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धीरे-धीरे मुझे यह आभास मिलता जा रहा है कि असांप्रदायिक राज्य का नारा धोखे में डालने वाली बात है
लोकनाथ मिश्र,
धीरे-धीरे मुझे यह आभास मिलता जा रहा है कि असांप्रदायिक राज्य का नारा धोखे में डालने वाली बात है और देश की प्राचीन संस्कृति को भुला देने के लिए ही यह कौशल काम में लाया जा रहा है। 19 से 22 तक के अनुच्छेदों से असांप्रदायिक राज्य का खोखलापन जाहिर हो जाता है। आखिर हम यह पूछते हैं कि क्या सचमुच हमारा यह विश्वास है कि जीवन से धर्म को बिल्कुल पृथक रखा जा सकता है? अथवा हम यह समझते हैं कि इतने धर्मों में से किसे स्वीकार किया जाए, यह निर्णय करना कठिन है? धर्म अगर हमारे राज्य की बुद्धि से परे की चीज है, तो हमें साफ-साफ यह कह देना चाहिए और धर्म संबंधी अधिकारों का विधान में जो उल्लेख किया गया है, उसे हटा देना चाहिए। और अगर हम इसे जरूरी समझते हैं, तो साहसपूर्वक हमें यह कह देना चाहिए कि धर्म का क्या रूप होना चाहिए?
किंतु व्यर्थ की उदारता दिखाकर धर्म पर रोक लगाना और साथ ही धर्म प्रचार को मूलाधिकार का रूप देना कुछ विचित्र, बेतुकी और खतरनाक सी बात है। न्याय का यह तकाजा है कि सहस्राब्दियों तक आक्रांत रखे गए अपने प्राचीन धर्म एवं संस्कृति को अगर आप पूर्ववत उसके महिमामंडित स्थान पर आसीन नहीं करते हैं, तो कम से कम उसके साथ न्याय का बरताव तो अवश्य ही कीजिए।
हजरत मुहम्मद से या ईसा मसीह से हमारा कोई झगड़ा नहीं है और न उनके विचारों और कथनों से हमारा कोई झगड़ा है। हमारे दिलों में उनके लिए पूर्णत: आदर का ही भाव है। मेरी समझ से वैदिक संस्कृति में कोई बात छोड़ी नहीं गई है। प्रत्येक विचारधारा और संस्कृति का अपना महत्व है, किंतु आज धर्म का नारा लगाना एक खतरनाक बात है। इससे मानव समाज में अनेकता पैदा होती है, वह संप्रदायों में विभक्त हो जाता है और लोग अपने-अपने दल बनाकर संघर्ष का मार्ग अपना लेते हैं। अनुच्छेद 19 में जो धर्मप्रचार शब्द रखा गया है, उसका आज की स्थिति में आखिर क्या मतलब हो सकता है? इसका तो एकमात्र परिणाम यही होगा कि इससे हिंदू संस्कृति के एवं हिंदुओं की जीवन पद्धति तथा आचार-पद्धति के पूर्ण विनाश का ही मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। ...आखिर हिन्दुत्व क्या है? वह जीवन संबंधी एक ऐक्य-मूलक विचारधारा है, संसार को एक मानकर चलने वाला एक दर्शन है, जो एक सुसंगठित समाज (हिंदू समाज) के रूप में मूर्तिमान हो गया है, ताकि शांति और सद्भावनापूर्वक यह समाज इस विचारधारा और दर्शन को कार्यान्वित कर सके। किंतु हिंदुओं की इस उदार विचारधारा का दुरुपयोग किया गया है और राजनीति ने हिंदू संस्कृति को कुचल दिया है।
...आज तो धर्म के नाम पर राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध किए जाते हैं, क्योंकि आज की दुनिया में राजनीतिक शक्ति का ही बोलबाला है और सच्चे मानव की कहीं कोई पूछ नहीं है। हर आदमी, जैसे भी ठीक समझे अपना जीवनयापन करे, किंतु यह न होना चाहिए कि वह अपने दल की संख्या वृद्धि करे, जिससे कि राजनीतिक युद्ध में लूट का हिस्सा उसे मिल सके। सांप्रदायिक अल्पमत का प्रश्न हमें अब और न उठाना चाहिए, क्योंकि बहुमत को कालान्तर में उदरस्थ कर लेने के उद्देश्य से ही यह युक्ति निकाली गई थी। इस प्रश्न का उठाया जाना असह्य और न्यायविहीन है। वस्तुत: विश्व के किसी भी विधान में धर्म प्रचार को मूलाधिकार का रूप नहीं दिया गया है और न इसे न्याय अधिकार ही माना गया है। आयरिश फ्री स्टेट के विधान में उस धर्म की विशिष्ट स्थिति को स्वीकार किया गया है, जिसे वहां के बहुसंख्यक नागरिक मानते हैं, किंतु भारतवर्ष में हम ऐसा करने में संकोच का अनुभव करते हैं।...
अगर लोग अपने धर्म का प्रचार करना चाहते हैं, उन्हें इसकी स्वतंत्रता दीजिए। मैं तो केवल यही चाहता हूं कि विधान में इसे मूलाधिकार का रूप देकर आप इसके लिए प्रोत्साहन न दें। मूलाधिकार अपरिवर्तनीय हैं और धार्मिक प्रचार को जहां एक बार विधान में आपने मूलाधिकार का रूप दिया कि उसका परिणाम यह होगा कि इससे लोगों में शत्रुता की भावना उत्पन्न होने लगेगी। इसलिए मेरा कहना यह है कि धर्म-संबंधी अधिकार का हमें उल्लेख ही नहीं करना चाहिए। धर्म अपनी चिंता आप करेगा। ... वर्तमान सभ्यता बड़ी शीघ्रता से अपना रूप बदलती जा रही है और उसमें जबर्दस्त उथल-पुथल होने जा रही है। ऐसी हालत में हमें सावधान हो जाना चाहिए और जीवित रहने की चेष्टा करनी चाहिए।
सोर्स- Hindustan Opinion
Rani Sahu
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