014 की मध्य अवधि तक सालाना औसतन छह नए मेडिकल कालेज देश में निर्मित हुए, वहीं 2015 से यह आंकड़ा 29 नए मेडिकल कालेज प्रतिवर्ष का है।

आज देश में चिकित्सा महाविद्यालयों की संख्या 586 है, जिनमें 89,875 एमबीबीएस एवं 46,118 पीजी सीटें उपलब्ध हैं। 2014 में देश के सभी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस की सीटें 53,348 एवं पीजी की सीटें 23,000 थीं। इन मेडिकल कालेजों में लगभग आधे यानी 276 निजी हैैं। यानी देश में मध्यम वर्ग के लिए मेडिकल शिक्षा का रास्ता बेहद प्रतिस्पर्धी और खर्चीला है। नतीजतन बड़ी संख्या में बच्चे एमबीबीएस की डिग्री लेने के लिए यूक्रेन, रूस, फिलीपींस, चीन, तजाकिस्तान और यहां तक कि बांग्लादेश का भी रुख करते हैं। इन देशों में बगैर नीट जैसी कठिनतम परीक्षा के सीधे मेडिकल कालेजों में प्रवेश मिल जाता है। एमबीबीएस की पढ़ाई पर भारत में औसतन एक करोड़ रुपये निजी मेडिकल कालेजों में लगता है, वहीं इन देशों में यह खर्च औसतन 20 से 25 लाख रुपये ही आता है। सरकारी कालेजों में सालाना फीस औसतन एक लाख रुपये के आसपास है। करीब 40 हजार बच्चे हर साल विदेश जाकर मेडिकल शिक्षा लेने जाते हैं।
2021 में करीब 17 लाख बच्चों ने नीट की परीक्षा दी और दाखिला मिला 87 हजार को यानी केवल पांच प्रतिशत को। ऐसे में रूस, यूक्रेन, चीन जैसे देशों का विकल्प स्वाभाविक ही मध्यम वर्ग को लुभाता है। हाल में मोदी सरकार ने निर्णय लिया है कि अब निजी मेडिकल कालेजों की आधी सीटों की फीस संबंधित राज्यों के सरकारी मेडिकल कालेजों जितनी होगी, लेकिन सवाल इसके अनुपालन का है। निजी मेडिकल कालेज चलाने वाले आम लोग नहीं हैैं। ऐसे कालेजों नेता, नौकरशाह और धनाढ्य कारोबारियों का ऐसा सिंडिकेट चलाता है, जो मुनाफे के लिए सरकारी तंत्र को ही प्रभावित करने की ताकत रखता है।
आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, पुद्दुचेरी के साथ महाराष्ट्र ने देश की कुल स्वीकृत एमबीबीएस सीटों में से 48 प्रतिशत हिस्सा अपने यहां ले रखा है। खास बात यह है कि 276 निजी मेडिकल कालेजों में से 165 इन सात प्रांतों में ही स्थित हैैं। इन सात प्रदेशों में से केवल 105 कालेज ही सरकारें चलाती हैं। अब तस्वीर का दूसरा पक्ष रूस-यूक्रेन लड़ाई के ताजा संदर्भ में समझा जा सकता है। यूक्रेन में फंसे मेडिकल छात्रों में अधिकतर बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल जैसे हिंदी भाषी प्रांतोंं के हैैं। इन प्रांतोंं की लगभग 65 करोड़ आबादी पर देश की कुल एमबीबीएस सीटों में से उपलब्धता केवल 30 प्रतिशत है। यहां एमबीबीएस की कुल सीट संख्या 25,325 है। इन प्रांतों में कुल 176 मेडिकल कालेज हैैं, जिनमें 72 निजी एवं 104 सरकारी क्षेत्र के हैैं। नगालैंड देश का ऐसा प्रांत है, जहां एक भी मेडिकल कालेज नहीं है। स्पष्ट है देश में चिकित्सा शिक्षा का ढांचा न केवल क्षेत्रीय असुंतलन, बल्कि बेहतर नियमन के अभाव में भी बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। यह सही है कि पिछले सात वर्षों में नीतिगत स्तर पर सुधार के कुछ बुनियादी कदम उठाए गए हैैं, लेकिन अभी एक लंबा सफर तय किया जाना शेष है। केंद्र सरकार ने एक जिला-एक मेडिकल कालेज के जिस विचार को अपनाया है, उसे एक मिशन की तर्ज पर लेना होगा। एक देश-एक स्वास्थ्य नीति एक बेहतर विकल्प है। सभी प्रांतों को अपने राजनीतिक हितों को छोड़कर नीट जैसे एकीकृत माडल पर अपनी सहमति देनी चाहिए, ताकि मेडिकल शिक्षा का ढांचा समरूपता के साथ आगे बढ़ सके। आयुष की उपचार पद्धति को प्रतिष्ठित करने की भी कोशिश करनी होगी, ताकि एलोपैथी के लिए मारामारी खत्म हो। यह भी तथ्य है कि मेडिकल शिक्षा नियमन का काम एक बड़े सिंडिकेट के हवाले रहा है, जिसने इसे मुनाफे का धंधा बनाया है। सरकारी क्षेत्र के लिए नए कालेज खोलने के रास्ते को मेडिकल माफिया ने दुरूह बनाकर रखा है। बेहतर होगा कि राज्य और केंद्र के झगड़ों को विराम देकर हर जिले में एक समग्र मेडिकल कालेज खोलने की जवाबदेही केंद्र सरकार अपने कंधों पर ले। ऐसे समग्र मेडिकल कालेजों में एलोपैथी के साथ आयुष और अन्य परंपरागत भारतीय पद्धतियों के पाठ्यक्रम उसी तरीके से चलाए जाएं, जैसे एलोपैथी के चलाए जाते हैैं। पीजी डिग्री के लिए इंग्लैंड की तर्ज पर जिला एवं सीएचसी को केंद्र बनाया जाए। चिकित्सा शिक्षा और लोक स्वास्थ्य के अलग-अलग ढांचों को देश भर में एकीकृत तंत्र के दायरे में लाना भी जरूरी है।
यह भी समय की मांग है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों को बहु-विषयक बनाकर चिकित्सा शिक्षा से जोड़ा जाए। जैसा कि हाल में जेएनयू में किया गया है। आशा की जानी चाहिए कि रूस-यूक्रेन युद्ध थमने के बाद चिकित्सा शिक्षा को लेकर खड़ा विमर्श ब्रेकिंग न्यूज की तरह गायब होने के स्थान पर नीतिगत बदलाव का वाहक बनेगा।
Rani Sahu

Rani Sahu

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