सम्पादकीय

सड़कों पर चढ़कर हर साल चिढ़ाता पानी

Rani Sahu
21 July 2022 7:30 AM GMT
सड़कों पर चढ़कर हर साल चिढ़ाता पानी
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शहरी बाढ़ भारत में मानसून की एक खासियत बन गई है

अनंत मरिंगंति,

शहरी बाढ़ भारत में मानसून की एक खासियत बन गई है। इससे हर साल हमारे शहर जूझते हैं। रास्ते नदी बन जाते हैं, रेलवे स्टेशन और बस अड्डे पानी में डूब जाते हैं, संचार बाधित हो जाता है, पड़ोस में जाना भी दूभर हो जाता है और कुछ जगहों पर लोग हफ्तों तक पानी से घिरे रहते हैं। इस अनिश्चित, अत्यधिक और बेमौसम बारिश का कारण जलवायु परिवर्तन माना जा सकता है, जिसका असर महिलाओं, बुजुर्गों, बच्चों और वंचित तबकों पर कहीं ज्यादा होता है। मगर इसके लिए हमारी मूढ़ता भी कम जिम्मेदार नहीं है।
पहली मूर्खता, हम किसी जमीन पर यह जाने बिना हरित क्षेत्र का विकास करते हैं कि वहां पूर्व में कृषि की क्या स्थिति थी? उस भूमि को पहले समतल किया जाता है, फिर उसकी पारिस्थितिकी छीन ली जाती है और अंत मेें उसे अचल संपत्ति बना दिया जाता है। सर्वेक्षण और रिकॉर्ड रखने की प्रक्रियाओं में लगातार रद्दोबदल करने से उसे पहले बंजर भूमि और फिर 'प्राइम रियल एस्टेट' के रूप में ब्रांडिंग करने में मदद मिलती है। आज हमारे पास बेशक उचित कीमत पर ड्रोन से सर्वेक्षण करने की क्षमताएं हैं, पर हमारी पहुंच आधी सदी पहले किए गए भूसंपत्ति सर्वेक्षणों और 1970 के दशक में हवाई जहाज से ली गई तस्वीरों तक सीमित है। कुछ दशक पहले सीमा-चिह्नों के साथ तैयार नक्शे भी आज हमारे पास नहीं हैं। इन सबके बावजूद हम गेटेड सोसायटी, अपार्टमेंट व व्यावसायिक संपत्तियों में इजाफा देखते हैं, जिनको हम लेकव्यू, हिलटॉप जैसे नामों से भी जानते हैं।
दूसरी, हमें यह भरोसा हो गया है कि हमारी सभी समस्याओं का समाधान निर्माण व विनिर्माण संबंधी प्रौद्योगिकियां, और तेजी के साथ विस्तार लेती सूचना प्रौद्योगिकी कर सकती है। इसलिए, शहरी योजना पर पुनर्विचार करने के बजाय हम उन प्रौद्योगिकियों की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, जो बाढ़ की भविष्यवाणी कर सकती हैं और जलभराव जल्दी खत्म कर सकती हैं। इनमें से किसी का अब तक उपयोगी नतीजा नहीं निकल सका है। शहरी बाढ़ एक अत्यधिक स्थानीयकृत परिघटना है, जिसकी दशा-दिशा उसी तरह से साल-दर-साल बदलती रहती है, जिस तरह से अचल संपत्ति का ढांचा बदलता रहता है।
तीसरी, लोगों की असमान रिहाइश ने अत्यधिक अस्थिर शहरी संरचनाओं को जन्म दिया है, जो मानसून की पहली बारिश में ही दम तोड़ने लगती हैं। जिन लोगों का स्थायी ठौर-ठिकाना नहीं होता, वे संपत्ति में निवेश करने से कतराते हैं। इसी तरह, कई बस्तियां दशकों से खराब दशा में हैं। वहां लोग ऐसी सामग्रियों का उपयोग करते हैं, जो उन्हें नाममात्र की सुरक्षा देती हैं। जैसे, एस्बेस्टस और प्लास्टिक। प्रकृति के कहर के सामने ये चीजें जल्द दम तोड़ देती हैं।
चौथी, आपदाओं को लेकर हमारा नजरिया राहत और पुनर्वास पर केंद्रित रहा है। उपयोगी शहरी योजनाओं में बहुत कम निवेश किया गया है। हम किसी सरकार को विश्वसनीय इसी आधार पर मापते हैं कि वह कितनी जल्दी व कुशलता से लोगों को बचाती है और उन तक राहत पहुंचाती है। हमारा पूरा प्रयास बाढ़ की भविष्यवाणी करने वाली तकनीक, पानी निकालने के लिए पंपसेटों और पाइपलाइन पर निर्भर रहता है, जबकि बाढ़ अब बड़े शहरों तक सीमित नहीं हैं, छोटे शहरों में भी इनकी आमद बढ़ी है।
जाहिर है, हमें अपने शहरों को बचाने के लिए विशेष कदम उठाने पड़ेंगे। सबसे पहले हमें 'वेटलैंड कमीशन' का गठन करना होगा। हमें भूमि का मूल चरित्र फिर से हासिल करने की तरफ ध्यान लगाना चाहिए। भारत के शहरों में यह रुझान व्यापक तौर पर दिखने लगा है कि तटीय इलाकों या जल के नजदीकी क्षेत्रों को निजी संपत्ति बना लिया जाए। यह काम इस अदूरदर्शी सोच के साथ किया जाता है कि इससे उस इलाके के बेहतर रख-रखाव में मदद मिलेगी। वास्तव में, संपत्ति चाहे सरकार की हो या निजी, उसकी सीमाएं बांध दी जाती है, जबकि जल का स्तर बदलता रहता है। लिहाजा हमें वेटलैंड, यानी आर्द्रभूमि, घास का मैदान और दलदली इलाका बनाकर इसका सम्मान करना चाहिए और संपत्ति व गैर-संपत्ति के रूप में जमीन को बांटकर उसे संरक्षित करना चाहिए। यह काम वेटलैंड कमीशन बनाकर किया जा सकता है। जरूरी यह भी है कि इस आयोग के पास आवश्यक कार्यकारी, राजस्व और न्यायिक शक्तियां हों।
दूसरा कदम है, 'स्पंज सिटी मिशन'। हमें स्थान-आधारित दृष्टिकोण अपनाने की कहीं ज्यादा जरूरत है। शहरों में बाढ़ तब आती है, जब बांध टूट जाते हैं और झीलों अथवा तालाबों से पानी का अत्यधिक बहाव शुरू हो जाता है। बादल फटने और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाओं से भी पानी का जमाव हो जाता है। हालांकि, बाढ़ की वजह आमतौर पर स्थानीय बुनियादी ढांचे की विफलता और उस तरह के निर्माण-कार्य हैं, जो पानी को अवशोषित नहीं कर पाते हैं। इसका समाधान 'पड़ोस में प्राकृतिक क्षेत्र' हो सकता है, जिसमें स्थानीय सामुदायिक ज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके लिए हम स्पंज सिटी मिशन को गति दे सकते हैं, जिसका मकसद शहरी क्षेत्र को ऐसा रूप देना है कि वहां बारिश का पानी अवशोषित हो सके और बाढ़ को आने से रोका जा सके।
तीसरा, 'मेट्रोपॉलिटन प्लानिंग कमेटी'। शहरी बाढ़ खुद में कई अधिकार क्षेत्र को समेटे होती है। इसके अधिकतर समाधान इसलिए कारगर नहीं हो पाते, क्योंकि दो क्षेत्राधिकार एक-दूसरे के साथ पर्याप्त संवाद नहीं करते। इससे निपटने का एकमात्र तरीका एक ऐसा संगठन बनाना है, जिसके पास संयोजन से जुड़ी शक्ति हो। कई राज्यों में मुख्यमंत्री कार्यालय ही इस तरह की शक्ति वाला संस्थान बन गया है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी संस्थागत क्षमताएं महानगरीय या क्षेत्रीय विकास प्राधिकरणों के पास हों। हम चाहें, तो 'मेट्रोपॉलिटन प्लानिंग कमेटी' को एक उपयोगी मंच बना सकते हैं, जिसकी कल्पना 74वें संविधान संशोधन में की गई थी।
और अंतिम उपाय है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना। हमें विज्ञान पर भरोसा करना होगा, फिर चाहे वह पदार्थों का विज्ञान हो, जलवायु का विज्ञान हो या जीवन का विज्ञान। जलवायु परिवर्तन मानव जीवन के अस्तित्व के लिए चुनौती है। हमें इस पर संजीदगी से ध्यान देना होगा, चाहे इसके लिए अपने तमाम साधनों का ही क्यों न इस्तेमाल करना पड़े।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सोर्स- Hindustan Opinion Column


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