सम्पादकीय

गुरु का शिक्षक पक्ष

Rani Sahu
3 Sep 2021 6:53 PM GMT
गुरु का शिक्षक पक्ष
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वर्तमान शिक्षा के सफर पर निकले छात्र समुदाय ने भविष्य के प्रतीकों में, अपने लक्ष्यों का उन्माद जहां पहुंचा दिया है,

वर्तमान शिक्षा के सफर पर निकले छात्र समुदाय ने भविष्य के प्रतीकों में, अपने लक्ष्यों का उन्माद जहां पहुंचा दिया है, क्या वहां शिक्षक का वजूद जिंदा है। औपचारिक शिक्षा के उपचार में देश के संसाधन जिस तरह परोसे जाते हैं, क्या वहां शिक्षक के आदर्श खड़े रह सकते हैं। शिक्षा के तमाम प्रयोग ही शिक्षक के विरुद्ध रहे हों, तो यह जमात फिर केवल पाठ्यक्रम को हांकने वाली ही तो है। सवाल यह भी तो है कि शिक्षक बनना कौन चाहता और जो बनते हैं, वे इसे रोजगार की महक में जीते हैं न कि शिक्षा के चिराग से हाथ जलाने की खुशफहमी पालते हैं। यह दीगर है कि इस बार कोविड दौर में शिक्षा ने अपनी बाधाएं लांघी, तो यह केवल शिक्षक की बदौलत ही संभव हुआ। जनता ने सोचा लॉकडाउन में बेचारा शिक्षक मजे कर रहा है, लेकिन वह तो शिक्षा के लिए पहली बार इम्तिहान दे रहा था।

ऑनलाइन शिक्षा को प्रश्रय देने वाला अध्यापक पहली बार विभाग के उच्च अधिकारियों को बता पाया कि वर्तमान शिक्षा का ढांचा और ढर्रा कितना खोखला है। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों को अपने बच्चों की देखभाल का अरण्य मानने वाली जनता को मालूम हो गया कि स्कूलों में घंटियां नहीं, अध्यापकों के कान भी बजते हैं। स्कूल की परिपाटी में खोट निकालने वाले घर के पालने को भी मालूम हो गया कि अपने बच्चे भी पढ़ाई के प्रति कितने उदासीन हो सकते हैं। कोविड काल के इन दो सालों ने शिक्षक को वास्तव में स्तंभ के रूप में साबित किया और यह दौर इस वर्ग की कहानी बदल गया। कोविड काल के मनोविज्ञान में हर इनसान की चिंताएं बढ़ीं और इसी के परिप्रेक्ष्य में बच्चों का नन्हा संसार, भविष्य का रचनाकर्म, आपसी प्रतिस्पर्धा का मार्गदर्शन और घर के भीतर आशंकाओं का दबाव रहा है। ऐसे में यह तो केवल अध्यापक की वजह से साबित हुआ कि बच्चे स्कूलों के आंगन व छत के नीचे ही सच्चे दिखाई देते हैं। घरों में कैद बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में आई रुकावटों के अर्थ समझे जाएं, तो हर छात्र की स्वाभाविक जिंदगी का कोई न कोई 'गुरु पक्षÓ हो सकता है। क्या हमारा समाज और हमारी शिक्षा, गुरु के पक्ष को मजबूत करती है। क्या शिक्षा का ढांचा और पाठ्यक्रम का सांचा किसी अध्यापक को गुरु बनने का मौका देता है। देखा यह भी गया कि अध्यापक की जिम्मेदारियों को इतना औपचारिक बना दिया गया है कि वह स्कूल में सरकारी कार्यक्रमों का द्वारपाल बना नजर आता है।
शिक्षा की संगत में शिक्षक को पारंगत करने के बजाय, उसके वजूद को इतना उलझा दिया है कि मानवीय संवेदना उसके पास आकर विभिन्न आंकड़ों में विभक्त हो जाती है। जनता के सामने वह परीक्षा परिणामों का चलता-फिरता मजमून हो जाता है और इसी स्वरूप में उसका आकलन, आजीविका का दस्तूर बन जाता है। घंटियों और पाठ्यक्रम के बाहर शिक्षक अगर बिरादरी में रहते हुए अस्तित्व की तलाशी करता है, तो उसे कर्मचारी संगठनों की सियासत में 'सिर ढूंढने पड़ते हंै। क्या कोई 'गुरु अपनी आराधना में सियासत का पंछी हो सकता है, लेकिन चार कदमों पर खुले स्कूलों ने इस वर्ग को उडऩा सिखा दिया। हिमाचल में सबसे अधिक स्थानांतरण शिक्षकों के ही होते हैं, लेकिन इनके केंद्र में कोई भी कारण शिक्षा से नहीं जुड़ता। शिक्षा के लिए शिक्षक कितना और किस स्तर का जरूरी है, ऐसे विषयों पर बहस नहीं होती, लेकिन जो नेताओं को नचाए या बार-बार शैक्षिक व छात्र समारोहों में नेताओं को बुलाने में कामयाब हो जाए, उसकी समाज में तारीफ होती है। आश्चर्य तो यह है कि शिक्षक भी अब नहीं चाहता कि उसे बतौर 'गुरुÓ याद रखा जाए, बल्कि निजी सफलता के मानदंडों में वह इतना गौण नहीं होना चाहता है कि किसी अन्य वर्ग का वेतनमान, पदोन्नतियां या सेवा लाभ उससे कहीं अधिक हो जाएं। वह एक वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में दर्ज होना चाहता है, न कि एक ऐसा साधारण शिक्षक जिसे समाज सुधार में अपनी भूमिका की गफलत हो। शिक्षक को सर्वोपरि मानने में अनिच्छुक समाज, यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि जीवन के हर पाठ्यक्रम को अध्यापक ही पढ़ा दे।

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