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जाति का व्यक्ति सिर उठाकर जी सके, इसके लिए निरंतर प्रयास चलते रहने चाहिए।
भारत की आजादी के संघर्ष के दिनों में ही महात्मा गांधी ने सोच लिया था कि यदि देश गुलामी से मुक्त हो गया, तो उसे सात लाख गांवों में ग्राम स्वराज्य का काम पूरा करना चाहिए। इसके लिए उन्होंने देशवासियों के समक्ष अट्ठारह रचनात्मक कार्य प्रस्तुत किए थे, जिनमें सर्वधर्म समभाव, हरिजन सेवा और बुनियादी शिक्षा को प्रमुखता दी गई थी।
आजादी के आंदोलन में संघर्ष कर रहे नेताओं को वह कहते रहते थे कि अपने अंदर की हिंसा त्याग कर समाज और देश में अहिंसा की ताकत से प्रत्येक जाति व धर्म के लोगों का मन जीतकर गुलामी का प्रतिकार करें। इसलिए जब देश आजाद हुआ, तो हिंदू-मुस्लिम के बीच सौहार्द स्थापित करने के लिए गांधी जी ने स्वयं निर्भीकता से सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वालों के बीच जाकर उन्हें समझाने का काम किया था।
दुनिया के लोगों ने भी गांधी के सत्य, अहिंसा, शांति, करुणा, सर्वधर्म समभाव के संदेश से प्रेरणा ली है। बापू को दुनिया में प्रसिद्धि भी इसीलिए मिली कि वह हर हिंसा का जवाब अहिंसा से देते थे। इसके बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में हिंसा और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाली ताकतें हमेशा मौजूद रही हैं, जिन्हें गांधी के रास्ते पर चलना पसंद नहीं है। फलस्वरूप हिंसा का प्रभाव कम न होने से सामाजिक सद्भावना बिगड़ती रहती है।
नफरती हिंसा के नाम पर बयान देने वाले लोग इसके लिए दोषी हैं। यही वजह है कि गांधी के विचारों के अनुरूप समाज बनाने की शक्ति कमजोर होती जा रही है, जिससे सामाजिक समरसता खत्म होती जा रही है। भारत में दूसरे धर्मों के मुकाबले हिंदू धर्म के लोगों की संख्या कहीं अधिक है। हिंदुओं में भी विभिन्न जातियों के बीच छुआछूत और भेदभाव की भावना बरकरार है। हिंदू समाज में ऊंच-नीच की मानसिकता के कारण ही असमानता बनी हुई है।
समाज की इस सच्चाई को देखकर गांधी विचार से जुड़े सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने 50-60 के दशक में उत्तराखंड में अनुसूचित जाति के उन दलितों का चारधाम के मंदिरों में प्रवेश कराया, जो पहले मंदिर में नहीं जा सकते थे। उस समय तक दलित अपनी संतानों की शादी डोली अथवा घोड़े में बैठाकर नहीं कर सकते थे। उस दौरान अगर कहीं दलितों ने थोड़ा-सा भी प्रतिकार किया, तो उन पर तरह-तरह के जुल्म ढाए गए।
तत्कालीन समाज सुधारक जयानंद भारती, सोहनलाल भूभिक्षु, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, इंद्रमणि बडोनी आदि ने सामाजिक एकता व सद्भावना के लिए प्रयास किए थे। इनमें सुंदरलाल बहुगुणा को विशेष रूप से इसलिए याद किया जाता है कि उन्होंने ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर बड़ी संख्या में दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलवाया।
उस दौर में जब देश को आजाद हुए कुछ ही वर्ष हुए थे, तब टिहरी जनपद के थाती-बूढ़ा केदारनाथ गांव में धर्मानंद नौटियाल, बहादुर सिंह राणा, भरपुरु नगवान ने, जो क्रमशः ब्राह्मण, ठाकुर, दलित वर्ग में आते थे, अपनी जवानी के दिनों में एक दशक से अधिक समय तक साथ मिलकर खाना खाया और एक ही मकान में रहे। खेती-बाड़ी का काम भी उन्होंने साथ-साथ किया। ये तीनों गांधी के परम अनुयायी थे।
देश के कई हिस्सों में आज भी छुआछूत है। हाल ही में अल्मोड़ा जिले के थल्ला तडियाल गांव में अनुसूचित जाति के एक दूल्हे को घोड़े से उतारकर उसे पैदल जाने के लिए बाध्य किया गया था। ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं, जिस पर राजनीतिक पार्टियां मौन रहती हैं। आज ऐसी घटनाओं का खुलकर विरोध करने वाली शक्तियां न जाने क्यों बिखर गई है?
इस वर्ष हरिद्वार में हुई एक धर्म संसद में भड़काऊ टिप्पणी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे देश का माहौल खराब होता है। सामाजिक सद्भावना के लिए नवयुवकों ने उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के बैनर तले एक सद्भावना यात्रा भी निकाली, जिसका समापन 44 दिनों बाद 21-22 जून को देहरादून में हुआ था। समाज में हर वर्ग, जाति का व्यक्ति सिर उठाकर जी सके, इसके लिए निरंतर प्रयास चलते रहने चाहिए।
सोर्स: अमर उजाला
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